कहानीकार ने नई रचना के लिए कलम उठाई और कागज पर शब्द आकार लेने लगे। कलम से निकलते ही पहला शब्द दूसरे शब्द से बोला – “लो, कहानीकार जी ने अपनी नई रचना शुरू कर दी है। अब ये हम शब्दों को जोड़कर वाक्य बनाएंगे और फिर वाक्यों में गुंथे हम शब्द ही रचना को आगे बढ़ाएंगे।“
दूसरा शब्द बोला – “सच, कह रहे हो दोस्त, रचना तो हमारे दम पर ही आगे बढ़ेगी, पर हमारे हाथ में है क्या? अब ये हम शब्दों से खेलेंगे और हमें जैसा चाहेंगे नचाएंगे।“
अब तक कागज पर बहुत से शब्द उभर आए थे, सभी के चेहरे पर कई रंग आ-जा रहे थे – “कितनी अजीब बात है, हम शब्दों से ही इनकी रचना बनेगी, पर सारा श्रेय कहानीकार जी को ही मिलेगा।“
तभी एक संजीदा शब्द ने अपनी गंभीर आवाज में कहा – “ऐसी बात नहीं है, भाइयो जो भी रचना को पढ़ेगा, वह रचनाकार को श्रेय देते हुए यही कहेगा - वाह रचना में शब्दों की छटा देखते ही बनती है।“
दूसरा बीच में बोला था – “तुम सकारात्मक सोचते हो यह बहुत अच्छी बात है भाई, पर यह भी तो सुनने को मिल सकता है कि जिन शब्दों का प्रयोग किया गया है, वे सही भावों को व्यक्त नहीं करते या फिर शब्द और उनसे बने वाक्य इतने कठिन और जटिल हैं कि भाव समझ में ही नहीं आते। कई बार तो लोग सिर्फ कुछ शब्दों या फिर किसी एक शब्द मात्र के प्रयोग को लेकर मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। मैं तो कहता हूं, इस कहानीकार के हाथों कहीं हमारी दुर्गति न हो जाए।“
“सचमुच, कई बार तो ये कुछ नया करने के चक्कर में हमें खींच-तान कर इतना बेतुका और अनगढ़ बना देते हैं कि हमारा स्वरूप ही बिगड़ जाता है। पर, ये अपना सीना चौड़ा करके कहते हैं – इन्होंने नया प्रयोग किया है। इन्हें जरा भी परवाह नहीं कि इनके इन करतबों से हमें और पाठकों को कितना कष्ट होता है।“
“सच कह रहे हो यार, पता नहीं ये हमारे साथ खिलवाड़ क्यों करते रहते हैं।“
“हां, कहानीकार जी कैसे हमारा प्रयोग करते हैं, इस बात पर ही हम शब्दों की मर्यादा निर्भर करती है। देखते जाओ, अभी तो उन्होंने शुरूआत ही की है।“
“शुरूआत ही प्रभावशाली होनी चाहिए। हालांकि, मैं अभी ताजा-ताजा इनकी कलम से निकला हूं, पर मेरा अस्तित्व तो वेदों-पुराणों तक में मौजूद है। मेरा प्रयोग अनगिनत बार हुआ है और नए-नए अर्थों में भी हुआ है।“
“सच कह रहे हो दोस्त” - उनमें से किसी शब्द ने कहा – “हमारा जन्म आज नहीं हो रहा है, हां एक नयी रचना में हमें पिरोया जरूर जा रहा है। पता नहीं, हमारे प्रयोग से यह रचना कालजयी बनेगी या फिर पाठकों और आलोचकों द्वारा रद्दी की टोकरी में फेंकने लायक घोषित कर दी जाएगी।“
“हमें जहां रचना की सराहना से आत्मिक सुख मिलता है, वहीं उसकी आलोचना से बेहद दु:ख भी होता है क्योंकि आखिर भावों को हमारे माध्यम से ही तो व्यक्त किया जाता है। मित्र, यह कैसी मजबूरी है कि हम खुद को वाक्यों में नहीं बांध सकते। वाक्य में जहां भी रचनाकार जी का मन होगा, हमें रखते जाएंगे।“
“रखते क्या जाएंगे, रख ही रहे हैं। तुम तीसरी पंक्ति के पांचवे शब्द हो और मैं चौथी पंक्ति का तीसरा शब्द। हम पंक्ति में जिस स्थान पर जाना चाहें या वहां से निकलना चाहें तब भी कुछ नहीं कर सकते। हां, जब ये पूरी रचना लिखने के बाद उसे फिर से पढ़ेंगे तो शायद हमें सही जगह पर ले आएं।“
कोई शब्द जोर से हंसा था – “यह भी तो सकता है कि सही जगह से हटा कर गलत जगह रख दें।“
सारे शब्द एकदम चुप हो गए – मन ही मन सोच रहे थे, हां, यह भी हो सकता है। रचनाकार का विषय-ज्ञान, शब्दज्ञान या फिर अनुभव कितना है, सबकुछ इस पर निर्भर करता है।
तभी छठी पंक्ति के एक छोटे शब्द ने चिल्ला कर कहा – “रचनाकार जी के मूड पर भी हमारा प्रयोग निर्भर करता है, बोलो सच कह रहा हूं ना? मेरा हजारों साल का अनुभव है।“
“तुम गलत नहीं हो मित्र, पर यह मत भूलो कि रचनाकार किस नीयत से हमारा प्रयोग करता है, वह भी वाक्य में हमारा स्थान निर्धारित करता है। हमें किसी अन्य शब्द के आगे या पीछे ले जाकर वह अर्थ का अनर्थ भी कर सकता है। गलत कहा मैंने?”
“बिलकुल नहीं, पर हमने यह बहस क्यों शुरू कर दी है। देखें तो सही यह रचनाकार अपनी कलम से रच क्या रहा है।“
“हां, यह ठीक रहेगा। पहली लाइन से ही देखते हैं, हमारे माध्यम से रचनाकार जी क्या कहना चाह रहे है।“
वाक्यों में ढलते शब्द सतर्क हो गए और रचना के प्रवाह को देखने-समझने लगे। रचना कुछ यूं आकार ले रही थी :
एक राजा था, एक रानी थी। राजा और रानी के ठाठ-बाट इसलिए फीके पड़ जाते थे कि उनके कोई संतान नहीं थी। राजा हमेशा बेचैन रहता था कि उसके बाद राज कौन संभालेगा। रानी को इस बात का दु:ख था कि उसे अभी तक मां बनने का सुख नहीं मिला था।
“राजा” और “रानी” दोनों शब्द खुश होकर बोले – “देखा, अकसर कहानियां हमीं से शुरू होती हैं।“
“हां भई, यह हाल तो तब है जब राजाओं के राज कब के खत्म हो चुके हैं” – कई शब्द चिढ़कर बोले।
“हुए होंगे राजाओं के राज खत्म पर हम शब्द तो अभी जिंदा हैं। पता है, शब्द तभी मरते हैं जब उनके अर्थ खत्म हो जाते हैं। बताओ, आज भी लोग राज कर रहे हैं या नहीं। राजाओं के जमाने को आज के जमाने से बेहतर मानने-बताने वाले अनगिनत लोग हैं या नहीं? पुराने राजाओं की संतानें आज भी चुनाव जीत कर राज कर रही हैं या नहीं?” आज भी राज करने की वंश परंपरा चल रही है या नहीं?
“सच कह रहे हो यार – ‘ठाठ-वाट’ शब्द बोला – “मेरा प्रयोग पहले से बहुत ज्यादा होने लगा है। लोग कहते हैं, आज के ये राजा पुराने राजाओं से भी ज्यादा ठाठ-वाट से रहते हैं।“
“कहानी तो आगे बढ़ने दो यार” – कलम से निकलने के बाद गहरा सांस लेता शब्द बोला।
रानी गर्भवती हुई तो पूरे राज्य में खुशी की लहर दौड़ गई। राजा तो खुशी के मारे फूला नहीं समा रहा था। राज्य को युवराज मिलने वाला था। लेकिन, जब रानी ने कन्या को जन्म दिया तो पूरे राज्य में मातम छा गया और राजा भी उदास हो गया।
कहानीकार ने जैसे ही ‘मातम’ और ‘उदास’ शब्दों का प्रयोग किया दोनों शब्द बिफर गए – “हमारा प्रयोग गलत स्थान पर किया गया है। न जाने कबसे हमारे साथ यह बेइंसाफी की जाती रही है। कन्या के जन्म का उल्लेख करते समय हमेशा हमारा ही प्रयोग क्यों किया जाता है?” तभी ‘खुशी’ और ‘आनंद’ शब्द भी बोल पड़े – “सच कह रहे हैं हमारे दोनों मित्र। कन्या के जन्म के साथ ‘मातम’ की जगह ‘खुशी’ और ‘उदासी’ की जगह ‘आनंद’ का प्रयोग क्यों नहीं किया जाना चाहिए? कहानीकार को यह क्यों नहीं लिखना चाहिए कि जब रानी ने कन्या को जन्म दिया तो पूरे राज्य में ‘खुशी’ छा गई और राजा भी ‘आनंद’ से झूमने लगा।“
उधर कहानीकार कहानी को आगे बढ़ा चुका था – राजकुमारी जैसे-जैसे बड़ी हो रही थी, वैसे-वैसे राजा की चिंता बढ़ती जा रही थी। वह उसके लिए एक ऐसा योग्य वर तलाशने में लगा था जो राज चलाने में भी उसकी सहायता कर सके। पर, राजा का महामंत्री इस जुगत में लगा था कि उसके बेटे का विवाह राजकुमारी के साथ हो जाए और वह राज्य का मालिक बन जाए। इसके लिए उसने राजनीतिक खेल खेलने शुरू कर दिए थे।
‘जुगत’ शब्द बहुत खुश होकर बोला था – “वाह कहानीकार जी, आपने मेरा कितना सही प्रयोग किया है, इस जगह कोई भी दूसरा शब्द रखते तो वह प्रभाव उत्पन्न नहीं हो पाता जो मेरे प्रयोग से हुआ है।“ लेकिन, उधर ‘खेलने’ शब्द के माथे पर बल उभर आए - राजनीति शब्द के साथ जब लोग मेरा प्रयोग करते हैं तो मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगता। मैं तो चाहता हूं, मेरा प्रयोग बस खेलों के साथ ही हो, कहां मनोरंजक और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा वाले खेल और कहां सड़ी राजनीति।“
राजा मंत्री के शराबी-कबाबी बेटे से राजकुमारी की शादी करने का ख्याल भी अपने मन में नहीं लाना चाहता था। राजा के रवैये और बेरुखी से परेशान होकर महामंत्री ने एक दुष्ट चाल चली। जब राजकुमारी शाम के समय अपनी एक प्रिय सहेली के साथ नदी किनारे टहल रही थी, तब उसका अपहरण हो गया।
‘चाल’ शब्द ने आपत्ति जताते हुए कहा – “मेरे साथ ‘दुष्ट’ शब्द को रखना कितना सही है? मैं सीधा-सादा हूं, पर मेरे आगे-पीछे ऐसे ही शब्द जोड़कर मुझे सदियों से खलनायक बनाया जाता रहा है, जैसे टेढ़ी चाल, चालबाज। मेरा बस चले तो .......।“
उसके पक्ष में बहुत से शब्दों ने ‘मी-टू’ की तर्ज पर अपनी बात रखनी शुरू कर दी। हमारे आगे-पीछे भी कोई न कोई शब्द जोड़कर हमारा अर्थ बिगाड़ने का काम न जाने लोग कबसे करते आ रहे हैं।“ तभी एक संजीदा शब्द ने कहा – “मैं आप सबकी बात से सहमत हूं, पर यह भी तो सोचो कि किसी शब्द के आगे-पीछे कोई दूसरा शब्द जोड़कर उसे सकारात्मक रूप देने का काम भी तो सदियों से ही किया जा रहा है।“ उसकी बात में दम था इसलिए शब्दों के बीच जो चिल्लपौं मची हुई थी, वह तुरंत ही थम गई।
राजकुमारी के अपहरण की खबर ने पूरे राज्य में खलबली मचा दी। राजा ने उसे ढ़ूंढ़ने के लिए अपने बहादुर और ईमानदार सेनापति को तलब किया। उसने अपने विश्वस्त सैनिकों को चारों दिशाओं में फैला दिया। उसे पता चला कि महामंत्री ने राजकुमारी को अपने घर के तहखाने में छुपा रखा था। उसने यह बात राजा को बताई तो वह बोला तुम्हें जरूर कोई गलत-फहमी हुई है। वफादार महामंत्री जी यह सब नहीं कर सकते।
‘गलतफहमी’ शब्द तमतमा कर बोला – “जहां गलतफहमी नहीं होनी चाहिए, वहीं अकसर मेरा प्रयोग किया जाता है। इस स्थिति से मैं तंग आ गया हूं। कोई भी लेखक मेरा सही स्थिति और सही जगह पर प्रयोग क्यों नहीं करता? “
अन्य कई सारे शब्द उससे सहानुभूति जताते हुए कहने लगे – “दोस्त, हमारा भी हाल तुम से अलग नहीं है, बस अपनी कुत्ता-फजीती कराने और उसे देखने-सहने के अलावा हमारे पास कोई चारा भी तो नहीं है।“
राजा, सेनापति और उसके कुछ भरोसेमंद सैनिकों ने भेष बदलकर महामंत्री के घर पर छापा मारा और तहखाने से राजकुमारी को मुक्त करा लिया। राजा के आदेश से महामंत्री और उसके बेटे को बंदी बना कर जेल में डाल दिया गया। राजा सेनापति से बहुत प्रसन्न हुआ और उसने राजकुमारी की शादी उससे कर दी। सही हाथों में उसे सौंप कर उसकी चिंता को विराम लग गया। वे सभी सुख से रहने लगे।
कहानी खत्म करने के बाद कहानीकार ने जब कहानी पढ़ी तो उसे लगा उसने कुछ नया नहीं लिखा है, ऐसी ही कहानियां वह बचपन से सुनता-पढ़ता आ रहा है। उसे लगा कि कहानी में कुछ नयापन होना चाहिए। यह सोचकर उसने आव देखी ना ताव कहानी को फाड़कर उसके टुकड़े किए और उन्हें पास ही रखे डस्टबिन में फेंक दिया।
सारे शब्द अलग-अलग टुकड़ों में फटे अवाक से पड़े थे। डस्टबिन में सन्नाटा पसरा था। एक क्षण में ही उन्हें बेकार बना दिया गया था। तभी कोई शब्द बोला – “निराश मत हो दोस्तो, रचनाकार फिर नई रचना रचेगा। बिना हम शब्दों के कुछ भी नहीं लिख-कह पाएगा। हम भी चाहते हैं किसी अच्छी रचना का आधार बनें, हमारे साथ खिलवाड़ न हो, समय के साथ-साथ हमारे रूप में, हमारे अर्थ में सिर्फ सकारात्मक परिवर्तन आएं और हमारे माध्यम से अभिव्यक्ति और भी सटीक होती जाए। इस सृष्टि की रचना भी हमारे ही एक भाई ‘ओम’ से हुई है। जब तक सृष्टि है, शब्द-शक्ति मौजूद है। हम शब्द असंख्य नई रचनाओं को जन्म देने के लिए तैयार हैं, हैं ना? डस्टबिन के अंधेरे में टूटे-बिखरे पड़े नि:शब्द शब्दों की अंगड़ाई से बेखबर रचनाकार नई रचना के लिए खुद को तैयार कर रहा था।
मेरे बारे में
मेरा जन्म 10 मई 1950 को भरतपुर, राजस्थान में हुआ था. लेकिन, पिताजी की सर्विस के कारण बचपन अलवर में गुजरा. घर में पढ़ने पढ़ाने का महौल था. मेरी दादी को पढ़ने का इतना शौक था कि वे दिन में दो-दो किताबें/पत्रिकाएं खत्म कर देती थीं. इस शौक के कारण उन्हें इतनी कहानियां याद थीं कि वे हर बार हमें नई कहानियां सुनातीं. उन्हीं से मुझे पढ़ने का चस्का लगा. बहुत छोटी उम्र में ही मैंने प्रेमचंद, शरत चंद्र आदि का साहित्य पढ़ डाला था. पिताजी भी सरकारी नौकरी की व्यस्तता में से समय निकाल कर कहानी, कविता, गज़ल, आदि लिखते रहते थे.
ग्यारह वर्ष की उम्र में मैंने पहली कहानी घर का अखबार लिखी जो उस समय की बच्चों की सबसे लोकप्रिय पत्रिका पराग में छपी. इसने मुझे मेरे अंदर के लेखक से परिचय कराया. बहुत समय तक मैं बच्चों के लिए लिखता और छपता रहा. लेकिन, कुछ घटनाओं और बातों ने अंदर तक इस प्रकार छुआ कि मैं बड़ों के लिए लिखी जाने वाली कहानियों जैसा कुछ लिखने लगा. पत्र-पत्रिकाओं में वे छपीं और कुछ पुरस्कार भी मिले तो लिखने का उत्साह बना रहा. महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी का भी पुरस्कार मिला. कहानियां लिखने का यह सिलसिला जारी है. अब तक दो कहानी संग्रह – नया लिहाफा और अचानक कुछ नहीं होता प्रकाशित हो चुके हैं. तीसरा संग्रह भीतर दबा सच प्रकाशनाधीन है. कहानियां लिखने के अलावा व्यंग्य लेख और कविताएं भी लिखता रहता हूं.
हर कोई अपने-अपने तरीके से अपने मन की बात करता है, अपने अनुभवों, अपने सुख-दु:ख को बांटता है. कहानी इसके लिए सशक्त माध्यम है. रोजमर्रा की कोई भी बात जो दिल को छू जाती है, कहानी बन जाती है. मेरा यह मानना है कि जब तक कोई कहानी आपके दिल को नहीं छूती और मानवीय संवेदनाएं नहीं जगा पाती, उसका आकार लेना निरर्थक हो जाता है. जब कोई मेरी कहानी पढ़कर मुझे सिर्फ यह बताने के लिए फोन करता है या अपना कीमती समय निकाल कर ढ़ूंढ़ता हुआ मिलने चला आता है कि कहानी ने उसे भीतर तक छुआ है तो मुझे आत्मिक संतुष्टि मिलती है. यही बात मुझे और लिखने के लिए प्रेरणा देती है और आगे भी देती रहेगी.
नौकरी के नौ वर्ष जयपुर में और 31 वर्ष मुंबई में निकले. भारतीय रिज़र्व बैंक, केंद्रीय कार्यालय, मुंबई से महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति के बाद अब मैं पूरी तरह से लेखन के प्रति समर्पित हूं.
ई-मेल – rks.mun@gmail.com
मोबाइल 9833443274
लेखक डॉ. रमाकांत शर्मा का साहित्यिक परिचय
- शिक्षा – एम.ए. अर्थशास्त्र, एम.कॉम, एलएल.बी, सीएआइआइबी, पीएच.डी(कॉमर्स)
- पिछले लगभग 45 वर्ष से लेखन
- लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित
कहानी संग्रह – नया लिहाफ, अचानक कुछ नहीं होता, भीतर दबा सच, डा. रमाकांत शर्मा की चयनित कहानियां, तुम सही हो लक्ष्मी, सूरत का कॉफी हाउस(अनूदित कहानियां)
व्यंग्य संग्रह – कबूतर और कौए
उपन्यास - मिशन सिफर, छूटा हुआ कुछ
अन्य - रेडियो (मुंबई) पर नियमित रूप से कहानियों का प्रसारण, यू.के. कथा कासा कहानी प्रतियोगिता प्रथम पुरस्कार, महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी से सम्मानित, कमलेश्वर स्मृति कहानी पुरस्कार (दो बार), अखिल भारतीय स्तर पर अन्य कई कहानियां पुरस्कृत, कई कहानियों का मराठी, गुजराती, तेलुगु और उड़िया में अनुवाद
संप्रति - भारतीय रिज़र्व बैंक, मुंबई से महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति के बाद स्वतंत्र लेखन
संपर्क - मोबाइल-919833443274
ईमेल – rks.mun@gmail.com
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