अचानक आसमां में धुंध ऐसी लिपटी, मानो अंधेरा घिर आया हो; जबकि शाम होना बाकी है। हिमाचल भवन के सामने श्रीराम सेंटर वाली सड़क पर लोग पैदल चहलकदमी कर रहे हैं। बहुत-सी परछाइयां पेड़ों के घेरों के बीच बने चबूतरों में बैठ गप्पे लड़ा रही हैं। भविष्य की योजनाएं बन रही हैं। कहानियां सुनाई जा रही हैं।
आड़ी-तिरछी आकृतियां खींचती कुछ लड़कियों ने थककर सिगरेट जला ली है। आकाश में काले बादलों के छिटक कर खड़े घने झुंड की तरह, एक छटी भीड़ गेट से भीतर जा रही है। गेट के ऊपर कई नाटकों के पोस्टर चस्पां हैं। शायद कोई महोत्सव चल रहा है। चौंतरे पर बैठा आशुतोष पटकथा के संवादों के साथ माथापच्ची कर रहा है। काले पेन से अंडरलाइन लाइनों को देखकर उसके दिमाग में एक साथ कई तरह के ख्याल उमड़ रहे हैं। कुछ नया और रोमांचित करने की चाह पैदा हो रही है। कई ख्यालों को पीछे धकेल आत्मविश्वास समेटते हुए उसने कहा।
'क्या आप मुझे एक चाय पिलाएंगे? दरअसल, मेरा पर्स खो गया है।
उबलती चाय देखकर ठंड के मौसम में किससे रहा जा सकता है; और कलाकार तो बिना चाय के जी ही नहीं सकता। आपने मुझे पहचाना नहीं शायद! हा हा। वैसे जरूरी नहीं, कि नई दोस्ती में पुरानी पहचान निकल ही आए। हाथ आगे बढ़ाते हुए..... आई एम ए स्ट्रैगलिंग एक्टर। यून नो!! कला के लिए जीता हूं। पेट की भूख से ज्यादा कला की आग है मेरे भीतर। जीवन में मेरे लिए कला से बढ़कर कुछ नहीं है! कला की अपनी एक धुन है, चाल है, मिजाज और सुरूर है। जो एक बार छा गया तो ताउम्र छाये रहता है। कला, ऐसा फूल है जो कभी नहीं मुरझाता।
आपको पता है! स्वेटर के भीतर हाथ डाल कमीज के जेब को जोर से खींचते हुए आशुतोष ने कहा- यहां अंदर रखे थे पैसे, कहां गिर गए पता नहीं!! इसे कहते हैं कला की धुन, जिसमें होश-हवास सब खो जाए। विलिन हो जाए सबकुछ। चाय के साथ ही सिगरेट भी मिल जाती, तो आपकी मेहरबानी दोगुनी हो जाती।
आप जानते ही हैं!! कलाकार बीड़ी और सिगरेट न फूंके तो क्या कलेजा फूंके।’ धीरे से आवाज आई। हा हा....। आप बहुत मजेदार आदमी हैं। बहुत-बहुत धन्यवाद। किसी ने तो इस आदमी को पहचाना।
उसने चबूतरे पर रखा दाया पैर नीचे किया और स्क्रिप्ट बंद कर मजार की तरफ बढ़ गया। उसके दिमाग में कौंधा। कुछ रियल होना चाहिए। आम जीवन का अनुभव ही तो कला है।
'दादा!!! एक चाय पिलाओ। पैसे कल दूंगा। गोल्ड फ्लैक लाइट भी पकड़ा देना।'' झोले को कंधे पर सरकाते हुए अंगड़ाई लेकर उसने चायवाले से कहा। दूसरी तरफ से जवाब मिला।
‘उधार नहीं करते। यहां किसी का कल नहीं आता!! कल किसी को याद भी नहीं रहता। हां नहीं तो...।’
काले पड़ चुके भगौने और उसके चारों तरफ लिपटी पत्तियों एवं ऊपर उठते झाग पर छन्नी घुमाते लड़के ने उसकी तरफ तांकते हुए जोर से उत्तर दिया.. जो पिता की सहायता के लिए कुछ देर पहले ही दुकान पर बैठा था। उसका इंटरेस्ट चाय बेचने पर कम मोबाइल पर ज्यादा था। बाप में जहां विनम्रता थी, लड़के में उतना ही अख्खड़पन। ऊपर से श्रेष्ठताबोध की ग्रंथी अलग उठी हुई। वह सामाजिक और आर्थिक तौर पर खुद को चाय पीने वालों से किसी भी मामले में कम नहीं जताना चाहता था। इसी वजह से अभी दो ग्राहकों को चाय देने से मना कर चुका था। बड़े ही स्वाभिमान से बोला था ‘चाय उस दुकान से पी लो, मेरे पास खुल्ले नहीं है। हमारे यहां से चाय पीनी है, तो खुल्ले लेकर आया करो।’
यह बोलते हुए उसे बड़ा आनंद और गर्व महसूस हुआ। जबकि उसके टाट के नीचे रेजगारी भरी पड़ी थी।
ग्राहक बुदबुदाकर सामने की दुकान की ओर चले दिया। पिता ने बेटे की इस हरकत को देखते हुए बीड़ी का धुंआ जोर से अंदर लिया और एक भद्दी गाली दी। ‘बेटे की बस की नहीं है धंधा करना। मोबाइल ने सब बर्बाद कर दिया है।’ नाक से बाहर धुंआ छोड़कर वह सोचने लगा।
आसपास खड़े लोगों की नजर आशुतोष पर थी। उसने फिर कहा ‘रोज ही तो आता हूं। पैसे गिर गए हैं। कल ले लेना। लड़के ने हिकारत भरी नजर से उसकी तरफ देखा और हाथ से चलते बनने का इशारा किया।
आशुतोष सामने की दूसरी दुकान की तरफ चल दिया। उसे स्टेज से इतर आम जीवन का अनुभव लेना था। पटकथा के डॉयलॉग से बाहर निकल...असल संवाद करना था। उसने दुकानदार से सिगरेट मांगी और जला ली। फिर बड़े प्यार से कहा। 'पैसे कल लेना भैया!! अभी हैं नहीं! '' खोखे वाला उसे कुछ सेकेंड तांकते रहा फिर... 'कल क्यों लेना? अभी चाहिए। पहले बोलना था न।' 'अरे यार। रोज तो तुम्हारे यहां से सिगरेट लेता हूं न। नहीं पहचानते क्या?' आशुतोष ने उसी की तरफ धुआं छोड़ते हुए कहा। दुकान वाला- ‘दिनभर इतने लोग सिगरेट लेते हैं। सबको पहचानने लगा तो हो गया। आपको पहले बोलना था न, पैसे नहीं है। ये अच्छी बात थोड़ी है।’ गुस्से और संशय की स्थिति में.... 'अरे भैया पहले कमला पसंद इधर पकड़ाओ फिर भिड़ते रहना।' खोखे के सामने हेलमेट डाले लड़के ने तड़ी दिखाते हुए कहा। दुकान वाले ने फौरन उसे कमला पसंद थमाया और उसके बाद आशुतोष से कहा- 'भैया यार! ऐसे ही पंद्रह रुपए छोड़ने लगे तो हो गया। आप किसी से मांगकर दे दो। कुछ देर बाद दे देना। कोई तो आएगा आपका दोस्त वैगेरा अभी।' आशुतोष ने फिर एक कश खींचा, और कहा... 'कल ले लेना भैया' आपके पैसे थोड़ी मार रहा हूं। 'अरे यार!! कैसे ले लेना कल। तुम पेटीएम कर दो न अभी। कैश नहीं है, तो पेटीएम कर दो। पेटीएम तो आजकल सबके पास होता है।'
दुकाने वाले ने हल्की- सी चिढ़ के साथ आशुतोष की तरफ देखते हुए जवाब दिया और सामान बेचने लगा।
'अरे भैया नहीं हैं। होते तो दे नहीं देता। कल ले लेना। अच्छा, मैं आपको पांच रुपए एक्स्ट्रा दे दूंगा और बताओ क्या बोलूं?' आशुतोष ने बेफिक्र होकर सिगरेट का धुंआ छोड़ते हुए उससे कहा।
दुकाने वाले का चेहरा उतर आया। बात मानने के सिवा उसके पास कोई चारा नहीं था। पर उसका छोटा भाई बड़ी देर से यह सब देख रहा था और आवेश में आशुतोष के पास आते ही 'चल पैसे दे फटाफट। समझ नहीं आ रहा इतनी देर से। पैसे नहीं होते, तो चीज लेते क्यों हो भीखमंगो की तरह। बड़ी देर से देख रहा हूं तुझे बहस किए जा रहा है। पैसे दे हमारे... जैसे ही उसकी आवाज तेज हुई हल्की-फुल्की भीड़ जुटनी शुरू हो गई।
'कल दे दूंगा।'
आशुतोष ने न उलझने के शारीरिक भाव के साथ उत्तर दिया।
खोखे वाले का भाई, जिसके मुंह में गुटका था और पेंट घुटने तक मुड़ी हुई थी, का हाथ अब तक आशुतोष की गर्दन पर जा चुका था। एक दो हाथ लगने से आशुतोष को तेजी से पीछे की तरफ झटका लगा। खोखे वाला नीचे उतरकर अपने भाई को पकड़े हुए था। कुछ ने फटाफट मुंह से गुटका थूका और किसी ने तेजी से सिगरेट की कश भीतर ली। कई ऐसे भी थे, जिन्होंने बस एक बार देखा और फिर आगे बढ़ गए।
दो लौंडो को ज्यादा मजा आ रहा था, वो खोखे वाले की तरफ से बोल पड़े, 'अरे भाई अजीब इंसान हो तुम यार। पैसे नहीं होते तो चीज लेते क्यों हो? गुंडाई चलेगी तुम्हारी। हो कौन ये बताओ?' पहले वाला का समर्थन करते हुए दूसरे ने जवाब दिया 'पता नहीं कौन है साला। तोप बने फिर रहा है। दाड़ी बढ़ा ली। कंधे पर झोला डाल लिया। कुर्ता पहन लिए तो खुद को बड़के नेता ही समझने लगे.. ऊपर से मंडी हाउस का आदमी हूं। अबे कौन है तू मंडी हाउस का आदमी, मैं भी तो जानूं। यहीं पीछे रहता हूं रेलवे फाटक के पास। बता जरा।'
ज्यादा ही सख्त आवाज में दूसरे वाले ने भीड़ में से बीच में घुसते हुए कहा। खोखे वाले की जान में आफत आ गई। एक तो वह अपने छोटे भाई को समझाने में जुटा था, ऊपर से नीले-भूरे बालों वाले, कान में कुंडल खोसे दो लड़के पता नहीं कहां से विवाद के बीच में आ टपके थे। 'कोई नहीं भाई, तुम जाओ यार। कल दे देना। दुकान तो यही रहेगी, कहीं जाएगी थोड़ी। नहीं भी दोगे फिर भी चलेगा। आप लोग भी जाइए भैया, हो गया अब।'
'कैसे हो गया। फ्री में आते हैं पैसे। कैसी बात करते हो भाई। अभी आपके पैसे निकलवाता हूं इससे। देगा कैसे नहीं। अरे बुला वीरे को अभी इसकी अक्ल ठिकाने लगाते हैं।' पहले वाले लड़के ने कहा जिसके मुंह पर चकते थे और शर्ट का कॉलर ऊपर किए हुए था।
आशुतोष चारों ओर से घिर चुका था। उसे लगा खाली मुसीबत मोल ले ली। अनुभव के चक्कर में कहां फंस गया। 'पैसे देगा कि नहीं ये बता।' पहले वाला जब थोड़ा थमा, तो दूसरे वाले ने तैश में आते हुए कहा। खोखे वाले का छोटा भाई भी बात बढ़ते देख चुप हो गया था। खोखे वाले ने दोनों को समझाया, लेकिन उनमें से एक ने उसे ही झिड़क दिया। 'तू यार एक गुटका थमा। इसको हम संभालते हैं। ला-ला फटाफट दे। फिर और भी काम है अपने को।'' गुटका फाड़ते हुए उसने मुंह में डाला और आशुतोष को दूसरी साइड ले जाने लगा। इतने में एकाध बोल पड़े- अरे भाई तुम क्यों बीच में आ रहे हो। उनका मामला है निपटने दो। कहां ले जा रहे हो इसे।' आशुतोष जेब से पैसे निकालकर देने की सोच ही रहा था, तभी एक हट्टा-तगड़ा नौजवान बोल 'बुलाऊं क्या पुलिस। छोड़े इसे। क्या चाहिए पैसे न। ले भाई तू पकड़ पंद्रह रुपए। बात खत्म करो अब। अरे भाई तुम जाओ न, मामला निपट गया'
खोखे वाले को दस रुपए का नोट और पांच का सिक्का पकड़ाते हुए लंबे वाले लड़के ने कहा। आशुतोष यह सब देख भीतर से डर गया था, उसने सोचा स्टेज को छोड़कर वह कभी भी जीवन में एक्टिंग के अनुभवों को लेने के लिए कोई कलाकारी नहीं करेगा। ''तुम भी गुरु, जब पैसे नहीं थे सिगरेट क्यों ले ली।' मजार पर बैठे शख्स ने पूछा? आशुतोष बोल पड़ा- देख रहा था आम जीवन में एक्टिंग का असर क्या होता है। मंडी हाउस का आदमी जो हूं...'
वह शख्स हंस पड़ा। आशुतोष को याद आया जब वह पहली बार मंडी हाउस आया था और श्रीराम सेंटर के बाहर समोसे एवं चाय का लुत्फ उठा रहा था, तब जो शख्स उसके पास आया था, उसने उसे झिड़क दिया था। वह भी समोसे ही खाना चाह रहा था। ' किस ग्रुप के साथ थिएटर कर रहे हो।' उसने आशुतोष के पास आते ही सीधे पूछा था, जो देखने में काफी लंबा-चौड़ा था। 'रंगताल' के साथ जुड़ा हूं इनदिनों' और आप....।
'अरे मुझे नहीं पहचानते उसने बड़े गर्व से कहा था।' आशुतोष के मुंह का समोसा मुंह में ही रह गया था।
'नहीं' जवाब दिया था। 'फिर कैसे कलाकार बनोगे? इंडस्ट्री पर नजर रखनी होती है। तुम्हारे सामने अभी फिल्म करके लौटा एक एक्टर है, तुम उससे कह रहे हो, नहीं पहचानता।'
आशुतोष को झेंप हुई और उसने सॉरी बोलते हुए पूछा कौन-सी फिल्म है, हो सकता है मैंने देखी न हो?
'चलो फटाफट एक समोसे ले लो। तुम खा रहे हो।; और पानी मेरे मुंह में आ रहा है।' खुद को विक्की बताने वाले उस शख्स ने कहा था।
पहले तांव में आकर आशुतोष ने कह दिया था 'ऐसे कैसे समोसे खिला दूं।' फिर उसे लगा सात रुपए में क्या जाता है? क्या पता यह ही आगे कभी काम आ जाए। आशुतोष सोच ही रहा था, तभी पास बैठे शख्स ने कहा- चलो। समोसे खाते हैं।' साइरनों की आवाज तेज हो गई थी। सन्नाटे वाले अंधेरे के बीच लाइटों की जगमग-जगमग मंडी हाउस और सपनों की नगरी के बीच के फर्क को मिटा रही थी। कला की दुनिया के वाशिंदे अपने-अपने घोलों से निकलकर सड़कों पर थे। मंडी हाउस के कॉर्नर पर गुटका-सिगरेट खरीदते कलाकारों की भीड़ थी। ललितकला अकादमी के सामने वॉशरूम के बाईं तरफ वाले चाय वाले के पास भी भीड़ जुटी थी। कई नाटक लिखे जा रहे थे। कई कलाकार बन रहे थे। कई शो होने वाले थे। यह कला की दुनिया थी, जहां चीजें सपनों में पहले हो जाती हैं और... हकीकत में वक्त लगता है।
आशुतोष ने सोचा वह नाटक में अब पटकथा के संवाद की जगह अपने असल अनुभव को एक्ट करके दिखाएगा। उसने जेब से पैसे निकाले और समोसे वाले को दे दिए... लक्की से उसकी तरफ देखा और विदा लेकर चल दिया...
लेखक परिचय - ललित फुलारा
उत्तराखंड के अल्मोड़ा ज़िले के सुदूर स्थित छोटे से गाँव 'पटास' में 15 अक्टूबर 1989 को पैदा हुए।प्राथमिक शिक्षा गाँव की प्राइमरी पाठशाला में संपन्न हुई। माध्यमिक शिक्षा के लिए गॉंव की दहलीज लांघी और उधम सिंह नगर ज़िले के सितारगंज कस्बे में स्थित 'दि किसान सहकारी चीनी मिल' आ गये। जहां बारहवीं तक की पढ़ाई सरस्वती विद्या मंदिर से पूरी की। इसके बाद पंजाब टेक्निकल यूनिवर्सिटी से पत्रकारिता में ग्रेजुएशन किया और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के नोएडा परिसर से पत्रकारिता में एम.ए किया।
पत्रकारिता करियर की शुरुआत 'दैनिक भास्कर' भोपाल से हुई। उसके बाद 'ज़ी न्यूज़ ', 'राजस्थान पत्रिका' और 'न्यूज़18', अमर उजाला जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में काम किया। वर्तमान में ज़ी मीडिया में चीफ-सब एडिटर के पद पर कार्यरत हैं । विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, संस्मरण और कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं। 2022 में कैंपस और यूथ आधारित नॉवेल 'घासी: लाल कैंपस का भगवाधारी' प्रकाशित हुआ है.
सम्पर्क: एफ-107, एस एस्पायर, ग्रेटर नोएडा वेस्ट, यूपी- 201306
ई-मेल: Lalitfulara15@gmail.com
ललित फुलारा
चीफ-सब एडिटर (अमर उजाला)
मोबाइल नंबर- 9555751267
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