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डॉ रंजना जायसवाल

प्लेटफार्म नम्बर 7






“इतवार को तेरी दादी की बरसी है। तू आ रहा है न…!”

“दादा जी ये भी कोई पूछने की बात है।”

अंश ने थोड़ी नाराजगी दिखाते हुए कहा था।

“हाँ भाई! मैं तो भूल ही गया था, मेरी पत्नी तेरी दादी भी थी।”

दादा जी ने हँसते हुए कहा

“ज्यादा कुछ नहीं एक पंडित जी को कह दिया था। एक बार तू भी आ जाता तो उसके सारे सामान बाँटकर उसकी यादों से छुट्टी पा लूँ।”

छुट्टी! एक पल को दादी को अकेला न छोड़ने वाले दादा जी क्या वाकई में उनकी यादों से मुक्ति चाहते थे या फिर दुनिया के बनाए दकियानूसी ढकोसले में फंस कर रह गए थे। दादी के यूँ अचानक जाने से बाबा बिल्कुल अकेले पड़ गए थे,वैसे इस संबंध में पापा का फोन पहले ही आ चुका था पर दादा जी तो दादा जी ही थे। अंश से बात किए बिना उनका दिन नहीं खत्म होता था। वह दो दिन पहले ही पहुँच गया था। पापा-मम्मी बरसी की तैयारियों में जुटे हुए थे। वह दादा जी के कमरे की ओर बढ़ गया।

सामने की दीवार पर दादी तस्वीर में मुस्कुरा रही थीं। लगभग दस साल पहले की फोटो थी। अंश के नौकरी पर जाने से पहले सब बनारस भोले बाबा के आगे माथा टेकने गए थे। उस दिन दादी कितना खुश थी उनका अंश अपने जीवन की नई पारी शुरु करने जा रहा था। गुलगुले गालों और अठन्नी भर की बिंदी उनके माथे पर चमक रही थी। वह हमेशा उनके गुलगुले गालों को अपनी चुटकियों से मसल देता।

“माई कियूटी पाई…”

“धत्त! कुछ भी कहता है।”

दादी नवोढ़ा की तरह शरमा जाती। कुछ भी तो नही हुआ था,अच्छा-खासा खाना खाकर सोई थी और ऐसा सोई कि सोती ही रह गई। न कुछ कहा न सुना चुपचाप उनका जाना सबको अखर गया। बाबा को इस बात का मलाल रहा कि वह बगल में सोते रह गए और उसने जगाया तक नहीं और एक अखंड यात्रा की ओर बिना कुछ कहे… बिना कुछ सुने चली गई। वह तो सुबह अखबार वाले ने घंटी न बजाई होती तो उनकी नींद न खुलती। दादी घर में सबसे पहले जगती थी, कहती थी बुढ़ापे में नींद कम ही आती है। उन्हें चुपचाप लेटा देखकर दादा जी को शक हुआ जब उन्होंने उन्हें जगाने का प्रयास किया तो उनकी दुनिया उजड़ चुकी थी।

दादी इस दुनिया से वैसे ही गई जैसा वो चाहती थी।

“लंबी उम्र लेकर क्या करना बेटे-बहू भी सेवा करते-करते थक जाए। मुझे तो ईश्वर एक झटके में उठा ले, मुझे ऐसी मौत नहीं चाहिए कि रगड़-रगड़ कर जीना पड़े। परिवार और रिश्तेदार भी आपकी मौत और मुक्ति की कामना करने लगे। जब भी याद करे तो बेचारगी से नहीं… कि अच्छा हुआ भगवान ने उठा लिया मुक्ति मिल गई उन्हें…मैं तो ऐसे मरूँ की वर्षों-वर्ष परिवार शिद्दत से याद करें।”

हुआ भी वही! दादा जी खिड़की के पास चुपचाप बैठे थे। हमेशा चुस्त-दुरुस्त रहने वाले दादा जी दादी के जाने के बाद अचानक से बूढ़े दिखने लगे थे। उस झुर्रियों से भरे चेहरे की एक-एक लकीर अपनी अलग-अलग कहानी बयाँ कर रही थी। उन्हें देख कर हमेशा यही लगता था मानो वे एक-दूसरे के लिए ही बने हो। इस उम्र में भी दादी दादा जी का कितना ख्याल रखती थी।

“अंश की माँ इनके लिए फुल्के मैं ही सेकूँगी। इन्हें जल्दी किसी के हाथ के पसन्द नहीं आते।”

मम्मी बड़बड़ा कर रह जाती।

“तीस साल हो गए पर मुझे फुल्के सेंकने नहीं आए।”

कई बार मम्मी ने दादी को सुनाने के लिए अपना स्वर तेज़ भी कर दिया था पर दादी गिनती के वो दो फुल्के खुद ही बेलती और सेंकती। वैसे रिश्ते में वह अंश की दादी थी पर उम्र आज के युग के हिसाब से उनकी उम्र कुछ भी नहीं थी।

“तेरा दादा इक्कीस और मैं अट्ठारह के थे तेरे दादा कॉलेज जाते थे। हमारे बाबूजी को तेरे दादा एक नज़र में पसन्द आ गए थे। सुना था तेरे दादा शादी के लिए बड़ा ना-नुकुर कर रहे थे। दो-चार साल रुक जाओ पढ़ाई तो पूरी होने दो। फिर नौकरी भी तो करनी है पर तेरे दादा जी के पिता जी अड़ गए तो अड़ गए। उनका गुस्सा तो आस-पास के इलाके में मशहूर था। झक्क मारकर शादी करनी पड़ी। सच पूछो तो बाबू जी को घरेलू लड़की चाहिए थी और तुम्हारे दादा नए जमाने वाले उन्हें पढ़ी-लिखी अप टू डेट लड़की चाहिए थी पर बाप के आगे बेटे की एक न चली और देखो तब से हम तुम्हारे दादा की जिंदगी में राज कर रहे हैं।”

दादी ये किस्सा न जाने कितनी बार सुना चुकी थी, आखिर पंक्ति कहते-कहते हमेशा वो ठठा मारकर हँस पड़ती और इतना हँसती कि उनकी आँखें भर आती। ऐसा क्यों? ये बात अंश कभी समझ नहीं पाया। वह दादा जी के पैरों में झुक गया।

“कब आया?”

“बस थोड़ी देर पहले ही आया।”

“सब ठीक है ना…कुछ खाया कि नहीं या सीधे मेरे कमरे में चला आया?”

“रास्ते में ही नाश्ता-पानी कर लिया था।”

“मेरा एक काम करेगा?”

दादा जी ने आग्रह किया।

“बोलिए न…”

“तेरी दादी का कुछ सामान है कहते हैं मरने वाले का सामान नहीं रखना चाहिए। कब तक उसकी आत्मा को कष्ट पहुँचाता रहूँगा। सब निकल दे। तेरी माँ देख लेगी क्या बाँटना है क्या रखा जाए।”

अंश ने कमीज़ की बाहें मोड़ी और अलमारी खोलकर खड़ा हो गया। एक के बाद एक सामान निकलते जा रहे थे। मम्मी ने तो तेरहवीं के समय ही सब कुछ बाँट देने को कहा था पर दादा जी के सामने किसी की हिम्मत नहीं पड़ी। दादी आज जिंदा होती तो किसी को अपनी अलमारी हाथ लगाने नहीं देती पर…दादी की पसंदीदा लाल साड़ी जो दादा जी जयपुर से लाए थे,अंश की कमाई से लाई किनारी वाली सिल्क की साड़ी,लकड़ी की बकसिया में उनके गहने और छुट-पुट न जाने क्या-क्या तो भर रखा था दादी ने…उसने एक-एक कर सब बाहर निकल दिए।

“दादा जी आपके सारे कपड़े हैंगर में लगा दूँ,अब तो बहुत जगह हो गई है।”

दादा जी टुकुर-टुकुर अंश को देख रहे थे उनकी बूढ़ी आँखें एकदम खाली थी।

“उस खाली जगह को तो तू मेरे सामान से भर देगा पर तेरी दादी के जाने के बाद जो एक खाली जगह बन गई है वह कैसे भरेगी।”

अंश को अपनी गलती समझ आ गई।

“सॉरी दादा जी! मेरा वो मतलब नहीं था।”

“नहीं बेटा कोई बात नहीं, सच ही तो कहा तुमने खाली ही तो कर गई वो मेरा जीवन…ऐसा कर ऊपर वाली सेल्फ में कुछ सामान रखे हैं उसे नीचे वाले हिस्से में सजा दो। बार-बार सामान उतारने के लिए बहू को आवाज़ देना ठीक नहीं लगता।”

अंश ने हाथ बढ़ाया दादा जी की लोई, दादी की शाल हाथ में आई।

“बाकी ऊनी सामान तो वो बक्से में रखती थी पर रात-बिरात अगर ठंड लगे तो किसको जगाने जाएंगे इसलिए इन्हें यहाँ रखा है।”

अंश ने अंदर की तरफ हाथ डाला बेडशीट और दोहर का गठ्ठर था

“तू तो जानता है तेरी दादी को हर हफ्ते चादर बदलने की आदत थी।”

दादाजी हर निकलते हुए सामान के साथ एक बात जरूर कहते। अंश ने चादर के गट्ठर को जोर से अपनी ओर खींचा,चादर खींचते वक्त एक डायरी धड़धड़ाते हुए उसके पैरों पर आकर गिर गई। दादा जी ने उठने का प्रयास किया पर न जाने क्या सोचकर वह धम्म से कुर्सी पर बैठ गए अंश की आँखों में हजारों सवाल थे।

“इधर ला… मुझे दे दे।”

दादा जी ने डायरी को अपने सीने से चिपका लिया। अंश के दिमाग़ में शक का एक कीड़ा रेंग गया। आखिर क्या था इस डायरी में…? क्या दादी इस डायरी के बारे में जानती थी? अंश चाहकर भी पूछ नहीं पा रहा था। आखिर दादा जी ने ही उसकी मुश्किल हल कर दी

“मेरी डायरी है।

“दादी जानती थी इस डायरी के बारे में…?”

“हाँ…”

दादा जी के इस संक्षिप्त उत्तर ने उसकी बैचेनी बढ़ा दी पर कैसे पूछे, ये उनकी व्यक्तिगत मसला है पर इस मन को आखिर कैसे समझाता?

मेहरून रंग की डायरी जिसको वक्त के थपेड़ों ने वैसे ही बदरंग कर दिया था जैसे इस वक्त दादी के बिना दादाजी की थी। डायरी के पन्ने अपने गठबंधन के धागों से हाथ छुड़ाकर न जाने किस अरण्य में गुम हो चुके थे। दादाजी ने डायरी की पन्नों को कुछ ऐसे संभाला जैसे किसी नवजात शिशु के पैदा होने पर माँ संभालती है या फिर अधखिले फूलों को मुरझाने और झर जाने के डर से कोमल और नाजुक हाथों से कोई नायिका संभालती है।

दादा जी के आँखों की नमी उस डायरी में छुपे एहसास के जिंदा होने का सबूत थी। दादा जी ने डायरी के पन्नों को पलटना शुरु किया। एक पल को लगा मानो किसी ने वक्त के सितार के तारों को छेड़ दिया हो। दादा जी ने डायरी उसकी ओर बढ़ा दी वह समझ नहीं पा रहा था कि वह क्या करें पर दादाजी की आँखों में न जाने ऐसा क्या था कि वह अपने हाथों को रोक नहीं पाया।

मैरून डायरी के सबसे ऊपरी हिस्से पर सुनहरे रंग की बनी लाइन घर के मुख्य द्वार पर बने ऐपन या रंगोली की तरह लग रहे थे। अंश ने सधे हुए हाथों से पन्ने को पलटा। पहले पन्ने पर लाल और काले पेन से  गुलाब की बेल बनी हुई थी उतनी ही सुंदर उतनी ही पवित्र जितनी वह डायरी थी। “श्री गणेशाय: नम:”...अंश के चेहरे पर मुस्कुराहट बिखर गई। दादाजी हमेशा कहते थे शुभ काम का आरंभ ईश्वर को याद करके करना चाहिए। कुछ तो था इस डायरी में जो उनके जीवन में खुशियों की सौगात लेकर आया था। अंश ने पन्ने को पलटा एक सूखा सुर्ख गुलाब फुदक कर बाहर आ गया। डायरी के पीले पड़ चुके पन्ने पर एक तारीख लिखी थी। 22 जून 1971…शायद यह तारीख उतनी ही महत्वपूर्ण थी जितना की वह सूखा सुर्ख गुलाब। लिखने वाले के मन में उस वक्त न जाने कैसे भाव थे कि पेन के दबाव के निशान दो-चार पन्नों तक महसूस हुए थे। शायद वह चाहता था यह वक्त यहीं ठहर जाए…कहते हैं पत्थर पर लिखा हुआ मिटाया नहीं जा सकता, शायद लिखने वाला भी यही सोच रहा हो यह भाव, यह वक्त… बस यहीं रुक जाए। सच कहूँ तो वह तारीख़ डायरी के पन्ने से ज्यादा दिल में एक दस्तावेज की तरह सुरक्षित थी। उस डायरी में कुछ भी नहीं था बस कुछ तारीख़ें थी। एक साधारण इंसान के लिए वह सिर्फ़ मामूली तारीखें थी पर उस डायरी के मालिक से पूछिए जिसके दिल पर किसी किराएदार ने कब्जा कर लिया हो।

उसने महसूस किया हर एक पन्ने पर नीले-लाल स्याही के निशान थे। लिखने वाले ने कोशिश की थी,पुरजोर कोशिश की थी पर कुछ अनकहा सा रह गया था। इस तरह वर्षों-वर्ष अलमारियों की गहराई में छिपी हुई डायरियाँ न जाने कितनी कहानियों को अपने अंदर समेटे दफ़न रहती हैं। अंश ने डायरी के पन्नों को अपनी उंगलियों से छेड़ा सारे पन्ने कोरे…डायरी के मालिक के जीवन के एक खास हिस्से की ही तरह। पीले पड़े हुए पन्नों में कहीं कोई लिखाई नहीं न ही कोई कविता और न ही कोई कहानी पर हर पन्ना अपनी कहानी कह रहा था जो शायद पूरी नही हो पाई थी। जो शब्द लिखे जाने चाहिए थे वो कहीं दूर कराह रहे थे छटपटा रहे थे शायद लफ़्ज़ों को भी उस वक्त का इंतजार रहा होगा पर एक लंबे वक्त बीतने के साथ शायद उस उम्मीद ने भी दम तोड़ दिया था।

अंश के दिल में एक हूक सी उठी। डायरी के अंतिम पृष्ठ पर लाल स्याही से उस्ताद मीर तकी मीर का एक अशआर एक इतिहास की तरह दर्ज था।

“याद उसकी इतनी खूब नहीं “मीर” बाज आ,

नादान फिर वो जी से भुलाया न जाएगा।

एक पल को अंश को ऐसा लगा मानो वह लाल स्याही नहीं किसी के प्रेम का रंग हो लहू का रंग हो। बिना कुछ कहे बिना कुछ सुने वो सब कुछ समझ चुका था। आजकल लड़के या लड़कियाँ जहाँ रिश्ते कपड़ों की तरह बदलते हैं। प्योर लव! पवित्र प्रेम जैसी चीज़े शायद होती थी यह सिर्फ कोरी कल्पना नहीं… अंश को आज यह बात समझ आ रही थी। कुछ प्रेम कहानियाँ इसी तरह डायरी के पन्नों में कैद होकर रह जाती है और सिसकती है उम्र भर…

“दादी इस डायरी के बारे में जानती थी?”

“हाँ! एक बार घर की सफाई करते वक्त उसके हाथ लग गई थी।”

“फिर?”

“वह आखरी दिन था उसने मुझ पर विश्वास करना छोड़ दिया था।”

“पर वह तो आपसे बहुत प्यार करती थी।”

“उसने एक पत्नी का हर धर्म निभाया पर विश्वास का पौधा सूख चुका था। वह इस बात को कभी स्वीकार नहीं कर पाई कि उसके मेरे जीवन में आने से पहले भी मेरे जीवन में कोई और भी था। मैंने उसे कितना समझने की कोशिश की। अंश मेरा भगवान इस बात का गवाह है कि तेरी दादी के मेरे जीवन में आने के बाद मैंने उस लड़की से कभी कोई संपर्क नहीं किया था पर…रिश्ते की गीली जमीन पर लोग अक्सर फिसल जाते हैं।”

दादी की आवाज अभी भी उसके कानों में गूंज रही थी।

“तुम्हारे दादा के जीवन में आज तक राज कर रही हूँ।

“राज!”

दादी जानती थी दादा एक अच्छे पति, अच्छे पिता तो साबित हुए थे पर जिस प्रेमी की तलाश वह जीवन भर करती रही वह तो किसी और के पास गिरवी रखा हुआ था। उनके साथ न होकर भी वह आज भी उनके दिल पर राज कर रही थी। यह दर्द उनके साथ जिंदगी भर रहा और उनके साथ चला भी गया। नियति के धागों ने उन दोनों की जिंदगी को उलझाए रखा और उन्होंने भी इसे अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लिया। दादी की वह हॅंसी कितनी खोखली थी उनका वह ठठा मार का हॅंसना उनके दिल में उठते दर्द के हिलोरें को भी दबा नहीं पता था शायद इसीलिए वह आँसू के रूप में बाहर आ जाता। सच कहा किसी ने टूटता है तो चुभता जरूर है फिर वो चाहे दिल हो या फिर काँच…

“अंश! मेरा एक काम करेगा।”

“बोलिए न…”

“अपनी माँ से कहना इसमे से जो सामान उसे चाहिए वह रख ले बाकी जरूरतमंदों में बांट दे।”

“जी दादा जी…”

अंश ने अलमारी बंद की और सामान लेकर बाहर जाने लगा।

“एक और बात कहनी थी।”

“बोलिए!”

“मुझ से कोई मिलना चाहता है, तू मुझे ले चलेगा?”

“कब?”

“आज…”

“कौन आ रहा है?”

दादा जी ने डायरी को अपने सीने से चिपका लिया। अंदर कहीं गहरे कुछ चटक गया। उसने दादी की तस्वीर की ओर देखा,वह अब भी मुस्करा रही थी जैसे वो हमेशा मुस्कुराती थी।

“कितने बजे चलना है?”

“आज काशी विश्वनाथ ट्रेन से वह दिल्ली जा रही है परसों उसका फोन आया था।”

अंश की आँखों में प्रश्न तैयार रहे थे। क्या दादाजी अभी भी उससे संपर्क में हैं? बिना कुछ कहे दादा जी अंश के प्रश्न को समझ गए थे।

“मेरे दोस्त रमेश को तो तुम जानते ही हो। हम तीनों साथ पढ़ा करते थे। रमेश ने उसे तुम्हारी दादी की मृत्यु के बारे में बताया था। रमेश ने ही मेरा नंबर उसको दिया।”

अंश ने कलाई में बंधी अपनी घड़ी की ओर देखा,

“अभी टाइम है आप तैयार हो जाइए साथ चलते हैं।”

“अपने मम्मी-पापा से क्या कहेगा!”

“आप परेशान ना होइए मैं देख लूंगा।”

थोड़ी देर बाद अंश तैयार होकर दादाजी के कमरे में आया,पता नहीं दादाजी तैयार हुए भी या नहीं! दादाजी शीशे के सामने खड़े अपने बालों को संवार रहे थे। वह इस वक्त किसी और ही दुनिया में थे। तन सफ़र पर चलने को तो तैयार था पर मन …मन तो बीते दिनों पच्चास  साल से अभी भी एक सफ़र में ही था।

“आप तैयार हैं! वैसे अभी समय है आराम से चलते हैं।”

“घर बैठकर क्या करेंगे!”

दादाजी की आवाज में आतुरता थी जिसे सुनकर अंश को कुछ खास अच्छा नहीं लगा। दादाजी ने नज़रें चुराते हुए अंश से कहा

“लखनऊ जैसे शहर के भीड़-भाड़ इलाकों से गुजरते हुए स्टेशन समय से पहुँचना कोई आसान बात नहीं है। वैसे भी घर में बैठकर ही क्या करेंगे, मन में एक डर बना रहता है कहीं ट्रैफिक ज्यादा मिल गया। वर्किंग डेज में सड़कों पर वैसे भी जाम की स्थिति बनी रहती है। इस ऊहापोह से बचने का सबसे बेहतरीन उपाय यही है कि समय से निकलो और स्टेशन पर बैठ कर इंतज़ार करो।”

अंश कुछ भी कहने के मूड में नहीं था। जानता था कहने का कोई फायदा नहीं होगा। वह दादाजी के साथ स्टेशन निकल गया। दादा जी एक अलग ही दुनिया में थे, अंश से उनका रिश्ता दादा-पोते से ज्यादा एक मित्र का था पर हमेशा उसने अपने दिल की बातें कही थी पर दादाजी का यह रूप उसने पहली बार देखा था। अंश ने इधर-उधर नज़र दौड़ाई, प्लेटफॉर्म पर भीड़ धीरे-धीरे बढ़ने लगी थी। सामने चाँद चमक रहा था,प्लेटफॉर्म के टीन शेड से झाँकता चाँद, दूर किसी पेड़ की पत्तियों से अठखेलियाँ करता चाँद, एक पल को अंश को लगा कि आज चाँद भी दो बिछड़े प्रेमियों के मिलन का गवाह बनने के लिए टकटकी लगाए इंतजार कर रहा है। तभी…

"जरर-जरर!"

एक बड़े से डंडे में सींक की झाड़ू को एक खास एंगेल में फँसाये सफाई कर्मचारी अपनी ही धुन में झाड़ू लगाता आगे बढ़ता जा रहा था। चेहरे पर कोई भाव नहीं एकदम सपाट उसके झाड़ू की ही तरह…एक जिम्मेदारी की तरह बस निभाना भर ही था। सब अपनी-अपनी जिम्मेदारी निभा रहे थे, झाड़ू अपनी तो सफाई कर्मचारी अपनी…अंश भी अपनी जिम्मेदारी ही तो निभाने आया था। सफाई कर्मचारी ने मोटा-मोटा कूड़ा साइकिल के टायर को ढकने वाले स्टील से बने हिस्से की सहायता से उठाया और पहले से भरे हरे और नीले कूड़ेदान में डाल दिया। कूड़ेदान पहले से ही भरा हुआ था। उसने नवागंतुक कूड़े का खुले मन से स्वागत नही किया। जब खुद के रहने की जगह न बची हो वो बेचारा भी अतिथियों का बोझ आखिर कैसे संभालता,अंततः उसने भी वहीं उल्टी कर ही दी। सफाई कर्मचारी ने कुछ देर तक उस कूड़े को हिकारत भरी नजरों से देखा और फिर मोटे- मोटे कूड़े को वहीं कूड़ेदान के इर्द-गिर्द ठेल बाकी बचे कूड़े को प्लेटफार्म की पटरियों पर धकेल दिया। अंश उसकी इस हरकत पर मुस्कुरा दिया,चेहरे बदल गए पर चीज़ें वहीं की वहीं! कुछ नहीं बदला इतने सालों में…पर क्या सिर्फ़ गलत वह सफ़ाई कर्मचारी ही है।

अंश की कुछ ही दूरी पर स्टील की बेंच पर एक परिवार बैठा हुआ था। देखने से पढ़ा-लिखा और सम्भ्रांत लग रहा था शायद वे भी उसी ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे। चुस्त पेंट और सफेद टॉप पहने महिला फोन पर लगातार बात कर रही थी और किसी को निर्देश भी देती जा रही थी। फोन के उस तरफ कौन था वह नहीं जानता था बहरहाल फोन के उस तरफ वाले व्यक्ति से कुछ गलती जरूर हो गई थी उसकी आवाज का सुर अचानक तेज़ हो चुका था। अंश ने पलटकर उसे देखा। बालों में बरगंडी रंग,तराशी हुई उंगलियों में काले रंग का नेलपेंट लगा हुआ था। उसे दादी की याद आ गई।

"दुनिया में कोई रंग नहीं बचा है जो आजकल की लड़कियाँ शादी-ब्याह, गमी सबमें काले कपड़े पहनकर चल पड़ती हैं। ऊपर से ये तीर-तलवार से नाखून को भी उसी रंग से पोत लेगी। एक भी इंसानों वाले लक्षण नहीं दिखते।"

उस महिला ने अपने मैनीक्योर किए हाथों को बेंच के मुढे पर रखा, उसके चेहरे की रंगत अचानक से बदल गई। उसने अपने मैट लिपिस्टिक से रंगे हुए होठों से धीरे से बुदबुदाया।

"ईईई…सो डर्टी!"

वैसे उसकी आवाज अंश के कानों तक नहीं पहुँची थी पर उसके चेहरे के भाव और तेज़ी से आते-जाते उतार- चढ़ाव को देख अंश ने अंदाजा लगा लिया था,वैसे भी अंश चेहरे पढ़ना खूब जानता था। वह मन ही मन मुस्कुरा पड़ा,उस महिला के सर पर महंगा चश्मा इतरा रहा था। उसने अपने ब्रांडेड बैग से फेस वाइप का पैकेट निकाला। उस गीले रुमाल ने उसके चेहरे ,गर्दन और उंगलियों तक एक लंबी यात्रा की और अब वो प्लेटफार्म पर पड़ा अपने भाग्य को कोस रहा था। सचमुच कुछ भी नहीं बदला था।

अंश ने वितृष्णा से मुँह फेर लिया तभी एक वेंडर अपना ठेला लेकर उसके सामने खड़ा हो गया, शायद उसकी वह जगह पहले से ही निर्धारित थी। प्लेटफार्म पर एक उद्घोषिका की आवाज गूँजी।

"वाराणसी से चलकर दिल्ली जाने वाली 14257 काशी विश्वनाथ एक्सप्रेस अपने निर्धारित समय से दस मिनट पहले चल रही है।"

दादाजी की छटपटाहट चेहरे पर साफ पढ़ी जा सकती थी। अंश ने डिस्पले बोर्ड की तरफ देखा,ए. सी. कोच स्लीपर के पीछे ही लगा था। आने को तो वह दादाजी के साथ स्टेशन आ गया था पर उसकी मन कहीं लग नहीं रहा था। वह वेंडर को ध्यान से देखने लगा। अपने ग्राहकों के इंतज़ार में वेंडर की आँखें उन निर्जीव पटरियों की तरफ बार-बार जा रही थी। निर्जीव! निर्जीव इसलिए क्योंकि हम हमेशा पटरियों को देखकर कहते हैं कि ये कहाँ जाती है। सच बताऊँ तो जाते तो हम है यह तो बस यही चुपचाप पड़ी हमारा और हमारे जैसे लोगों के आने और जाने का इंतज़ार करती हैं।

पूड़ी-सब्जी बेचने वाले ने घड़ी की तरफ देखा ट्रेन बस आने ही वाली थी। वेंडर ने गैस स्टोव को जलाया। गैस स्टोव भक-भक करके जल पड़ा। उसने झट से एल्मुनियम के बने बोर्ड पर पूड़िया बेलनी शुरू कर दी। उसके अभ्यस्त हाथों ने एक बड़े से काले झरने से उन्हें तलना शुरू कर दिया। देखते ही देखते पूड़ियों का ढेर लग गया। बाँस की बनी डलिया गर्म,करारी-लाल पूड़ियों से भर गई। वह उन गर्म पूड़ियों को हाथ से दबाता और कागज के बने डिब्बों में भरता जा रहा था,

"इतनी गर्म पूड़िया क्या इसका हाथ भी नही जल रहा?"

अंश के अंतर्मन ने कहा

"आदत हो गई। इसलिए गर्म-ठंडे का कोई फर्क नहीं पड़ता।"

अंश ने उसके चेहरे को ध्यान से देखा कोई भाव नहीं बस बनाना है और ग्राहकों को देना है न स्वाद से मतलब और न ही गर्म-ठंडे से…न खिलाने वाले को चाव और न ही खाने वाले को सब अपनी-अपनी जरूरतों के हिसाब से चल रहे थे। वेंडर को अपना घर चलाना था और ग्राहकों को फिलहाल के लिए भूख मिटानी थी।

अंश सोच रहा था कितना फर्क होता है एक पेशेवर खाना बनाने वाले में और एक गृहणी में…! बना तो दोनों खाना ही रहे थे पर दोनों के भाव में कितना अंतर था एक अपने परिवार की संतुष्टि के लिए बना रहा था और एक अपने परिवार को चलाने के लिए…

"बनारस से चलकर आने वाली काशी विश्वनाथ एक्सप्रेस 14257 प्लेटफार्म नंबर 7 पर आ रही है।"

अंश ने अपने आप को अपनी सोच से बाहर निकाला और दादा जी पर एक भरपूर निगाह डाली।

"ट्रेन बिफोर आई है वैसे दस मिनट रूकती है कोई जल्दी नहीं भीड़ के छटने के बाद ही आप ट्रेन में उन्हें ढूंढियेगा।"

उन्होंने भी अपने मन को समझाया। एक बड़ा सा रेला पूड़ी-सब्जी वाले के ठेले के पास आकर रुक गया। कुछ ने पैक करवाया तो कुछ वहीं खड़े होकर खाने लगे। कुछ देर पहले साफ किया हुआ प्लेटफार्म इस भीड़ और उसके द्वारा फैलाई हुई गन्दगी के लिए तैयार नही था। वेंडर के पास भीड़ छँट चुकी थी और वो भी अब रिलेक्स होकर अपने चेहरे पर चूहचूहा आए पसीने को गर्दन पर पड़े लाल गमछे से पोछ रहा था। भीड़ प्लेटफार्म नम्बर 7 पर गन्दगी के रूप में अपने कदमों के निशान छोड़कर ट्रेन में बैठ चुकी थी। अंश सोच रहा था कि हर शहर के हर प्लेटफार्म की किस्मत में शायद यही लिखा होता है।

प्लेटफार्म के अंतिम सिरे तक सफाई करके लौट रहे सफ़ाई कर्मचारी ने हिकारत भरी निगाह से उस कूड़े की ओर देखा और अपने झाड़ू को ले आगे बढ़ गया। झाड़ू भी एक जानी-पहचानी आवाज़ के साथ उसके साथ घसीटता चला जा रहा था। अंश लगातार सफाई कर्मचारी और उस झाड़ू को देख रहा था जब तक उसकी परछाई उसकी आँखों से ओझल नहीं हो गया। अंश मन ही मन सोच रही थी, कौन किसको घसीट कर लेकर जा रहा है शायद वह सफाई कर्मचारी झाड़ू को या फिर झाड़ू सफाई कर्मचारी को…

दादाजी संकोचवश बेंच पर बैठे रहे पर उनका मन एक घायल परिंदे की तरह छटपटा रहे थे। अंश को उन पर और खुद पर बहुत गुस्सा आ रहा,परसों दादी की बरसी है और वह उन्हें उनकी उस तथाकथित प्रेमिका से मिलवाने आया है।

“छि: …!”

मन न जाने क्यों कसैला हो गया। तभी ए सी टू के गेट पर एक आकृति उभरी। अधकचरे बालों, चेहरे पर गंभीरता का आवरण ओढ़े ग्रे कलर की कॉटन साड़ी की पटली को संभालती एक महिला गेट पर खड़ी प्लेटफार्म की ओर बड़ी शिद्दत से देख रहे थी शायद वही थी। दादा की वह अप टू डेट प्रेमिका… दादा की उम्र की ही थी। दादी तो बाबा से तीन साल छोटी थी पर वक्त के साथ उम्र का असर उन पर इतना अधिक हो गया था कि कभी-कभी लगता वह दादा से बड़ी है। सच कहते हैं लोग जिम्मेदारियाँ इंसान को बूढ़ा कर देती हैं और मोहब्बत हमेशा जवान रहती है। दादाजी की आँख के जुगनू चमक उठे। यकीनन वही थी,उस अधेड़ महिला ने सधे हुए हाथों से गेट के बगल में लगे पाइप को पकड़ा और ट्रेन से नीचे उतर आई। प्लेटफार्म पर लगी घड़ी को तरफ देखते हुए उसकी नज़रें बेचैन हो रही थी। कुल जमा 20 मिनट थे उनके पास…एक पल को लगा मानो कुछ छूट रहा हो छूट ही तो गया था।

दादा जी के चेहरे पर एक अजीब सी खुशी थी वह समझ नहीं पा रहा था क्या उसे भी उनकी खुशी में खुश होना चाहिए। अंश के पैर जम गए वह चाहकर भी अपने कदम उनकी ओर बढ़ा नहीं पाया। अंश थोड़ी दूर पर खड़ा हो गया। वह नहीं चाहता था उन दोनों के बीच कोई और आए कोई भी…शायद वह भी किसी की निगाहों का पहरा नहीं चाहते थे शायद इस वक्त अपनी सांसों का भी नहीं…वह अधेड़ महिला चुपचाप दादा जी के बगल में बैठ गई। दादा जी एकटक उन्हें देखते रहे। अंश को इस वक्त उनमें एक प्रेमी के सिवा कोई दिखाई नहीं दे रहा था।

“पहले से भर गई हो तुम…”

“भर नहीं,मोटी हो गई हूँ।”

उस अधेड़ महिला ने कॉलेज जाती लड़कियों की तरह चहक कर कहा

“ये भरा हुआ तन और बालों की चांदनी तुम पर अच्छी लग रही है।”

वह मुस्कुरा कर रह गई,शायद उन्हें अपनी गलती का भान हो गया था,उम्र के इस पड़ाव पर बचपना उन पर जँचता नहीं…उन दोनों की बातचीत के अंश उसके कानों में पड़ रहे थे।

“कैसी हो तुम?”

“जैसा तुमने छोड़ा था…”

दादा जी के महिला मित्र का स्वर तल्ख हो गया।

“रमेश से पता चला पिछले साल तुम्हारी पत्नी नहीं रही। सुनकर बड़ा दुख हुआ।”

“परसों उसकी बरसी है। खैर छोड़ो… तुम्हारा परिवार कैसा है?”

“माँ-बापूजी नहीं रहे। भाइयों ने घर बसा लिया उनकी अपनी गृहस्थी हो गई।”

“और तुम तुम्हारे पति और बच्चे…?”

“मेरी शादी नहीं हुई। किसी को मैं पसंद नहीं आई।”

वो ठठा मारकर हँस पड़ी,दादा जी उन्हें आश्चर्य से देखते रहे

“किसी को तुम पसंद नहीं आई या तुमने किसी को पसंद नहीं किया।”

न जाने क्यों अंश को दादी का मासूम चेहरा याद आ गया।

“तुम्हारे दादा के जीवन में आज तक राज कर रही हूँ…राज!”

दादाजी की वह तथा कथित प्रेमिका मुस्कुरा दी, उस मुस्कुराहट में न जाने कितने दर्द छिपे हुए थे। एक अनकहा लम्बा इंतजार जो कभी खत्म नहीं हो पाया। दादा आज पूरी तरह से खाली हो चुके थे। पत्नी की नजर में वह कभी पूर्ण नहीं थे। आखिर गलत कौन था दादा, दादी या उनकी प्रेमिका या फिर वक्त…! शायद वक्त ही, क्योंकि उससे यह सवाल करने वाला कोई नहीं होता। दुनिया में न जाने कितने रंग थे पर उनकी जिंदगी सब कुछ होकर भी बेरंग बनी रही। दोनों चुपचाप बैठे रहे, वर्षों-वर्ष जिस पल का इंतजार किया था वह अचानक से भारी लगने लगा था। वह अधेड़ महिला अपनी सीट से उठी और एक फीकी मुस्कान के साथ बोली

“चलती हूँ, अपनी सेहत का ध्यान रखना।”

दादाजी सर झुकाए बैठे रहे। आज उनसे ज्यादा हारा हुआ व्यक्ति शायद कोई नहीं था। ट्रेन धीरे-धीरे खिसकने लगी,प्लेटफॉर्म छूटने लगा। उस अधेड़ महिला का हिलता हुआ हाथ अब आँखों से ओझल हो चुका था।

अंश को अचानक अशआर याद आ गया,

“अब के हम बिछुड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिले,

जिस तरह सूखे हुए किताबों में मिले…”

अंश की नजर सामने चमक रहे चाँद पर गई जो औरों की तरह रेलवे स्टेशन पर आते-जाते यात्रियों को देख-देख अब थक चुका था और एक पल को लगा मानो उस विशाल पेड़ की टहनी पर थक कर बैठ गया हो। ट्रेन ने रफ़्तार पकड़ ली और अपनी मंजिल की ओर बढ़ गई।



 

लेखक परिचय – रंजना जायसवाल

 

विधायें - लेख,लघुकथा,कहानी,बाल कहानी,कविता,संस्मरण और व्यंग्य

स्वतंत्र लेखन,राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ नियमित रूप से प्रकाशित होती रहती  हैं।

 दो कहानी संग्रह,एक साझा उपन्यास,एक साझा बाल कहानी संग्रह,एक साझा कविता संग्रह,छः साझा लघुकथा संग्रह,दो साझा व्यंग्य संग्रह,दो साझा आलेख संग्रह, सोलह साझा कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। लगभग 450 राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी,लेख,व्यंग्य,कविता,बाल कहानी,लघुकथा और संस्मरण प्रकाशित हो चुके हैं।

कई कहानियों का उर्दू,अंग्रेजी,गुजराती, उड़िया,नेपाली और पंजाबी में अनुवाद हो चुका है।

आकाशवाणी वाराणसी, दिल्ली एफएम गोल्ड, रेडियो जंक्शन ,मुंबई संवादिता,बिग एफ एम से नियमित रूप से कहानियों का प्रसारण। नीलेश मिश्रा की मंडली में लेखक के तौर पर कार्यरत

भारत सरकार के सांस्कृतिक मंत्रालय, साहित्य अकादमी (आज़ादी का अमृत महोत्सव) द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में निर्णायक मंडल में ज्यूरी के रूप में शामिल 

उत्तर प्रदेश के सांस्कृतिक मंत्रालय और कालांतर संस्था द्वारा आयोजित कहानी और कविता प्रतियोगिता में प्रथम और तृतीय पुरस्कार से सम्मानित

सुप्रसिद्ध बेवसाइट गद्य कोश, स्त्री दर्पण और हिन्दवी में अपना एक पेज

राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका गृह लक्ष्मी में कवर पेज पर आने का मौका प्राप्त हुआ है।

अरुणोदय साहित्य मंच से प्रेमचंद पुरस्कार

जयपुर साहित्य  सम्मान  श्रेष्ठ कृति सम्मान से सम्मानित

साहित्यिक संघ वाराणसी द्वारा साहित्य सेवक श्री का सम्मान

अंतराष्ट्रीय संस्था ब्रह्मकुमारी द्वारा नारी भूषण से सम्मानित

अंतराष्ट्रीय संस्था इनर व्हील क्लब द्वारा साहित्य श्री से सम्मानित

लघुकथा साहित्य मंच द्वारा कमल कथा रत्न से सम्मानित

क़लम हस्ताक्षर मंच के 2021-22 के वार्षिक सम्मान में सशक्त लेखिका कलम सम्मान से सम्मानित

जयपुर साहित्य संगीति द्वारा श्रेष्ठता अलंकरण पत्र हेतु चयनित विशिष्ट श्रेष्ठ कृति हेतु सम्मानित

सोशल कॉफी कैफ़े द्वारा सशक्त कलमकार के रूप में सम्मानित

डॉ. रंजना जायसवाल

लाल बाग कॉलोनी

छोटी बसही

मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश

पिन कोड 231001

मोबाइल न-9415479796

Email address- ranjana1mzp@gmail.com


 
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