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डॉ. रमाकांत शर्मा

कोई रास्ता है तुम्हारे पास


मदन नाम था उसका। कुछ महीने पहले ही उसने हमारी कंपनी ज्वाइन की थी। हम एक ही विभाग में काम करते थे और हमारी सीटें भी आस-पास थीं, इसलिए हम दोनों में खासी बनने लगी थी। लंच में तो हम साथ होते ही, ऑफिस के बाद भी साथ ही घूमने निकल जाते। समुद्र की हवा का आनंद लेने के लिए हम अकसर मरीन ड्राइव की बेंचों पर जा बैठते। घर जाने की कोई जल्दी होती नहीं थी क्योंकि न तो अभी मदन की शादी हुई थी और न मेरी। आप ठीक समझे, शादी की हमारी उम्र अभी निकली नहीं थी, बस उस बंधन में बंधने से पहले अपनी नौकरी और छड़ेपन का खुल कर आनंद उठा रहे थे। हाथों में चने, मूंगफली या बंबईया भेल के पैकेट होते और हम यहां-वहां की बातें करते समय काटते रहते। कभी-कभी किसी रेस्टोरेंट में बैठ कर साथ ही खाना खाते और फिर अपनी-अपनी खोली में जाने के लिए मैं चर्चगेट चला जाता और वह सीएसटी की तरफ निकल जाता।

इधर तीन-चार दिन से मदन ऑफिस नहीं आ रहा था। वह फोन भी नहीं उठा रहा था। मुझे उसकी चिंता होने लगी। कहीं बीमार न पड़ गया हो। अकेला रहता था, कोई देखने वाला भी नहीं था। फिर, मुंबई का माहौल, कोई पड़ोसी भी झांकने नहीं आता। मैंने तय किया कि आज शाम ऑफिस के बाद उसके घर जाऊंगा।

पूछता-पूछता पहली बार उसके ठिकाने पर पहुंचा। मेरी तरह उसने भी एक सोसायटी में रूम किराए पर ले रखा था। पुरानी सोसायटी थी। दरवाजे पर बेल नहीं थी। काफी देर तक दरवाजा खटखटाने के बाद जब मैं वापस लौटने का मन बना ही रहा था, तभी दरवाजा खुला। लुंगी और बनियान पहने मदन खड़ा था। उसके बाल बिखरे हुए थे और आंखें लाल थीं, ऐसा लगता था कई रातों से सोया नहीं था। मुझे दरवाजे पर खड़ा देख कर वह थोड़ा चौंका और फिर हाथों से बालों को ठीक करता हुआ बोला – “राकेश तुम? अंदर आ जाओ।“

“तबीयत तो ठीक है न? इतने दिन से ऑफिस नहीं आ रहे तो चिंता हो आई। फिर तुम फोन भी तो नहीं उठा रहे। मोबाइल काम नहीं कर रहा है क्या तुम्हारा?” मैंने कमरे में घुसते हुए कहा।

उसने फीकी हंसी हंसते हुए कहा – “तबीयत को कुछ नहीं हुआ यार, बस मन नहीं किया ऑफिस आने का। मुझे पता था, तुम चिंता कर रहे होगे। पर, यहां तक आ पहुंचोगे, इसका अंदाजा नहीं था मुझे।“

बेतरतीब कमरे में जमीन पर एक गद्दा पड़ा था, अलमारी का दरवाजा खुला हुआ था और एक छोटी सी साइड टेबिल पर कई किताबें और कागज बिखरे पड़े थे। कमरे के एक कोने में छोटा सा किचन प्लेटफार्म था जिस पर इलेक्ट्रिक स्टोव रखा था और कुछ बर्तन मुंह फाड़े पड़े थे। उसने चादर एक तरफ सरकाते हुए मुझे गद्दे पर बैठने का इशारा किया।

मैंने जूते खोले और गद्दे पर बैठते हुए कहा – “क्या हुलिया बना रखा है, यार? तबीयत खराब नहीं थी तो फिर ऑफिस ही आ जाते।“

वह दीवार के सहारे गद्दे पर बैठ गया। बहुत खोया-खोया सा लग रहा था। मेरे बार-बार पूछने पर भी जब वह चुप रहा तो मेरा धैर्य जवाब देने लगा – “देखो मदन, कुछ न कुछ तो ऐसा जरूर हुआ है जो तुम इतने परेशान लग रहे हो। इस इतने बड़े शहर में हम एक-दूसरे का सहारा हैं। बताओ, क्या परेशानी है, मैं तुम्हारी कोई मदद कर सकता हूं?”

“काश, कोई मेरी मदद कर सकता? कोई कुछ नहीं कर सकता दोस्त। मेरी यही बेबसी मुझे खाये जा रही है। मैं किसी को कुछ बता भी नहीं सकता।“

“हम दोस्त हैं यार। हो सकता है, मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकूं, पर तुम जब तक बताओगे नहीं, मुझे तुम्हारी परेशानी कैसे पता चलेगी?”

वह थोड़ी देर तक कुछ नहीं बोला। फिर, बुदबुदाने लगा – “मेरी बात पर विश्वास कौन करेगा? मैं जिस आग में जल रहा हूं, उससे कोई मुझे बाहर नहीं निकाल सकता, मैं जानता हूं अब जिंदगी भर मुझे तिल-तिल कर जलना-मरना है।“

मेरा मन तमाम तरह की आशंकाओं से भर उठा – “कुछ कहो भी यार, इतने दिनों के साथ से मैं इतना तो समझ ही गया हूं कि तुम एक ईमानदार और संवेदनशील व्यक्ति हो। तुम्हारी हालत बता रही है कि कुछ अविश्वसनीय जरूर घटा है तुम्हारे साथ। पर, कोई करे न करे मैं करूंगा विश्वास तुम्हारी बात पर। तुम बोलो तो सही।“

मदन सीधा होकर बैठ गया और फिर उसने कहना शुरू किया – “हायर सेकेंड्री की परीक्षा पास करने के बाद पढ़ाई जारी रखने के लिए मुझे अपने कस्बे से शहर जाना पड़ा। हॉस्टल का खर्चा सहन करने की ताकत नहीं थी, इसलिए एक छोटा सा कमरा किराए पर ले लिया। खुद ही अपना खाना बना लिया करता और पढ़ाई में लगा रहता। मैं चाहता था पढ़-लिख कर जल्दी से किसी अच्छी नौकरी से लग जाऊं और अपने बाबूजी का भार कम करूं जो छोटी सी किसानी में मेहनत कर पसीना बहाते हुए परिवार के लिए बमुश्किल दो-वक्त की रोटी जुटा पाते थे।

मैं जिस कमरे में रहता था उससे सट कर दो कमरों का छोटा सा घर था। उस घर में लगभग 40 वर्ष के एक अंकल और 35 वर्ष की उनकी पत्नी रहते थे। दोनों ही बहुत अच्छे थे। धीरे-धीरे उनसे पहचान हो गई। मैं यथासंभव उनसे दूरी बनाए रखता, पर कभी-कभी आंटी या अंकल मुझे आवाज देकर बाजार से कुछ सामान लाने को कहते तो मैं ला देता। इस वजह से उनके घर में आना-जाना हो जाता। आंटी और अंकल के कोई संतान नहीं थी। शायद इसलिए मुझे उनका स्नेह मिलने लगा। आंटी ने तो एक दिन मुझसे कहा भी था कि मैं खुद खाना क्यों बनाता हूं, उनके घर ही खा लिया करूं, पर मैं इसके लिए तैयार नहीं हुआ। हां, कभी-कभी जब वे बहुत आग्रह करते, मैं उनके यहां खाना खा लेता। बातों ही बातों में जब उन्होंने मेरे परिवार के बारे में जानना चाहा तो मैंने उन्हें बताया कि गांव में मेरा छोटा सा परिवार है और छोटी सी लेकिन ठीक-ठाक खेतीबाड़ी है। आगे की पढ़ाई के लिए मुझे यहां शहर में अकेला रहना पड़ रहा है।

कहीं न कहीं मैं मां बाबूजी को बहुत मिस करता था। आंटी और अंकल के रूप में एक परिवार मिल गया था। मन बहुत उदास होता तो कभी-कभी यूं भी उनके पास चला जाता और उनका स्नेह पाकर कुछ देर के लिए सबकुछ भूल जाता।

उस दिन अंकल के आवाज लगाने पर जब मैं वहां पहुंचा तो वे कहीं बाहर जाने के लिए तैयार थे। मुझे देखते ही उन्होंने कहा – “मदन, मुझे जरूरी काम से बाहर जाना है। आने में दो-तीन घंटे लग जाएंगे। तुम्हारी आंटी की तबीयत ठीक नहीं है, क्या तुम मेरे आने तक उसके पास रुक सकते हो?” मेरे ‘हां’ कहने पर उन्होंने प्यार से मेरी पीठ पर हाथ रखा और चले गए।

आंटी अंदर अपने कमरे में लेटी हुई थीं। उन्होंने वहीं से आवाज लगाई – “मदन, थोड़ा पानी दोगे। और देखो, बाहर का दरवाजा बंद कर देना कहीं कुत्ता-बिल्ली घर में न घुस आएं।“

मैंने दरवाजा बंद किया और किचन में जाकर घड़े से गिलास में पानी लेकर आंटी को देने गया। वे चादर ओढ़ कर लेटी हुई थीं। उन्होंने थोड़ा उठ कर पानी पिया और फिर पास वाली मेज पर गिलास रखते हुए कहा – ‘आओ मदन, मेरे पास ही बैठ जाओ। मेरे सिर में दर्द है, थोड़ा सिर दबा दो।‘ मुझे संकोच में पड़ा देख कर उन्होंने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे पलंग पर बैठा दिया। मैं धीरे-धीरे उनका सिर दबाने लगा। उन्होंने कमर में दर्द की शिकायत के साथ कमर भी दबाने के लिए कहा। मैं उनकी कमर दबाने लगा। तभी आंटी ने मुझे अपने पास खींच लिया। मैं बुरी तरह चौंक गया, पर उनकी हरकतों में एक अजीब सा आनंद आने लगा। मैं शायद अपने होश खो बैठा था, अच्छे-बुरे का कोई भान नहीं रहा और उस दिन हमने सारी हदें पार कर दीं।

अंकल के आने से पहले ही मैं अपने कमरे में लौट आया। ये क्या हो गया था, मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था। एक अपराध-बोध मन को बेचैन बनाए हुए था। मैंने तय कर लिया कि अब मैं उनके घर कभी नहीं जाऊंगा। लेकिन, जब आंटी ने अंकल की अनुपस्थिति में मुझे फिर बुलाया तो उस अनोखे अनुभव से एक बार फिर से गुजरने का लोभ संवरण नहीं कर सका। उसके बाद तो यह रूटीन ही हो गया। करीब दो माह यह सब चलता रहा। उसके बाद अचानक आंटी ने बेरुखी अपना ली। मेरी बेचैनी बढ़ती और मैं आंटी के पास जाने के लिए मचलता पर आंटी ने ऐसा व्यवहार करना शुरू कर दिया जैसे वे मुझे जानती ही नहीं हों।

उस दिन जब मैं सुबह सो कर उठा तो यह जानकर स्तब्ध रह गया कि अंकल-आंटी रात में ही वह मकान छोड़कर कहीं और चले गए हैं। मकान मालिक भी सिर्फ यही बता पाया कि उन्होंने यह मकान छोड़ दिया है और उसे नहीं पता कि वे कहां गए हैं। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आंटी ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया है। शुरूआत तो उन्होंने की थी। मैंने तो उन्हें कभी उस नजर से देखा ही नहीं था। मैं रात-रात भर तड़पता रहता, मैंने पूरे शहर की खाक छान डाली, पर वे तो न जाने कहां गायब हो गए थे।

मुझे और आंटी को लेकर बातें बनना तो दूर, किसी को सपने में भी इसका अंदाजा नहीं रहा होगा। आंटी को यहां से जाना ही था तो उन्होंने मुझे इस अजाब में क्यों घसीटा था।

मैं कुछ दिनों के लिए अपने गांव चला गया, पर वहां जरा भी मन नहीं लगा और वापस लौट आया। एक उम्मीद थी कि वापस लौटने पर वे मुझे वहीं मिल जाएंगी, पर यह न होना था न हुआ। बगल वाले बंद कमरे को देखकर मैं पागल सा हो जाता। आखिर, कुछ ही दिनों में मैंने वह कमरा छोड़ दिया और उस जगह से दूर एक कमरा किराए पर लेकर रहने लगा। उस जगह को छोड़ देने का अच्छा असर हुआ और फिर मैं अपनी पढ़ाई में पूरी तरह डूब गया।

समय के साथ-साथ मेरी बेचैनी कम होती गई और जब कभी मैं उस हादसे को मन ही मन दोहराने लगता तो इसी निष्कर्ष पर पहुंचता कि उनका वहां से चले जाना ही शायद सबसे अच्छा विकल्प था।

मैंने बी.ए. कर लिया। इस बीच मैं सिर्फ दो-तीन बार ही गांव गया था। कॉलेज छोड़ते ही मुझे इस कंपनी में नौकरी मिल गयी और तुम्हारे जैसा दोस्त भी। सबकुछ ठीक-ठाक ही तो चल रहा था। पर, अभी कुछ दिन पहले मेरे साथ जो अकल्पनीय घटा, उसने मुझे तोड़कर रख दिया है यार..........।“

मैं यह देख कर परेशान हो उठा कि मदन का गला रुंध गया था और उसकी आंखों से आंसूं बहने लगे थे। मैंने उसके हाथ पर अपना हाथ रख दिया तो वह हिचकियां भर कर रोने लगा।

मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। वह रोए जा रहा था और उसकी बात वहीं ठहरी थी। जहां मैं उसे सांत्वना देने में लगा था, वहीं मेरी उत्सुकता चरम पर पहुंच रही थी। उसकी हिचकियां रुकीं तो मैंने कहा – “ मैं समझ सकता हूं, मदन। इस घटना ने तुम्हारे अंदर स्वाभाविक पीड़ा भर दी है। पर, बेहतर यही होगा कि तुम इससे उबरने और जीवन को सहज ढ़ंग से जीने के लिए खुद को जल्दी तैयार कर लो।“

“सबकुछ भूल कर जीवन को पटरी पर ले तो आया था, दोस्त। पर, जीवन की गलियों के टेढ़े-मेढ़े घुमाव इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर देंगे, यह तो कभी सोचा भी नहीं था.........।“

एकबार फिर से चुप्पी छा गई। मैं भी अपने को प्रश्न करने से रोके रहा। थोड़ी देर बाद उसने खुद ही कहना शुरू किया – “ऑफिस के काम में और उसके बाद तुम्हारे संग-साथ में सबकुछ भूला रहता था, दोस्त। हां, जब-तब आंटी चुपचाप एक साये की तरह मेरे सामने आकर खड़ी हो जातीं। शनिवार और रविवार को जब तुम्हारा साथ नहीं होता, मैं अपना अकेलापन मिटाने और मन लगाने के लिए इस उपनगर के बड़े मॉल में चला जाता हूं।

उस दिन भी मैं मॉल गया हुआ था और एक बेंच पर बैठा था। तभी करीब चार साल का एक बच्चा भागता हुआ आया और मेरी कमीज पकड़ कर ऐसे मेरे पीछे छुपने की कोशिश करने लगा जैसे कोई उसे पकड़ने उसके पीछे भागा आ रहा हो। सचमुच एक औरत बड़ी तेजी से भागती आई और उसे पकड़ने के लिए बेंच के पास आकर रुक गई। उसने बच्चे को पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि वह सकपका गई। उसका चेहरा देख कर मैं भी लगभग उछल पड़ा। आंटी मेरे सामने खड़ी थीं। हम दोनों ही एक-दूसरे को देख अवाक से खड़े थे, तभी वह बच्चा मेरे पीछे से बाहर झांका और बोला – “मम्मी-मम्मी मुझे पकड़ो।“

आंटी ने उसे खींच कर अपनी गोद में उठा लिया। मैंने पहली बार बच्चे का चेहरा ध्यान से देखा तो देखता ही रह गया। उसकी शक्ल कितनी ही तो मुझसे मिलती थी। मेरी आंखों के भाव पढ़कर आंटी तेजी से पलटीं और तेज-तेज कदम उठाते जाने लगी। मेरे मन में उनसे पूछने के लिए ढ़ेरों सवाल थे, पर मैं सबकुछ भूल गया। अब एक ही सवाल मन में उबल रहा था। मैंने भाग कर उनका रास्ता रोक लिया और पूछा – “सच बताओ आंटी कौन है यह?”

आंटी अपराधियों सा सिर झुकाए खड़ी थीं। वह बिना कुछ बताए जाने लगीं तो मैंने कहा – “मुझे सच-सच बताओ आंटी, नहीं तो मैं चिल्ला कर भीड़ इकट्ठी कर लूंगा।“ शायद, वे मेरी धमकी से डर गई थीं, बोली – “कौन होगा? मेरा बेटा है।“

“फिर इसकी शक्ल अंकल से न मिलकर मुझसे क्यों इतनी मिल रही है?“

आंटी की आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे। उधर, मैं धैर्य खोने लगा था। तभी उन्होंने मेरी आंखों में सीधे देखते हुए कहा – “लगता है, तुम सब जानकर ही रहोगे। मैं तुम्हें सचसच बताती हूं। तुम्हारे अंकल मेरी संतान की इच्छा पूरी नहीं कर सकते थे। इसलिए उनकी सहमति से ही यह सब हुआ। जब पता चला कि मैं मां बनने वाली हूं तो हम वहां से चुपचाप अपने गांव चले गए। अपने एक रिश्तेदार की शादी में मैं यहां आई हूं। कल जाने ही वाली थी कि आज तुम मिल गए। मैंने सपनों में भी नहीं सोचा था कि इस अजनबी शहर में तुम मिल सकते हो। हां, यह तुम्हारा ही बेटा है। लो, आज इसे जी भर कर प्यार कर लो। मैं हाथ जोड़ती हूं, इसके बाद भूल जाना हमें। गांव में अब यह तुम्हारे अंकल और आंटी का बेटा है।“

मैंने लपक कर उस बच्चे को आंटी की गोद से अपनी गोद में खींच लिया और उसके गालों पर अनगिनत चुंबन जड़ दिए। वह घबरा कर रोने लगा और अपनी मां की तरफ दोनों हाथ बढ़ा कर मेरी गोद से निकलने की कोशिश करने लगा। आखिर, वह तभी चुप हुआ जब आंटी ने उसे अपनी गोद में ले लिया।

आंटी ने वादा किया कि वह जाने से पहले एक बार फिर वहीं उस बच्चे को लेकर आएंगी। मैं पूरी रात सो नहीं पाया और सुबह समय से पहले ही मॉल की उस बेंच पर जाकर बैठ गया। अपने बच्चे को देखने और उसे अपने सीने से लगाने की आस लिए मैं रात होने तक वहां बैठा रहा, पर वे नहीं आए। सोचो दोस्त, मेरा एक बेटा है जो मेरी आंखों से ओझल इसी संसार में कहीं पल रहा है, मैं उसे देख भी नहीं सकता और किसी को यह सब बता भी नहीं सकता। रोजाना मेरे पांव खींच कर मुझे मॉल की उस बेंच तक ले जाते हैं। मैं पागल सा वहां बैठा उनका इंतजार करता रहता हूं, जबकि मुझे मालूम है, वे वहां अब कभी नहीं आएंगे। मन की यह तड़प, घुटन और घबराहट लेकर कैसे जी रहा हूं और कब तक और कैसे जिऊंगा, यह सोच कर ही पूरा शरीर सिहर उठता है।“

मदन की बात सुनकर मेरे भीतर कुछ अजीब सा घटने लगा था। उसने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया और वह बार-बार पूछ रहा था - बोलो, कोई रास्ता है तुम्हारे पास?

मैं अवाक बैठा था। सच में, मुझे कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था।


 

लेखक डॉ. रमाकांत शर्मा – परिचय




मेरे बारे में

मेरा जन्म 10 मई 1950 को भरतपुर, राजस्थान में हुआ था. लेकिन, पिताजी की सर्विस के कारण बचपन अलवर में गुजरा. घर में पढ़ने पढ़ाने का महौल था. मेरी दादी को पढ़ने का इतना शौक था कि वे दिन में दो-दो किताबें/पत्रिकाएं खत्म कर देती थीं. इस शौक के कारण उन्हें इतनी कहानियां याद थीं कि वे हर बार हमें नई कहानियां सुनातीं. उन्हीं से मुझे पढ़ने का चस्का लगा. बहुत छोटी उम्र में ही मैंने प्रेमचंद, शरत चंद्र आदि का साहित्य पढ़ डाला था. पिताजी भी सरकारी नौकरी की व्यस्तता में से समय निकाल कर कहानी, कविता, गज़ल, आदि लिखते रहते थे.

​ग्यारह वर्ष की उम्र में मैंने पहली कहानी घर का अखबार लिखी जो उस समय की बच्चों की सबसे लोकप्रिय पत्रिका पराग में छपी. इसने मुझे मेरे अंदर के लेखक से परिचय कराया. बहुत समय तक मैं बच्चों के लिए लिखता और छपता रहा. लेकिन, कुछ घटनाओं और बातों ने अंदर तक इस प्रकार छुआ कि मैं बड़ों के लिए लिखी जाने वाली कहानियों जैसा कुछ लिखने लगा. पत्र-पत्रिकाओं में वे छपीं और कुछ पुरस्कार भी मिले तो लिखने का उत्साह बना रहा. महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी का भी पुरस्कार मिला. कहानियां लिखने का यह सिलसिला जारी है. अब तक दो कहानी संग्रह – नया लिहाफा और अचानक कुछ नहीं होता प्रकाशित हो चुके हैं. तीसरा संग्रह भीतर दबा सच प्रकाशनाधीन है. कहानियां लिखने के अलावा व्यंग्य लेख और कविताएं भी लिखता रहता हूं.

हर कोई अपने-अपने तरीके से अपने मन की बात करता है, अपने अनुभवों, अपने सुख-दु:ख को बांटता है. कहानी इसके लिए सशक्त माध्यम है. रोजमर्रा की कोई भी बात जो दिल को छू जाती है, कहानी बन जाती है. मेरा यह मानना है कि जब तक कोई कहानी आपके दिल को नहीं छूती और मानवीय संवेदनाएं नहीं जगा पाती, उसका आकार लेना निरर्थक हो जाता है. जब कोई मेरी कहानी पढ़कर मुझे सिर्फ यह बताने के लिए फोन करता है या अपना कीमती समय निकाल कर ढ़ूंढ़ता हुआ मिलने चला आता है कि कहानी ने उसे भीतर तक छुआ है तो मुझे आत्मिक संतुष्टि मिलती है. यही बात मुझे और लिखने के लिए प्रेरणा देती है और आगे भी देती रहेगी.

नौकरी के नौ वर्ष जयपुर में और 31 वर्ष मुंबई में निकले. भारतीय रिज़र्व बैंक, केंद्रीय कार्यालय, मुंबई से महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति के बाद अब मैं पूरी तरह से लेखन के प्रति समर्पित हूं.

ई-मेल – rks.mun@gmail.com

मोबाइल 9833443274


लेखक डॉ. रमाकांत शर्मा का साहित्यिक परिचय


- शिक्षाएम.ए. अर्थशास्त्र, एम.कॉम, एलएल.बी, सीएआइआइबी, पीएच.डी(कॉमर्स)

- पिछले लगभग 45 वर्ष से लेखन

- लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित

कहानी संग्रह – नया लिहाफ, अचानक कुछ नहीं होता, भीतर दबा सच, डा. रमाकांत शर्मा की चयनित कहानियां, तुम सही हो लक्ष्मी, सूरत का कॉफी हाउस(अनूदित कहानियां)

व्यंग्य संग्रह – कबूतर और कौए

उपन्यास - मिशन सिफर, छूटा हुआ कुछ

अन्य - रेडियो (मुंबई) पर नियमित रूप से कहानियों का प्रसारण, यू.के. कथा कासा कहानी प्रतियोगिता प्रथम पुरस्कार, महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी से सम्मानित, कमलेश्वर स्मृति कहानी पुरस्कार (दो बार), अखिल भारतीय स्तर पर अन्य कई कहानियां पुरस्कृत, कई कहानियों का मराठी, गुजराती, तेलुगु और उड़िया में अनुवाद

संप्रति - भारतीय रिज़र्व बैंक, मुंबई से महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति के बाद स्वतंत्र लेखन

संपर्क - मोबाइल-919833443274

ईमेल – rks.mun@gmail.com



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