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संजय सिंह

लॉकडाउन



आपको कोविड19 लॉकडाउन के तनाव की जाने कितनी कहानियाँ सुनने को मिलें, जैसे कि शराब नहीं मिलने से आठ लोगों ने आत्महत्या की, दिल्ली से हजारों मजदूर पैदल गाँव चले आए ...

लेकिन मैं आपको पाँच पागलों की कहानियाँ सुनाऊँगा ताकि जिन्दगी का मोल समझ में आए...

उस गाँव में समय-समय पर लोग पागल हुआ करते थे। कोई गर्मी में चप्पल हाथ में लेकर चलता, तो कोई कोट पहन कर निकलता तो कोई जाड़ा में नंग-धड़ंग विचरण करता....

पागलों की भी प्रजातियाँ होती हैं, किसिम-किसिम के पागल। लेकिन कोरोना संकट ने उनकी दिनचर्या बिगाड़ दी थी। उनकी मुक्त आवाजाही पर रोक लग गयी थी। पूरे गाँव में दहशत का माहौल था। लोग काफी डरे हुए थे। चीन से चलकर यह बीमारी आयी थी, किसी को छूओ, तो बीमारी लग जाएगी। बस दूर-दूर रहो। अपने घर में बंद। छूए कि गए। टीवी-रेडियो पर प्रधानमंत्री जी कह रहे थे, लॉकडाउन! लॉकडाउन! सोशल डिस्टेंसिंग । माने दूरी। दूर से गप्प करो!


बिरजू जनम से अध-कपाड़ी। माने आधा पागल। नट्ठा बैल। शादी हुई नहीं। खाना, सोना और काम करना। कोरोना बीमारी की चर्चा से वह परेशान था। इस महामारी, जाने कौन मरे, कौन बचे। वह सोच-सोच कर मन ही मन झुरा रहा था।


पूरे गाँव में हालिया पागलों मे चार लोग थे।

पहला पागल लाखो बाबू, पूछो, "कहाँ से आ रहे हैं बाबा?"

बोलेंगे, "दिल्ली से?"

"कब गए?"

"शाम को ।"

"कैसे?"

"जहाज से"

“टिकट?"

"पास है न।"

मगर कोरोने के हल्ला के दिन से दिल्ली और जहाज के नाम पर भड़क उठते हैं ... "अभी उधर खतरा है... ।"

नेता आदमी थे। उमर और अभाव से पगला गए। गाँव भर के बच्चों से उनकी दोस्ती । बच्चे चिढ़ाते –

सारी दुनिया जेल में

लाखो बाबू रेल में

ईंजन मारे सीटी

बोला, उतरो नीचे टी.टी.

लोग उडावें खिल्ली

लाखो बाबू पकड़ें बिल्ली

वे भी हँसते। ताली पीटते। लोगों को अजीब लगता। दिमाग घसकने से घर के लोगों को शुरू में तो बुरा लगा, पर धीरे-धीरे उनका अख्तियार उठता गया। कितना पीछा करे कोई। फ्री छोड़ दिया, जो करें।


दूसरा पागल बरुन बाबू ।

गाँव भर के बच्चों से दुश्मनी। उन्हें मन-बीमारी लग गयी थी कि कोई अगर उन्हें छूकर भाग जाएगा, तो जब तक वे उसे छू न लें, रात में मर जाएँगे। गाँव के बच्चों और मसखरों को एक खेल मिल गया था। कोई न कोई छू लेता, वे दौड़ते रहते। मगर अब उन्हें भी कोई नहीं छू रहा था। उनको एक और बीमारी थी। रात में नहाने की। लोगों से पूछने की कि मैं बचूँगा कि नहीं?

कहिए, "नहीं। अब आप नहीं बचेंगे।"

बस निहोरा करेंगे, "बोलो दो न, बेटा बचेंगे।"

"अब टाइम हो गया बाबा ..."

"अरे बाप, बोल दो ...”

लोगों को हार कर कहना पड़ता, "आप सौ साल बचिएगा।"

"वाह! वाह हो गया बेटा!"


भोज-भात, जग-जाजन की अलग कहानी।

"ययाति महाराज!"

"कहिए खरदूषण जी!".

"राँची चलिएगा?”

"आप दिल्ली जाते है, एक बार राँची भी जाइए।"

"ऐ! खुसरा! मोबाइल में डाउनलोड कर के काँके फैक्स कर दो बरुन बाबू को..."

"ठहरिए, फोटो खींचने दीजिए," क्लिक!

"घोड़ा का डीम लगाओ बेटा, चौथा नम्बर तुम्हारा ही है।"

"और तीसरा बाबा ?"

"बिरजुआ का..."

"बरुन बाबू तुंमको हमारी उमर लग जाय..."

"क्या बोला रे?"

"पागल!!”


लाखो बाबू हो-हो कर हँसते और कहते, "यही तो असली झमेला है। कोई पागल अपने को पागल नहीं कहता ... पागल कहो तो नाराज हो जाएगा ... भले कपाड़ पर कनफूसियस (कनफ्यूशियस) का कफन बाँध कर चले ... पुराना किस्सा है। बगल के गाँव का नाम नहीं बोलेंगे। गाँव वाले दुश्मनी करेंगे। बाप पागल था। बेटा प्रोफेसर। ले गया इलाज कराने। बस बेटवा को भर्त्ती कराकर गाँव लौट आया। कहावत है - गौनू के लिए गाँब बताह, गाँव के लिए गौनू ... लोग-बाग दौड़े, तो बेटवा को छुडा कर लाया ... "मार ठहाका," जिस गाँव में जितना डॉक्टर, इन्जीनियर, प्रोफेसर उतना पागल ... एक पागल जज का किस्सा जानते हो... अंग्रेजी राज। जज अंग्रेज ... सुबह उठ कर कहता, "आज हम छोड़ेगा," खून केस में भी जमानत दे देता, फिर किसी दिन कहता, "आज बाँधेगा," फुसकाही केस में भी जेल ... वकील साहब लाख दलील दें, वह एक ही बोल बोलता, "बाँधेगा तो बाँधेगा ..." माने लॉकडाउन! सब खेल बन्द! बरुन बाबू रूम से निकलते ही नहीं। चीन के जज कोरोना साहब ने बाँध दिया था! कोरोना के डर से लॉकडाउन में नहीं लॉकर में छिप गए थे। जेल का अपना खेल! माथा नोचिए। हाथ धोइए। लाखो बाबू कहते, "भाइयो, एवं बहनो! कोरोना से बचना है, तो बरुन बाबू की तरह लॉकडाउन का पालन करें ... सोशल डिस्टेंसिंग।"


इधर जब से कोरोना संकट आया था, तीन नम्बर का फ्यूज उड़ गया था। कौन कहता है कि पागलों को चिंता नहीं होती। देश-दुनिया के बारे में वे नहीं सोचते। जैसे चीटियाँ बरसात में जान-माल लेकर भागती हैं, चारों पागल किसी से ज्यादा चिंतित और परेशान। दलान पर बैठे-बैठे लॉकडाउन से उकठ कर अचानक एक रोज उसने कहा, "कक्का लगता है दुनिया अब नहीं बचेगी।"

बिरजू रामसुमेर के छोटे भाई बुचनू का लड़का था। वह दिमाग से कुछ कमजोर था। वे चौंके, "दुनिया काहे नहीं बचेगी बिरजू? इतना प्लेग-हैजा हुआ। दुनिया है कि नहीं?"

"नहीं कक्का, दुनिया नहीं रहेगी।" वह मनहूस होकर बोला,"लाखो बाबू भी चीन को गरिया रहे थे। बरुन बाबू को अब कोई नीं छूता।"

"काहे नहीं रहेगी?" कक्का ने हौसला दिया, उन्हें लगा डर से ये और न पगला जाए, सो बोले, "प्रधानमंत्री की बात मानें लोग। दस-पन्द्रह दिन नहीं मिलें-जुलें। बार-बार हाथ धोएँ साबुन से ..."

"दवा ही नहीं न बन रही है।"

"काहे प्लेग-हैजा की दवा एक दिन में बन गयी?"

"बनी तो।"

"तब तक लोग नहीं मरे?" वे बोले ,"एक दिन में दस-दस लाशों को खींचते थे, वह जमाना, तो और बेकार था, कहीं सड़क-बिजली तक नहीं ... फेंक कर आओ, फिर लाश ..."

"मरे होंगे।"

"फिर दुनिया है कि नहीं?"

"कक्का है दुनिया," वह चिढ़ा, "अभी किसी को कहीं बीमारी हो जाए, तो कोई जा सकेगा? पुलिस मारती है। आदमी चूहा है कि बिल में रहे?"

"मतलब?" कक्का मुसकुराए, "अभी बम गिरेगा, तो बाहर टहलोगे?"

"नहीं, मतलब कुछ नहीं।" उसने कुछ सोच कर कहा,"उधर से आफत अलग से आ रही है।"

"किधर से?" कक्का ने जिज्ञासा की।

"पंजाब दिल्ली से, और कहाँ से?" वह निस्पृह होकर बोला, "शहर से खदेड़ दिया मजदूरों को ... भाग कर आ रहे हैं।"

“तो! वे कहाँ जाएँगे?” उन्होंने सहज भाव से कहा, "उनका घर-बार तो यहीं है।"

"इतने लोगों का पेट भरेगा यहाँ?" इस बार दालान पर एक कोने में बैठे उनके पुत्र भागेसर मास्टर ने कहा, "गाँव में बीमारी लेकर आ रहे हैं, बिरजू ठीक कह रहा।"

"कोरोना रूम में रहेंगे।" मिसरी झा ने कहा। "मगर ई चीन से कहिए मास्टर साहब कि इतना चमगुदड़ी-साँप काहे खाता है। सब बिमारी की जड़ है मीट-मुर्गा, अभक्ष्य भोजन ..."

"चीन तो ठीक है कक्का!" मास्टर ने दुहराया, " लेकिन इटली-अमेरिका की हालत पस्त है, भारत भी नहीं बचेगा। कोरेनटाइन रूम से क्या होगा?"

"दुर! पागल!" कक्का बिगड़े," कुछ नहीं होगा, सब ठीक हो जाएगा। भगवान का नाम लो। जैसे रामायण में राम जी रावण को मारते हैं वैसे ही मोदी जी कोरोना को मार देंगे। थोडा युद्ध चल रहा है..।"


रात के न्यूज में फिर मरीजों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो गयी। बिरजू के चेहरे पर तनाव स्पष्ट दिख रहा था। बैठे-बैठे उसका माथा सनक रहा था। उसके ऊपर वाकई कोरोना का आतंक तारी हो गया था, उसने मन ही मन सोचा भले उसकी शादी नहीं हुई, अभी बाल-बच्चे का भी टेंशन होता।

उसने करवट बदली, तो उसे बेचैनी हुई।

उसने उठ कर एक लोटा पानी पीया । उसका मन हुआ वह कुत्ता-बिल्ली की तरह पुक्का मार कर रोए। मगर उसे बक लग गया। आवाज होगी, तो बाबू और कक्का जग जाएँगे, ....

वह वापस आकर लेट गया।


सपने में उसने देखा कि गिद्ध उड़ रहे हैं। लाशों पर लाशें पड़ी हैं।

पूरी दुनिया सफेद हो गयी है ... फिर उसने देखा, कुत्ते, चील, गीदड़ गिद्ध सब मर गए ... वह भी!

धक से उसकी नींद खुल गयी। पसीना-पसीना हो गया था वह।


लॉकडाउन टूट ही नहीं रहा था।

बिरजू की मन:स्थिति बिगड़ रही थी। बच्चे अलग औना रहे थे। लोगों के सब्र टूट रहे थे, तभी रहीमपुर में एक घटना हो गयी। बाहर से दो मजदूर छुप-छुपा कर आए। जाने कैसे खबर लीक हो गयी। पुलिस एम्बुलेंस लेकर आयी और पट्टी लगाकर पूरे घर के लोगों को ले गयी, गाँववालों की सिट्टी-पिट्टी गुम। लख्खन सिंह के बेटे टिलू सिंह को सरपंच की धमकी मिल गयी थी, ज्यादा उड़नबाद बने , तो पुलिस को खबर होगी! लॉकडाउन तोड़ने वाले को बख्शा नहीं जाएगा।!


एक दिन, दो दिन, तीन, पाँच दस!

बिरजू ने फिर कहा, "कक्का दुनिया नहीं रहेगी। बंदी में ही मर जाएगी।"

कक्का का मूड गरम था। "प्रात: काल भगवान का नाम लेगा अभागा कि माथा चाटेगा, नहीं बचे दुनिया ... राम-राम कर। कक्का को अब क्या देखना है रे...? बक बक! बक बक! कितना बक बक करेगा? नास्तिक!"

वह चुप हो गया। उसे लगा कक्का का भी माथा भ्रष्ट हो गया है। जरूर कोई बात है, बड़ी विपत्ति आने वाली है। अब वह क्या करे! हल्ला है सरपंच पंचायत भवन साफ करवा रहा है। कोरोना वाले मरीज को रखा जाएगा। मगर कक्का कहते हैं, उनका भी गाँव घर है। गाँव घर है, तो यही समय है आने का ... घोर कलियुग!

"कक्का?"

"अब क्या हुआ?"

"सुनते हैं मियाँ लोग बेसी फैला रहे हैं बिमारी।"

"कैसे?" वे फिर चौंके।

"लॉकडाउन में भी पूजा-पाठ कर रहे।"

"तो मरेंगे भी तो वही!"

"नहीं, जिसको भी छूएगा, उसको हो जाएगा।"

"तो बस मोदी जी की बात मानो।"

"माने मियाँ घूमे और हिन्दू जेल में रहे?"

“तुम्हारा माथा घूम गया है क्या, रे?"

"मेरा नहीं, आपका।"

"देखो, बिरजू!" कक्का को फिर गुस्सा आया, "पागल की तरह नहीं करो। लॉकडाउन है। तू कहीं नहीं जाएगा। बथान साफ करो और खुद भी साबुन लगा कर हाथ धोओ।"

वह काम करने चला गया। लेकिन दोपहर बाद दालान से गायब हो गया। कक्का ने इधर-उधर ताका, फिर छोड़ दिया, यह सोच कर कि खैनी-बीड़ी के लिए गया होगा।

दोपहर को गया, वह शाम को लौटा। आँखें लाल। वह दाँत किटकिटा रहा था और बड़बड़ा रहा था, "कक्का दुनिया जब बचेगी नहीं, तो लाओ चमगुदड़ी, लाओ साँप ... मैं खाऊँगा ... लाओ चीन का माल। अब बिरजू नहीं डरेगा। नहीं तो मोरंग से कनिया लाओ। बियाह कराओ मेरा। खेत बाँटो।"

कक्का ने बुच्चन से कहा, "पुराना रोग उखड़ गया इसका।"

मझली रो रही थी, "रे बाप क्या हो गया बेटा को?"

"नाटक कर रहा है हरामी!" बुच्चन बमका। तो लोगों ने पकड़ लिया। वाकई वह झूम रहा था। किसी का कोई डर नहीं, लाज नहीं, "धरती पर पाप बढ़ गया है, भेद-भाव बढ़ गया है, तब यह बिमारी आयी है, इतना रोग का इलाज है, इसका क्यों नहीं? हड़हड़िया डाक, अन्हरिया बज्जड़ गिरेगा।"

"बाँट दीजिए।" फंटूस बोला

"तुम चुप रहो।।" बुच्चन बाबू बमके,"लुट्टन सिंह का यार! चार लप्पड़ में ठीक हो जाएगा। गाजा बोल रहा है तुम्हारा।"

"ऐ! बुच्चन तुम भी धीरज धरो।" कक्का ने सुदर्शन डाक्टर से कहा,"कोई दवा लगाइए डाक्टर साहब!! इस लॉकडाउन में बिरजू क्या, कोई बीमार हो सकता है।" उन्होंने झाँपा, "कई दिनों से मेरा माथा भारी रहता है। जरा सी खाँसी होती है, तो लगता है करोना हो गया। डरा गया है माथा इसका। बेटा मगज स्थिर करो। सब होगा।"

डाक्टर ने कुछ सोच कर दवा दी। नींद की गोली। और कहा, "सोने दीजिएगा। गाछ का धक्का लगा है, लगता है ओवरडोज हो गया है। सुबह तक ठीक हो जाएगा।"

रात देर बाद उसे गहरी नींद आयी, सवेरे उठा, तो कक्का ने कहा, "कैसा है मन बेटा? नींद आयी?"

"हाँ कक्का!" वह कुछ बिसुर कर बोला, "और सब तो ठीक रहा, लेकिन रात में नींद में बरुन बाबू रपेटते रहे छूने को लिए। भागते-भागते बेदम हो गया, फिर बदारी में छिप गया।"

"क्या?" कक्का भभा कर हँस पड़े। फिर बिगड़ कर बोले, "तू आधा पागल था, लगता है सोचते-सोचते पूरा पागल हो गया है। बरुन बाबू तो खुद बदारी में बन्द हैं कोरोना के डर से। तुमको काहै छूएँगे?"

कक्का का बोलने का ढंग उसे अच्छा नहीं लगा। कक्का से उसका लगाव जग-जाहिर था। घर के गाय-माल का ही नहीं, कक्का का भी वही सेवक था। पैर दाबना, पानी देना, धोती फींचना। काकी के मरने के बाद सबसे ज्यादा बिरजू ही उनका खयाल रखता था। लेकिन उसे लगा कक्का के अन्दर विराग फैल रहा है। कोरोना का विराग। कुछ-कुछ पागल भी हो गए है। इस तरह तो पहले नहीं बातियाते थे। वह उदास हो गया। आज से कक्का से गप्प बन्द! वह टोक कर कुबोल नहीं सुनेगा। अपना बजाओ बाजा, खुद खाओ खाजा! हर बात में तू पागल है।

"बिरजू!" कक्का आवाज देते। वह मुँह घुमा लेता।

कक्का लिए नया झमेला। हारकर बोले, "नाराज हो क्या?"

"पागल बोलोगे," वह तिड़का, "और पूछोगे नाराज हो?"

कक्का को हँसी आयी, मगर दाब कर बोले, "अरे तुम को नहीं मालूम ... लॉकडाउन में बोला गया ... चलो बेटा छोड़ो। जरा खैनी काटो कोठरी से निकाल के। अभी एक लोटा पानी लाओ।"

"अपना काटो, अपना लाओ।"

"अरे तूको कोई पागल ही न पागल कहेगा।"

"अब नहीं न बोलोगे कभी?"

"नहीं।" "


रात में दिल से बिरजू का अबोला टूटा, "ई लॉकडाउन कब टूटेगा कक्का? आदमी तो आदमी, गाय-माल भी परेशान हैं। माने माथा खराब हो गया है। जी में आता है एगो लाठी लेकर ई कोरोना अगर नजर आए, तो धुनकी छोडा दें।"

वो वीतराग बने रहे। क्या कहे, टूटे तो क्या, न टूटे तो क्या! उन्हें कुछ समझ में नहीं आया क्या कहे। इस समय तक उनकी बैठकी गुलजार रहती। खैनी, बीड़ी, गुड़गुड़ासे अलाव तक लोग जमे रहते, मगर हालत यह थी कि मिसरी झा भी कई दिनों से कन्नी काट गए थे। सन्नाटा सा पसर रहा था। भीतर-बाहर। उनकी जबान बेआवाज हिलती रही। कब तक ऐसे चलेगा करुणनिधान?

"तुम्हीं से पूछ रहे हैं, कक्का!" कक्का को निर्विकार देख कर उसने कहा। उनका ध्यान भंग हुआ। इस बार बिगड़ने के बजाए वे मोह से देखते रहे उसे। इस जेल से तो उनका भी मन अकछ गया था।

"कुछ बोलो न!"

कुछ पल सोचने के बाद वे बोले, "अब नहीं टूटेगा तो जो भूत तुमको लगा था, वह पूरे गाँव को लग जाएगा।"

बिरजू इस बार भभा कर हँस पड़ा, "माने?"

"वही।"

"क्या?"

"हाँ।"

फिर दोनों चाचा-भतीजा देर तक पागलों की तरह हँसते रहे।

कुछ पल के लिए वे ये भी भूल गए कि कोरोना ने सारी दुनिया की हँसी उनके होठों पर से छीन ली है। आदमी के दिलो-दिमाग पर ताला लटक हुआ है।


 

लेखक परिचय


संजय कुमार सिंह

प्रिंसिपल, आर.डा.एस.काॅलेज

सालमारी कटिहार।

रचनात्मक उपलब्धियाँ-

हंस, कथादेश, वागर्थ, पाखी , साखी, अहा जिंदगी, कहन, किताब, बया, संवदिया, साहित्यनामा, दै.हिन्दुस्तान, प्रभात खबर आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।

9431867283/6207582597

sksnayanagar9413@gmail.com




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