top of page
डॉ रंजना अरगड़े

विष्णुपुराण



बड़े से दरवाज़े,जो हरे रंग का था - देसी हरा, के भीतर प्रवेश करने पर छोटा-सा आंगन नुमा अहाता था। दरवाज़ा उढ़काया हुआ था। मानों उसी के लिए खुला छोड़ रखा था। उसने भीतर झांकते हुए पाँव अंदर रखा तो पीछे उसका दुपट्टा किसी चीज़ में अटका। कील ही होगी यह सोचकर वह आहिस्ता से पीछे मुड़ी और बड़ी सिफत से दुपट्टा कील से अलग किया। वह पहली बार ही यहाँ आई थी। उसने देखा सामने ही पानी का पंप था। कच्ची ज़मीन वाला आँगन, बल्कि मटियाला-सा, एक पेड़ था जामुन का, जिसकी डालियों से लग कर घर का जालीदार बरामदा धूप-छाँव के खूबसूरत पैटर्न बनाता था।

उसने जब अहाते में प्रवेश किया तो आँगन में कोई था नहीं। घर का मुख्य प्रवेश तो परली तरफ से था। गली से सीधे बैठक में प्रवेश होता था। पर विष्णु ने आँगन वाली तरफ के दरवाज़े को मुख्य दरवाज़ा बना रखा था। यानी जो भी विष्णु के क़रीबी थे वे सभी इसी दरवाज़े से आते-जाते थे। जो उनका करीबी नहीं था वह शायद ही कभी उनके घर आता-जाता था। या यूं कहें कि क़रीबी होने पर ही कोई भी उनके घर आता-जाता था। घर क्या था- गाँव से आने वाली बौद्धिक पिपासू जिगिषु विचरती जातियों के लिए बहिष्त से कम न था। आँगन के अलावा बरामदा एक रसोई, एक कमरा पढ़ने-लिखने वाला, वही बैठक भी था, एक सोने का कमरा पर उसमें कोई प्राइवेसी जैसा कुछ नहीं था। एक और कमरा भी था जो अलग-अलग तरह के सामान से भरा पड़ा था। सामान पर धूल जमी रहती थी। धूल साफ करना कभी भी काम का एजेंडा नहीं होता था। बल्कि उस कमरे में इतने सारे लोगों का बिसरा सामान बिखरा पड़ा रहता था कि जो जब अपना सामान लेने आता उसके भीतर जाने और बाहर आने के बीच कमरे का कुछ हिस्सा धूल मुक्त होता। यूं धूल में भी आना -जाना बना रहने के कारण वह कमरा कभी भी खंडहर या भुतहा नहीं लगता। गोया उसकी धूलावस्था लोगों की उपस्थिति से गुंजायमान रहती। उसी कमरे में विष्णु का वह ज़रूरी सामान भी रखा रहता जो उसने कुछ सोचकर वहाँ रखा था। असल में ऐसा नहीं है कि वह कमरा कबाड़ के लिए ही वहाँ था। इस कमरे का अपना गुंजायमान वर्तमान था। चहल-पहल वाला। हँसी-फुसफुसाहट वाला। आज जहाँ विष्णु की पढाई-लिखाई वाली जगह हो गई है, वह पहले इसी कबाड़ कमरे में थी। यानी तब वह कबाड़ नहीं था, यह तो साफ़ ही है। ज़ाहिर है इसकी एक कथा तो होगी ही और सुनाना लाजिमी भी बनता है। पर यह बात अभी नहीं। किसी और दिन।

गली वाले सिरे से केवल डाकिया आता-जाता था। या तार वाला। या कोई अन्य सरकारी दफ़तर वाला। उसके घर चिट्ठियाँ टनों में आती सो डाकिया भी अब अजनबी नहीं रहा। एक बार जब गली वाली तरफ का दरवाज़ा बहुत देर तक खटखटाने पर भी नहीं खुला था तब सामने रहते गफ़ूर मियाँ ने डाकिये से कहा- मियां आँगन वाले दरवाज़े से जाओ। अभी तो महफिल सजी होगी। किसे फुर्सत है यहाँ तक आने के लिए। अरे सुना भी नहीं होगा किसी ने।

महफिल में शामिल होने की उत्सुकता के साथ डाकिया रामप्रकाश जब आँगन वाले दरवाज़े पर पहुँचा तो अधखुले दरवाज़े से किसी गंभीर चर्चा के स्वर सुनाई दिए। दरवाज़े की दरार से अपना मुँह आँगन में घुसेड़ते हुए रामप्रकाश ने देखा एक उम्रदराज़ बाबू कुछ कह रहे थे और पाँच-छ लोग बड़ी तन्मयता से सुन रहे थे। राम प्रकाश की एक आँख और नाक के सिरे को ताड़, आंगन से लपक कर किसी ने दरवाज़ा खोला तो अपने वज़न और झुकाव से रामप्रकाश गिरते - गिरते बचा। 'अरे अरे संभल कर' कहता विष्णु दरवाज़े पर पहुँचा तो झेंप मिटाता रामप्रकाश बोला- 'अजीब आदमी हो । कब से दरवाजा पीट रहा था। सुनते ही नहीं हो तभी यहाँ चोरों की तरह आना पड़ा।'

उपस्थित सभी फि फि खीं खी कर उठे।

'फँसोगे किसी दिन विष्णु', वहीं बैठा बिसेसर बोल उठा।

'अरे बैठो राम प्रकाश चाय पीओ।' और आवाज़ लगाई- 'अरे हिम्मत भैया अपने रामप्रकाश को भी गिनना।'

'हऊ', अंदर से आवाज़ के साथ ही चाय ले कर हिम्मत प्रकट हुआ।

सबकी चाय बँट जाने पर विसेसर बोला 'भई हिम्मत कहना पड़ेगा कि किसी की चाय कटी नहीं और सबको मिल भी गई।'

'भेयै ये विष्णु का वैकुंठ है। अमृत तो सभी को मिलना ही है। यहाँ कोई राहू केतु भी नहीं हैं कि गला कटे। देव हो या दानव सभी को मिलता है।'

आँगन में बिछी खाट पर बिस्तर अस्त-व्यस्त-सा था। जैसे कोई अभी-अभी उठा हो। एक मोढ़ा था जिस पर अख़बार फैला पड़ा था जैसे पढ़ते-पढ़ते बीच में से ही कोई उठ कर गया हो और कभी भी वापस आ सकता है। आंगन भर धूप बिखरी पड़ी थी। ताप कुछ बढ़ गया था । उसने चारों तरफ देखा। बरामदे की लकड़ी की जाली से कोई देख रहा था ऐसा उसे लगा। थोड़ा ध्यान लगाया तो पता चला चश्मा पहने कोई स्त्री है। सिर पर पल्लू पड़ा था। उसकी समझ में नहीं आया कि क्या वह उस दिशा में बढ़े। असमंजस में वह मोढे की तरफ बढ़ी और अखबार का एक उड़ा हुआ पन्ना समेटने लगी। ऑपरेशन ब्लू स्टार के समाचार की हेड़ लाईन बनी थी जिस पर चाय ढुली हुई थी। आतंकवादियों के कब्ज़े से स्वर्ण मंदिर को छुड़ा लिया गया था। उसने अख़बार तह कर के वापस मोढ़े पर रख दिया।

'अरे आओ आओ'!

आवाज़ की दिशा में देखा तो विष्णु उसे पुकार रहा था।

'नमस्ते', उसने औपचारिकता से कहा।

'बड़े समय से आ गई। अच्छी बात। जो समय की पाबन्दी रखता है वह दूर तक आगे निकलता है', हँसते हुए विष्णु ने कहा।

'घर ढूँढ़ने में कोई दिक्कत तो नहीं हुई'?

'नहीं। दिक्कत तो नहीं हुई परन्तु देर लग गई।'

'यानी दिक्कत हुई'?

'नहीं । दिक्कत नहीं हुई समय लगा। समय लगना एक बात है और दिक्कत होना दूसरी बात। दिक्कत का संबंध समस्या से है और देरी का संबंध समय से है।'

एक नकली सी हँसी के साथ विष्णु ने उसे ऐसे देखा जैसे वह उसके जवाब से कोई विशेष अर्थ निकालना चाहता है। चंद्रकला की यही समस्या है। वह इतनी सरलता से आपकी बात मान नहीं लेती। कई बार विष्णु को बड़ी झुंझलाहट होती। हर बार तय करता कि अब वह चंद्रकला की किसी बात में नहीं आएगा और उसकी कोई मदद नहीं करेगा। उसके मुँह भी नहीं लगेगा। उसके साथ संवाद को पटरी पर लाना एक बीहड़ काम है। चंद्रकला ऐसा नहीं मानती। उसे लगता है कि हर कही गई बात का अपना एक विशेष अर्थ और संदर्भ होता है। आप हर बात को जनरलाईज़ नहीं कर सकते। जैसे यही आज की बात ले लो। समय लगने का मतलब होता है कि आप लक्ष्य तक जल्दी पहुँचने में कामयाब नहीं हुए। और दिक्कत का अर्थ यह है कि आप किसी गलत बस में बैठ कर किसी गलत इलाके में चले गए और वहाँ किसी ने या तो आपको और उलझा दिया या आपसे बात करने से इन्कार कर दिया। और आप यह समझ नहीं पा रहे कि अब नए सिरे से पता कैसे ढूँढा जाए। पर यहाँ तो आधा मुहल्ला विष्णु को जानता था। और सभी अपने-अपने रास्तों से विष्णु के घर पहुँचते थे। सो कइयों के रास्ते का अनुसरण करते हुए यहाँ तक पहुँचने में देर हुई। पर दिक्कत नहीं हुई।

'विष्णु, सभी रास्ते तुम तक ही पहुँचते हैं'- कह कर उसने अपनी मायाविनी मुस्कान के साथ विष्णु को देखा।

विवश, विष्णु ने मन ही मन कहा- हिष्ट् यहीं तो मार खा जाता है ...हिंदुस्तान का यह आदमकद मर्द। पर ऊपर से उसने ऐसा जताया नहीं। जाली के पार कुछ हलचल हुई। शायद कोई आवाज़-सी। संकेतक। खखार जैसा कुछ...।

कुछ देर एक चुप्पी-सी फैली रही।

अचानक विष्णु ने पूछा- 'पानी.....'

उसने छाँह में रखे मटके की ओर इशारा करते हुए बताया कि पी लिया।

'तो चाय पिओगी'?

तलब तो लगी थी पर उससे अधिक महत्वपूर्ण था कि..

'घबराओ नहीं विसेसर अभी प्रकट होगा। मैं चाय की व्यवस्था करता हूँ तब तक।'

विष्णु जैसे ही भीतर जाने को मुड़ा जाली के उस पार का धुंधला दृश्य सिमट गया।


विष्णु की उम्र पचपन से साठ साल की होगी। जैसे जाली के भीतर से धूप बरामदे में जाती है वैसे ही सफेदी ने उसके बालों में अपनी जगह बना ली है। यूं उसकी उम्र और विष्णु की उम्र में खासा अंतर है। लगभग दुगुना। पर विष्णु को सब विष्णु ही कहते थे। उसी का ऐसा आग्रह था। वह भैया, चाचा, ताऊ, मामा और फिर दादा बनने में कोई रुचि नहीं रखता था। न ही सर और अंकिल में। अधिक से अधिक मिस्टर या श्रीमान विष्णु या फिर विष्णु जी। वैसे जी भी उसकी पसंद नहीं था, पर अगर किसी को केवल विष्णु कहने में आपत्ति या संकोच हो तो वह लगा ले..। चंद्रकला पहले बड़े असमंजस में रही। उसने कभी अपने से बड़ों को केवल नाम से नहीं बुलाया था। पर धीरे-धीरे उसकी समझ में आ गया कि ऐसा करने से ज़रूरी नहीं कि हम सामने वाले का सम्मान नहीं करते। सम्मान और संबोधन अलग-अलग हैं।

हल्के पीले रंग की शर्ट पहन कर नहाया धुला विसेसर गीले बालों में हाथ फेरता हुआ प्रकट हुआ। गहरी ब्राऊन रंग की पैंट देख कर चंद्रकला को यह सोच कर हँसी आ गई कि आज विसेसर कुछ ठीक-ठाक दिख रहा है। जबकि उसे ज़रूरत नहीं थी। दिनों का अन-नहाया और अन-धुले कपड़ों में ही उसने विसेसर को पसंद किया था। उसे बिसेसर की भिड़ जाने की आदत बहुत अच्छी लगी थी। इसमें कोई संदेह नहीं कि विसेसर में और भी कई गुण थे। पर सबसे बड़ी बात यह थी कि विसेसर जिनको प्रेम करता था उनके लिए वह मर जाने तक सामने वाले से भिड़ जा सकता था। उसे ऐसे ही किसी की आवश्यकता थी। विसेसर से उसकी मुलाक़ात कॉफ़ी हाऊस में हुई थी। वह विष्णु के साथ वहा आया था। विष्णु ने परिचय कराया था- 'यह है विसेसर- यानी विश्वेश्वर सिंह चौधरी । दिल्ली में एक साल से रह रहे हैं। अच्छा लिखते -पढ़ते है। थोड़ा बहुत छपते भी हैं।

चंद्रकला प्रभावित होते हुए बोली-

'अच्छा कहाँ छपे हो। क्या फॉर्म है तुम्हारा।'

'बहुत अच्छी कहानियाँ लिखते हैं। अभी जो कहानी छपी थी उसकी यादवेन्द्र यादव ने बहुत तारीफ़ की थी। अपनी पत्रिका के लिए एक नई कहानी भी माँगी थी । उभरते रचनाकार श्रेणी के अन्तर्गत।'

फिस्स करते हुए विश्वेश्वर हँसा- 'बहुत इज्जत मत दो भाई विष्णु। यहाँ-वहाँ भटक रहा था, तुमने ही आसरा दिया है और पहली बार कहानी भी तुम्हीं ने छापी है अपनी पत्रिका में। '

'और जो यादवजी ने कहा वो… ', कुछ नाराज़ी के साथ विष्णु ने पूछा। अपना महत्व विष्णु इसी तरह बताता था। कोई खोल के रख दे या स्वीकार न करे तो उसे अच्छा नहीं लगता था।

'वो वो भी तुम्हारे कारण... अच्छा छोड़ो कोई और बात करो।'

जब वे तीनों कॉफी हाऊस से बाहर निकले तो शाम गहरा चुकी थी। सड़क पर म्युनिसिपल्टी की बत्तियाँ जल चुकी थी। बिश्वेश्वर ने चंद्रकला को देखा और चंद्रकला ने विश्वेश्वर को देखा। दोनों के बीच कुछ घटित हुआ और कुछ तय भी हो गया।

फिर वे दोनों पहले कभी-कभी अचानक ही और फिर तय करके मिलने लगे। यहाँ तक कि दोनों को लगने लगा अब साथ रहने जितना प्रेम और भरोसा दोनों के बीच पनप चुका है। पर चूंकि केवल प्रेम और भरोसे से सामाजिकता और पारिवारिकता का आरंभ नहीं हो सकता, साक्ष्य और समर्थन की भी ज़रूरत होती है अतः फ्रेम में विष्णु का आना ज़रूरी हो गया। विष्णुलोक में साक्ष्य और समर्थन के लिए भक्तगणों की कमी नहीं है। फिर विश्वेश्वर और चंद्रकला ऐसे पहले भी नहीं हैं। ऐसी कई फ्रेमें यहाँ मढ़ी जा चुकी हैं। कालांतर में कुछेक ढीली ज़रूर हुई हैं, पर टूटी एक भी नहीं, यह रिकॉर्ड है विष्णु फ्रेम हाऊस का, या प्रेम हाऊस का। जो भी कह लो।


'तुम इस बार सफल नहीं होओगे, विष्णु'।

'मुझे कहाँ सफल होना है। यह तो तुम्हारा मामला है। मैं तो केवल अगर कर सकूं तो तुम्हारी मदद करूगा। खेल तो तुम दोनों का है।'

'क्यों शौक़ क्या तुमको नहीं है'?, फिस्स से हँसते हुए विसेसर ने कहा था, 'जोड़े बिठाने का ! तुम्हें तो रिकॉड करना होगा'।

'देख विसेसर- ऐसी बात करेगा तो आज ही अपना बिस्तर उठा और दफा हो जा मेरे घर से।'

'अच्छा तो तुम धमकी दे रहे हो। यही है तुम्हारा असली चरित्र। तुम क्या मेरी मजबूरी का फायदा उठाना चाहते हो। किराया नहीं लेते हो- पर ऐसा शोषण..... सब दिखावे की आइडियॉलॉजी है.....'

'विस्सेसर चुप। चुप हो जा। एकदम चुप'.. क्रोध से लगभग चीखते हुए विष्णु ने कहा। काँपते हुए उसकी देह और मुखमुद्रा ऐसी हो गई थी कि अब विश्वेश्वर गया।

उसने बहुत बड़ी बात कह दी थी।किसी भी तरह की माफ़ी के परे की बात थी वह।

फिर दिनों तक सन्नाटा रहा दोनों के बीच। एक ही छत के नीचे पर एक दूसरे से बचते -कटते। दोनों को समय मिला सोचने का और एक दिन आलू का भुरता, मक्का की रोटी और छाछ के साथ भोजन के समय पसीने में नहाते अपना काम करते विष्णु के सामने विश्वेश्वर पहुँचा।

विष्णु चाहता तो उसे बुरी तरह हड़का देता पर विचारधारा के पार जो चीज़ उसके ब्राह्मण संस्कारों में बची रही है , वह है अन्न को पूर्ण ब्रह्म मानते हुए उसका आदर करना।

पर ज़बान की हड्क् आँखों में लाते हुए विष्णु उठा, हाथ पाँव धोए। ढेर सारा पानी हैंडपंप से ले कर मुँह पर छिटका, गीले हाथ झटके यहाँ-वहाँ देखते हुए अपने कुर्ते और बालों से हाथ पोंछते हुए बिना विश्वेश्वर की ओर देखे थाली पर एकाग्र हुआ। खाना पूरा होते-होते तो दोनों के बीच सुलह हो गई।

'तो देर किस बात की तुम चंद्रकला से बात कर तय क्यों नहीं कर लेते'?

'देर इस बात की है कि कि चंद्रकला की शादी हो चुकी है और अभी उसका तलाक़ नहीं हुआ है।'- एक साँस में विश्वेश्वर बोला।

'शादी....'

'फिर तुम काहे अभी तक यूं ही बीन बजाते रहे'?

विश्वेश्वर चुप रहा

'धर्म अलग हो तो उससे भी मैं निपट लूंगा। पर इसका क्या करें...'

'तो तलाक़ का इंतज़ार करो'

'हाँ। वह भी कर सकता हूँ। बशर्ते कि सामने वाला तलाक़ देना चाहता हो।'

'तो क्या तुम यह बात पहले बिल्कुल भी नहीं जानते थे?'

'अरे अब कहानी आगे बढ़ गई है। तुम पीछे काहे जाते हो। अब तो यह बताओं कि किस राह से आगे बढ़ना ठीक होगा।'

'तो क्या तुम चाहते हो कि मैं चंद्रकला से बात करूं…'

'अरे तुम क्या बात करोगे। अब शादी चंद्रकला को नहीं मुझे करनी है। किसी भी कीमत पर, हर हालत में करनी है। घर, परिवार, समाज और यहाँ तक कि .....'

थोड़ी देर चुप के बाद विश्वेश्वर ने कहा-

'...... अपने विरोध के बावजूद यह शादी करनी है....। '

विष्णु भौंचक -सा विश्वेश्वर को देखता रहा। यह उसकी समझ से परे था। ऐसी ज़िद...या ज़बरदस्ती ? ऐसा अहं.... फिर प्रेम कहाँ रह जाएगा...

'नहीं ऐसी बात नहीं है विष्णु। ज़िद की की बात नहीं है। गोकि जिद ही प्रेम करवाता है पर प्रेम ज़बदस्ती तो नहीं हो सकता, इतना तो मैं भी जानता हूँ। । और अहं ? है पर अगर वह नहीं होगा तो जीवन भी तो व्यर्थ ही है। अपने आप को साबित करने के लिए भी अहं रखना पड़ता है। कि खड़े हैं दो पाँवों पर, लिजलिजे नहीं हैं, यह भी तो बताना पड़ता है। ' फिर विश्वेश्वर ने एक लंबी साँस ली और चुप हो गया।

उस दिन विश्वेश्वर ज़िंदा बच गया, यही गनीमत है। शाम को बगीचे में एक टीले पर उनकी बैठक हुआ करती थी। तब विश्वेश्वर ने कहा कि, 'चन्नी अब शादी कर लेते हैं। थोड़ा तुम और थोड़ा मैं, मिल जुल कर कमा लेंगे। चल पड़ेगी गाड़ी...'

'रहेंगे कहाँ? तुम क्या विष्णु के बेटे हो जो शादी के बाद भी वहीं रहोगे। और वह तुम्हें रख लेंगे बड़े। पहले घर की तो व्यवस्था करो।'

'हाल फिलहाल तो रह ही लेंगे विष्णु के यहीं। सुमनचाची को ले कर विष्णु अपनी ससुराल जाने वाले हैं।'

'.....लेकिन बिस्सु हम शादी तो अभी नहीं कर सकते।'

'मज़ाक कर रही हो। तो इतने दिन क्या बरसात में हमसे मिले तुम सजन कर रहे थे हम लोग।

शादी नहीं करनी या नहीं हो सकती का क्या मतलब।'

'शादी इसलिए नहीं हो सकती क्योंकि मैं पहले से ही शादीशुदा हूँ- ' एक साँस में चंद्रकला ने रहस्य का पिटारा खोला।

विश्वेश्वर ने अगर पत्थर थाम नहीं लिया होता तो वह गिर ही जाता। परन्तु उसने पत्थर को इस कदर कस कर पकड़ा था कि उसका एक हिस्सा टूट गया। विश्वेश्वर को हैरानी हुई क्योंकि वह कोई पहलवान नहीं था। पर उस एक वाक्य का जो असर विश्वेश्वर पर पड़ा यह उसी का परिणाम था।

'मतलब...तुमने मुझे धोखा दिया।'

'नहीं' ,चंद्रकला ने कहा। 'हमने प्रेम किया था। मैं तुमसे अब भी प्रेम करती हूँ। हमारे नाटक में शादी का दृश्य नहीं लिखा गया था। '

'लिखने की क्या ज़रूरत है। हमने प्रेम किया है तो शादी करेंगे यह अलग से कहने की आवश्यकता तो नहीं है। यह समझने की बात है। तो तुमने बताया क्यों नहीं कि तुम शादी-शुदा हो।'

'तुमने कभी पूछा नहीं।'

'तो तुमने मुझसे प्रेम क्यों किया। यह संबंध क्यों बढ़ाया।'

चंद्रकला को अचानक हँसी आ गई। विश्वेश्वर की झल्लाहट बढ़ गई।

'तुम्हें हँसी किस बात की आ रही है।'

'मुझे माफ करना. आई ऐम रियली सॉरी. पर तुम्हें नहीं लगता कि प्रेमकथाओं में ये संवाद प्रेमिकाओं के होते हैं।'

विश्वेश्वर इस तरह की किसी बात के लिए तैयार नहीं था। पिछले कुछ समय से वे दोनों अपनी गृहस्थी के मधुर सपने बुन रहे थे ...तो अगर यह शादी-शुदा थी तो इतना आगे बढ़ने की ज़रूरत क्या थी , भले ही वह सपने देखने की बात हो। विश्वेश्वर को इथना गुस्सा आ रहा था- गुस्सा इस बात पर कि वह ....... बना। गुस्सा इस बात पर कि उसकी हृदय संवेदनाओं के साथ खेला गया। गुस्सा इसलिए कि एक सामान्य मध्य वर्ग की सरल लड़की ने उसे बेवकूफ बनाया।

तूफान गुज़र गया। हवा थम गई।

सहसा विश्वेश्वर का मन अनुकंपा से भर गया। उसे भरोसा हो गया था कि इस पृथ्वी को रसातल से उबारने के लिए उसी को वराह बनना पड़ेगा। चंद्रकला ने शादी कर के अपने पिता का कर्ज़ा उतारा था। तब वह महज़ तेरह-चौदह वर्ष की थी। उसके सोलह होते-होते पिता भी मर गए और ससुर भी। पर शादी तो बनी रही। चंद्रकला पढ़-लिख गई पर उसका पति पढ़ने में फिसड्डी और नाकारा ही रहा। ऐसों का जुआरी-शराबी होना तो बनता ही है। चंद्रकला उससे संभलने से रही पर पति होने के अधिकार को वह जाने नहीं देना चाहता था। उसने साफ कर दिया था कि अगर वह छूटना चाहती है तो उसकी एक कीमत उसे अदा करनी होगी। यह एक तरह से सेटलमैंट मनी था। कीमत चार लोग मिल कर तय करेंगे। वह उसे छोड़ कर जाएगी तो सवाल उसकी इज्जत का है। और वह अपनी इज्जत की कीमत ही तो माँग रहा है और उसे इसका पूरा हक़ है। पिता की इज्जत में ब्याही चंद्रकला को पति की इज्जत का मुआवजा देना होगा अगर वह इज्जत और सुख चैन से रहना चाहती हो। भाई ने हाथ ऊपर कर दिए थे कि बहुत शौक़ हो अगर छूटने का तो कमाओ और पैसे भरो। हम कुछ नहीं कर सकते।

अब इस पृथ्वी को बचाने वराह अवतार का रूप ही तो धरना होगा विश्वेश्वर को।

विष्णु के जीवन में ऐसा संकट भरा क्षण कभी नहीं आया। उसे विश्वेश्वर पर बेतरह प्यार उमड़ आया। प्रेम जो न करवाए।

'सुनो विसेसर। तुम शादी तो कर लो । मैं व्यवस्था करवाता हूँ। अभी कुछ दिनों के लिए हूँ नहीं। कल तुम्हारी चाची आ रही है। फिर उनके साथ माँ के यहाँ जाना है। तुम तो सब जानते हो। लौटना कब हो मालूम नहीं। डॉक्टरों ने कह दिया है तीसरे स्टेज पर है कैंसर। तुम चंद्रकला को बुला लो। मालाओं की अदला-बदली कर लो। यहीं रहो। देखो कोई सरकारी नौकरी तो तुम्हारे पास है नहीं। और लगेगी भी क्या तुमको। भूले से लग गई तो देख लेंगे। मैं यहीं गली के मुहाने पर एडवोकेट गुप्ता से बात करता हूँ। सब हो जाएगा। फिर लड़ लेंगे केस। सब ठीक हो जाएगा। चिंता मत करो'

विष्णु का मन इतना भर आया था कि वह सही-गलत कुछ भी करने को तैयार था।

विस्सेसर की प्रेम कथा एक ऐसे मोड़ पर आ गई थी कि नाव अब किनारे लगानी ही होगी। उसे अब छोड़ा नहीं जा सकता वरना डूब जाएंगे तीनों- विस्सेर-चंद्रकला और उनकी नाव। पर विष्णु के लिए भी जाना ज़रूरी था। उसकी प्रेमकथा का अंतिम दृश्य चल रहा था और विस्सेसर का पहला। अभी पिछले वर्ष ही नौकरी से निवृत्त हुई है सुमन। पर माँ बीमार रहती हैं उनकी तो वहाँ चली गईं थी। एक दिन अचानक पेट में जबरदस्त दर्द उठा। डॉक्टर को बताया जाँच हुई तो कैंसर निकला। संतान की भीषण चाह कैंसर की ज़िंदा गांठ बनकर पेट में उग आई थी। ममता का अजब खिंचाव। एक तरफ़ जन्मदात्री का तो एक ओर पति का। सोचा था निवृत्ति के बाद पति के साथ रहेगी। सारी ज़िंदगी नौकरी में भटकती रही। छुट्टियाँ भी बँटी हुई। अगर गर्मी में यहाँ आती तो बड़े दिनों की छुट्टियों में माँ से मिलने जाती। अपनी माँ की अकेली संतान थी। न कोई भाई न बहन। विष्णु से शादी भी इसी शर्त पर हुई थी कि माँ को नहीं छोड़ेगी। जब तक माँ ठीक-ठाक रही, खेती-बाड़ी का काम करती रही, अकेली रही। सुमन की मदद करती रही। सुमन की नौकरी सरकारी थी। माँ की कोई आर्थिक ज़िम्मेदारी न थी उस पर। हाँ, भावनात्मक और सामाजिक कर्तव्य परकता ज़रूर थी। इसीलिए विष्णु को कभी गृहस्थी चलाने के लिए व्यवस्थित नौकरी की ज़रूरत नहीं रही। विष्णु के कोई खर्चीले शौक़ भी नहीं रहे। हाँ उसके घर में बारहमास लोगों का आना-जाना-रहना लगा रहता था। शौक़ के नाम पर यही विष्णुलोक का चरित्र था। फिर जैसे-जैसे शरीर कमज़ोर पड़ता रहा सुमन माँ के पास ज्यादा रहती रही, विष्णु के यहाँ कम रह पाती थीं । वहाँ माँ ज़मीन में खेती करती यहाँ विष्णु शब्दों की खेती करते। माँ की दुनिया और विष्णु लोक के बीच आज सुमन की परती ज़मीन में दबी इच्छाएं कैंसर की गांठ बन कर उभरी है।

सुमन के पास अब कितना समय है कोई नहीं जानता। अपने आखिरी समय में वह अपनी माँ के पास जाना चाहती है। और यह भी चाहती है कि विष्णु भी वहीं रहे। उसकी आखिरी इच्छा का सम्मान विष्णु को करना ही था।

विष्णु लोक में इस तरह का विवाह आज तक संपन्न नहीं हुआ था। सो विष्णु को सोचने और मशवरे के लिए समय चाहिए था। इसमें एक तरह का रिस्क भी था। विष्णु को बेहद हैरानी थी। जब वह अपनी हैरानी से बाहर निकला तो उसे लगा कि अब कुछ करना पड़ेगा। आज इसी सिलसिले में चंद्रकला का विष्णु लोक में आगमन हुआ था। आज यह व्यावहारिक तौर पर तय होना था कि विश्वेश्वर और चंद्रकला की फ्रेम बनेगी या नहीं। या दोनों अलग-अलग एक दूसरे के मन-बटुए में पड़े रहेंगे। पीली उजली धुली घर में प्रेस की शर्ट के साथ जब चन्नी ने बिसु को देखा तो उसे लगा कि यह शुभ संकेत है।

इसका मतलब यह हो सकता है कि विश्वेश्वर ने अपने तई कुछ तय कर लिया है। दूर से एक गहरी मुस्कान बिखेरते विश्वेश्वर को देख कर चंद्रकला को तसल्ली हुई।


 

लेखक परिचय - डॉ रंजना अरगड़े


नाम डा. रंजना भालचन्द्र अरगडे़

जन्मतिथि 11-1-1957, दाहोद, गुजरात


संप्रति : 1- (निवृत्त) आचार्य एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, भाषा साहित्य भवन,

गुजरात युनिवर्सिटी ,अमदावाद एवं निदेशक भाषा साहित्य भवन

2- को-आर्डिनेटर स्नातकोत्तर अनुवाद डिप्लोमा पाठ्यक्रम


विशेषज्ञता के क्षेत्र:

समीक्षा, साहित्य-सिद्धांत, अनुवाद, तुलनात्मक-साहित्य, पाठ्यक्रम निर्माण एवं लेखन

रुचि के क्षेत्र

नाटक, अभिनय, चित्रकला, संगीत ,दर्शन, भूगोल, भौतिक शास्त्र .

ब्लॉग द्वारा अध्यापन कार्य


पुस्तकें

प्रकाशन

कवियों का कवि शमशेर: आलोचना

शमशेर रचनावली-6 भाग (संपादन

भिनसारे में मधुमालती : ललित चिंतनात्मक निबंध

तत्त्वमसि : गुजराती से हिन्दी अनुवाद

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कविताएँ आदि प्रकाशित

(आलोचना, समकालीन भारतीय साहित्य, इन्डियन लिटरेचर, साक्षात्कार, दस्तावेज, कृति ओर, वसुधा, आर्य कल्प, शब्दयोग, गवेषणा, अनुवाद, समालोचन


पुरस्कार एवं सम्मान

समीक्षा के लिये कवियों का कवि शमशेर पुस्तक पर दो पुरस्कार

1- राष्ट्रीय (वाणी पुरस्कार) तथा

2- अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार (माता कुसुम कुमारी पुरस्कार)

ललित निबंध के लिए

1- महाराज चक्रधर सम्मान, 2007, सृजन सम्मान, छत्तीसगढ़,

2- बाबू मावलीप्रसाद पुरस्कार, 2015 निबंध के लिए, रायपुर


संपर्क एच - 901, साम्राज्य फ्लैट्स, मेमनगर, अमदावाद-380052

दूरभाष 079 27454234. मो- 09426700943

0 टिप्पणी

हाल ही के पोस्ट्स

सभी देखें

Comments

Rated 0 out of 5 stars.
No ratings yet

Add a rating

आपके पत्र-विवेचना-संदेश
 

bottom of page