पूरी बस्ती में अफरा तफरी मची है। सब अपना अपना सामान सकेल रहे हैं। आज के आज निकलना है उन्हें। जाना है अपने गाँव। बीमारी हारी में अपना गाँव घर ही याद आता है। फिर ये तो बीमारी नहीं महामारी है। सब लोग डरे हुए हैं। शुरू में वे भी बीमारी से डरे थे ;मगर फिर भूख ने बीमारी को पछाड़ दिया? अब उन्हें बीमारी से नहीं भूख से मरने का डर है। जब मरना ही है तो क्यों न अपने गाँव में मरें,अपनों के बीच। यही सोच कर वे जाने की तैयारी कर रहे हैं।
संतू भी जाना चाहता है। उसने बुधिया से सामान सकेलने को कहा ; मगर बुधिया? वह समझ नहीं पा रही थी कि इतनी जल्दी में क्या बटोरे और क्या छोड़े। उसे सामान की उतनी फ़िक्र नहीं थी,फ़िक्र थी तो दाई (माँ) और छोटकी की। छोटकी - एक तो दुधटूटही,उपर से कमजोर। ‘ अभी अभी तो बेमारी से उठी है। कमजोरी अतना कि खड़ा भी नहीं हो पाती और दाई (माँ ) भी तो अब छोटकी जैसी हो गई है और उपर से ये..। ’ सोचते हुए उसकी नजरें अपने पेट पर जा ठहरीं। बुधिया को आठवाँ महीना चल रहा है। अब उठने बैठने में भी तकलीफ होने लगी है। ‘ ऐसे में गाँव जाना। वह भी बस में। ‘ वह कुछ देर सोचती रही। फिर सामान समेटने लगी।
अचानक आई इस बीमारी और इससे उपजे लाकडाउन ने उनकी बस्ती को परेशान कर दिया था। वे समझ ही नहीं पा रहे थे कि आखिर करें तो क्या? इस परदेश में, इस तरह अचानक हुई तालाबंदी ने उन्हें किंकर्तव्य विमूढ़ कर दिया था? प्रधान मंत्री कह रहे थे,सब अपने घर में कैद हो जाएँ। कोई बाहर न निकले ; मगर उनके पेट? पेट को तो रोटी चाहिए थी। पर रोटी अब थी कहाँ? अब तो न यहाँ रोजी थी और न ही रोटी। उनकी रोटी भी तो लाक हो गयी थी इस लाकडाउन में। लाकडाउन होते ही आनन फानन में सब कुछ बंद हो गया | सरकार ने लोगों से चिरोरी तो की, कहा कोई किसी की तनख्वाह न काटे। तनख्वाह यानी नौकरी। यानी एक स्थाई काम और उनका काम? वह तो स्थाई था ही नहीं। वे दिहाड़ी मजदूर थे। दिहाड़ी यानी हर दिन नया काम,नये मालिक। सो बुधिया और संतू के मालिक ने साफ़ कह दिया -
“ देखो भाई तुम लोग अपना पुराना मजूर तो हो नहीं। अभी काम करते महीना भी तो नहीं बीता है। ऐसे में हम तुम्हारा जिम्मा नहीं ले सकते। तो ये लेव कुछ पैसा ; ये ही से अपना काम चलाओ। ”
फिर उनकी ह्थेली पर रख दिए थे कुछ नोट, जो उनकी रोजी जितने भी नहीं थे। वे हतप्रभ! एक ओर तो सरकार बिना काम के पैसे देने की बात कर रही है और यहाँ? यहाँ तो अपने ही पैसे नहीं मिल रहे! उनकी आँखों में उभरे ये सवाल जुबाँ पर आ पाते उससे पहले-
“ भइये हमको ऐसे मत देखो। हम तुम्हारा रोजी हड़पेगा नइ। बस दुइ दिन की मोहलत दे दो। हम तुम्हारा पाई – पाई का हिसाब करूँगा। “
विश्वास तो करना ही था। किया भी ; मगर जब बकाया लेने गये, तो वहाँ भी लाक। वह कुठरिया,जिसे वे आफिस कहा करते थे, वह तो रातों रात खाली की जा चुकी थी। बैठ कर खाने से तो खजाना भी खत्म हो जाता है। फिर उनके पास तो कुछ रुपये ही थे? सो जो रूपये मिले थे खत्म हो चले। उधर झुग्गी के मालिक का दबाव था कि महीना भर का एडवांस दो,नहीं तो झुग्गी खाली कर दो। ऐसे में आज बस की खबर से उन्हें आस का एक तिनका मिला। सो संतू नहीं चाहता था कि वो तिनका हाथ से छूटे।
संतू ही क्यों,उस झोपड़ बस्ती का कोई भी व्यक्ति नहीं चाहता था,यह अवसर चूके। बस्ती का हर आदमी इसी फ़िराक में था कि कैसे भी वह बस तक पहुँच जाए। सो जरूरी सामन ले आनन फानन में सब निकल पड़े। उसके गाँव का सुकालू तो था ही। आस – पास के गाँव के कई लोग थे। वे सब जैसे – तैसे बस स्टेंड पहुँचे ; मगर वहाँ तो जन कुंभ लगा था। उस रेले को चीरकर जैसे – तैसे बस तक पहुँचे,तो पता चला कि वह उनके लिए नहीं यू पी वालों के लिए है। ‘ अब क्या करे? इस भीड़ से कैसे बाहर जाये? ’ संतू सोच ही रहा था कि – “ चलव हटव यहाँ से। “कहते हुए कुछ लोगों ने उसे इतनी जोर से पीछे धकेला कि वे सब तितर बितर हो गये। इसी आपा धापी में उससे दाई (माँ ) का हाथ छूट गया और वह औंधे मुह गिर पड़ा। दाई उसकी ओर लपकीं ; मगर भीड़ ने उन्हें और दूर ठेल दिया। वे चिल्लाती रहीं – “ रुको! रुको मोर बेटा ...। “पर भीड़ के कान कहाँ होते हैं। सो वे चिल्लाती रहीं और रेला गुजरता चला गया।
बहुत देर बाद उन्होंने देखा वे फुटपाथ पर थीं। “तुंहर दमाद कहाँ हे? लगता है गुटका के जुगाड़ में कहीं ....। “ कहती बुधिया की आँखें उसे तलाशने लगीं? और वे? उन्हें तो याद ही नहीं था कि वे कब और कैसे फुटपाथ पर पहुँचीं? कि बुधिया उस रेले से कब और कैसे बाहर आई? वे फटी – फटी आँखों से उस ओर देखे जा रही थीं,जिधर कुछ देर पहले जन सैलाब उमड़ रहा था और उस सैलाब में संतू ....मगर अब वहाँ कोई नहीं था, न वह सैलाब और न संतू। बुधिया की नजरें उसे लगातार ढूंढे जा रही थीं। फिर-“ दाई तू यहीं रुकना मैं उसको खोज के लाती। “ कहती बुधिया उठने लगी तो दाई ने उसका हाथ पकड़ लिया और फफक फफक कर रोने लगीं। बुधिया ने समझा शायद वे इस भीड़ से डर रही हैं। सो उसने दिलासा दी – “ रो झन मैं उसको खोज के अब्भी आती। “ उसने हाथ छुड़ाना चाहा, तो उनकी पकड़ और कस गयी। उनके ओठ तो हिले ;मगर शब्द जैसे हेरा गये थे। उन्होंने जैसे तैसे शब्दों को बटोरा और “बेटी संतू ल भीड़ लील ...। “ और वे बुधिया की गोद में मुह छुपाकर फफक पड़ीं।
बुधिया? वह देर तक कठुआई सी बैठी रही फिर बुक्का फाड़कर रो पड़ी। माँ को रोता देख बच्ची भी रोने लगी थी। सो अब वहाँ रुदन ही रुदन था ;मगर सांत्वना देने वाला कोई नहीं। देर तक रो लेने के बाद उसे ध्यान आया कि संतु की लाश ....और वह चल पड़ी। आँसुओं से धुँधवायी आँखों से वह उसे तलाशती रही;मगर कुछ भी ऐसा नहीं मिला जिससे दाई की बात साबित होती। सो उसके मन में आस सी बधी और उसकी नजरें उसे जीवित लोगों के झुंड में तलाशने लगी,तभी उसके पैरों से कुछ टकराया। देखा तो नजरें चिपक कर रह गयीं। एक शर्ट का चीथड़ा उसके पैरों में बेतरह कदर उलझ गया था। वह झुकी और उसे देखते ही चीख पड़ी। फिर “ हाय रे मोर जोड़ी? “ वह दहाड़ मारकर रो पड़ी।
वह संतु के शर्ट का चीथड़ा था और उस चिथड़े में लिपटा माँस कह रहा था कि शर्ट की तरह संतु के भी.... उसे रोता देख कुछ लोग जुट आये। उन्हीं में से एक ने उसे बताया कि देह इतनी बुरी तरह से कुचल गयी थी कि ..। लोगों ने पूछताछ भी की जब कुछ पता नहीं चला तो मुंस्पालटी वाले उसे बटोर ले गये। “ वह उसकी शर्ट को सीने से लगाये रो रही थी। देर तक रोती रही? रोते रोते गला रूँध गया था। फिर भी वह ही रोती रही,जाने कब तक। फिर उठी और चल पड़ी और दाई को देखते ही दौडकर उससे लिपट गयी। फिर तो रुलाई का रेला ही छूट पड़ा। एक दूसरे से लिपटी वे दोनों देर तक रोती रहीं। उन्हें बच्ची का भी ध्यान नहीं रहा। ध्यान तब आया जब उसकी चीख कानों से टकराई। वह उससे लिपटने की कोशिश में फुटपाथ से गिर गयी थी। बुधिया ने उसे उठाकर सीने से लगा लिया और और जोर से रोने लगी। रात हुई और गहराने लगी। ही वह रोती रही ;पर आँसुओं की भी एक सीमा होती है। सो आँसू सूख गये थे ;मगर वह रोये जा रही थी। उसका मन छटपटा रहा था। संतु की इस दर्दनाक मौत के लिए वह खुद को दोष दे रही थी। पछता रही थी अपने उस फैसले पर जब यहाँ ..। ‘ मगर मैं क्या करती? कोई दुसर उपाय भी तो नहीं था। ’ सोचते हुए उसकी नजरों में विगत उतर आया .....
उसका अपना गाँव चिरई डोंगरी। अपने नाम को सार्थक करता, चिड़ियों की चहचह से गुलजार रहा करता। तरह तरह चिड़िया आया करती थीं दाना चुगने। दाने की कमी भी कहाँ थी उस गाँव में। जवा फूल, विष्नु भोग और काली मूछ जैसे खुशबूदार धान से ही तो पहचान थी उस गाँव की। धान का कटोरा को सार्थक करते उसके गाँव में कोई कमी नहीं थी। बुधिया और संतू की रोजी भी चल जाती थी। उसका गाँव बहुत खुशहाल था ; तभी तो दूसरे गाँवों की तरह यहाँ पलायन की नौबत नहीं आती थी ; मगर उसकी ख़ुशहाली के सूरज को ऐसा ग्रहण लगा कि ...? बुधिया को याद आये वे लोग, जो आये थे उन्नत बीज लेकर ;उनका दावा था कि उनके बीज से फसल दो गुनी हो जाएगी। गाँव वालों ने मना भी किया ;मगर जब सरपंच ने उसकी तरफदारी की, तब वे मान गये। पहले साल फसल बढ़ी भी ;मगर बीज? बीज के काबिल ही नहीं था वह धान। सो एक अंकुर भी नहीं फूटा और थरहा के लिए बोया गया सारा बीज बेकार गया। हारकर लोगों ने फिर उन्हीं से बीज खरीदा।
बोउनी देरी से हुई, तो फसल भी कम हुई। फिर तो उन्होंने बीज के दाम भी बढ़ा दिए। अब तो मुश्किल से घर का खाना खर्चा चल पाता। फिर देखते ही देखते गाँव की खुशहाली बदहाली में बदलने लगी,तो लोगों ने उनसे बीज लेने से मना किया ;मगर उन्हें मना करने का अधिकार ही कहाँ रह गया था। उनके सामने आया था वह कागज, जिसके अनुसार वे एक ऐसे अनुबंध में जकड़े जा चुके थे, जिससे दस साल तक छुटकारा सम्भव ही नहीं था। सो दस साल तक उन्हीं से बीज खरीदने की मजबूरी थी। उनके साथ धोखा हुआ था और उस धोखे में शामिल था उनका अपना सरपंच। विश्वासघात किया था उसने। फिर कर्ज के चलते लोगों के खेत बिकने लगे और जब खेत ही नहीं रहे, तो मजदूरी कैसे चलती। सो लोग पलायन को विवश हुए। उसके गाँव के सब लोग इलाहाबाद जा रहे थे। वहाँ के ईंट भट्ठों में मजदूरी भी अधिक मिलती थी ;मगर संतू जाना नहीं चाहता था। वह सबसे कहता “ अपन देस राज अपने होता है। नून रोटी खायेगे फेर परदेस नइ जायेंगे। “ बुधिया ने सरपंच के खेत का और दाई ने उनके घर का काम तो पकड़ ही रखा था। मनरेगा में उसकी मजदूरी भी चल निकली थी। सो उसे बहुत चिंता नहीं थी। फिर धीरे – धीरे मनरेगा में भाई भतीजावाद आने लगा। फिर भी वे गुजर करते रहे ;मगर जब सरपंच का परिवार शहर में जा बसा, तो बुधिया और दाई का काम ही छूट गया। सो मजबूर होकर उन्होंने इलाहाबाद का रुख किया। अब संतू और बुधिया भट्ठे में काम करते और दाई डेरे पर रहकर बच्चे को सम्हालतीं। भट्ठे में मई तक ही काम होता। फिर बरसात में भट्ठा बंद हो जाता और वे सब गाँव लौट आते। चार महीने की बेकारी रहती ;मगर जिन्दगी कटने लगी थी। फिर सुकालू से पता चला कि दिल्ली में रोजी भी दुगनी है और बारहों महीने काम भी मिलता है। “ वहाँ रहेगा तो दू पइसा बचा लेगा। “उसने दिल्ली के जीवन का ऐसा ताना बाना बुना कि संतू की आँखों में कई सपने कुनमुना उठे। एक नन्हा सा सपना बुधिया की आँखों में भी उतरा, अपने खेत का सपना और मजदूर से किसान बनने के उस सपने के साथ उसने दिल्ली जाने का मन बना लिया। वे चल पड़े थे दिल्ली की ओर। सुकालू की उस बस्ती में किसी तरह वे भी अट गये।
सचमुच काम और दाम की कमी नहीं थी दिल्ली में। अब मैट्रो संग दौड़ती दिल्ली उनके भीतर दिल बन कर धड़कने लगी थी और कुनमुनाते सपने जाग उठे थे। उन सपनों में नहीं थे क़ुतुब मीनार और लाल किला। उनके सपनों में शामिल नहीं था करोलबाग। अट्टा ही था उनके जीवन का आधार। फिर भी अपने सपनों को सहलाते बहुत खुश थे वे। वह कहाँ जानती थी कि यहाँ आकर जिन्दगी हाथ से ऐसे फिसल जायेगी कि ..! ‘ सोचकर उसकी आँखें फिर बरसने लगीं। रोते रोते न जाने कब आँख लग गई। जब आँख खुली तो दिन तो निकल आया था ;मगर रोशनी? रौशनी देने वाला सूरज तो बादलों में छुपा हुआ था। जैसे वह भी लाकडाउन में हो। रात को सब भूखे ही सो गये थे ;मगर भूख भला कब तक ठहरती? सो छोटकी तो उठते ही खाना माँगने लगी। वे इतनी लकर धकर में निकले थे कि राह के लिए, कुछ पकाने का मौका ही नहीं मिला। बस थोड़ा सा भात था जिसे वह साथ ले आई थी। भात में पानी डालकर उसे खिलाया। दाई को दिया। उसने भी कुछ नहीं खाया था। सो पेट का बच्चा भी पेट में अड़ गया,तो न चाहते हुए भी दो कौर अपने मुँह में डाला। सुबह खाना बाँटने वाले भी आये थे ; मगर लोग अधिक थे और खाना कम। सो उसके हिस्से कुछ भी नहीं आया। दिन चढ़ने लगा। लोग अपने सफर पर निकल रहे थे ; मगर वह? ‘ का करूं मैं? अकेल्ला कैसे जाऊँ अतना दूर?’ वह सोच रही थी कि–
“अरे लोग तू यहाँ बैठी है।चल जल्दी कर हम सब झन जा रहे हैं।“
“ कइसे? “
“बस अइसने पइदल ही। “ सुकालू ने साथ चलने को कहा ; मगर उनके लिए रुका नहीं और न ही संतु का जिक्र किया। सुकालू जानता था संतु के चले जाने का दर्द बुधिया को कमजोर करेगा। बुधिया की आँखें आँसूआ आयीं ;मगर उस फुटपाथ पर कब तक रहती।’ सो बुधिया ने अपने को समेटा और चल पड़ी उनके पीछे।
वे सब पैदल ही चल पड़े थे अपने गाँव की ओर। उन्हें नहीं मालूम था कि उनका गाँव कितनी दूर है। वे यह भी नहीं जानते थे कि कब पहुँचेंगे अपने गाँव ; मगर चलते जा रहे थे लगातार। चलने के सिवा कोई उपाय ही कहाँ था उनके पास। जिस महामारी के खौफ से सारी दुनिया अपने घरों में कैद थी,उन्हें उसकी कोई फ़िक्र ही नहीं थी। उन्हें फ़िक्र थी,तो बस रोटी की। जितना अनाज उनके पास था, वह अब चुक गया था। कुछ पैसे जरूर थे ; मगर उनका होना भी बेकार था। रास्ते में मिलने वाली सभी दुकानों पर ताला लटक रहा था ; मगर भूख? भूख पर ताला तो लगता नहीं। सो आकुल व्याकुल से वे दूँढ़ रहे थे कि कुछ तो मिल जाय, जिससे अपनी भूख मिटा सकें ;मगर दूर दूर तक ऐसा कुछ भी नहीं था कि वे अपनी भूख मिटा पाते। बुधिया की गोद की बच्ची भूख से रोते रोते ऐंठ गयी थी और पेट का बच्चा उसे चलने नहीं दे रहा था। दाई भी पस्त हो चली थीं। ‘ पहिली वाला समे होता,तो सड़क किनारे आम,इमली और बेर तो मिल जाता। फेर अब तो फर वाला रुख – राई सब खतम। ’ सोचतीं उसकी नजरें चौड़ी सड़क पर जा ठहरीं और मन से एक आह सी निकल पड़ी। भूख से अकुलाई उसकी नजरें तलाश रही थीं कि कुछ तो ऐसा मिले कि ...। तभी उसे सड़क से दूर कुछ घर नजर आये। मन में एक आस सी जगी और वे सब उधर ही चल पड़े ; मगर घर उतने पास नहीं थे,जितने लग रहे थे। सो वे जितना आगे चलते,वे घर उतने ही दूर होते जाते।
दूर तक चलने के बाद उस गाँव में पहुँचे। वे वहाँ पहुँच तो गये थे ; पर खाना कैसे माँगते? मेहनतकश थे। जाँगर पैर कर रोटी कमाते थे, तो माँगने की हिम्मत नहीं जुट रही थी। पेट की भूख और बैसाख की धूप से बेहाल वे एक परछी में बैठ गए। बुधिया के बैठते ही छोटकी फिर रोने लगी। उसका रोना सुन एक बूढ़ी अम्मा बाहर आईं। उन्होंने छोटकी की ओर देखा। फिर उनकी नजर बुधिया पर पड़ी और बुधिया के कुम्हलाये चेहरे से होकर उसके पेट जा ठहरी। कुछ देर वे देखती रहीं। फिर भीतर चली गयीं और जब बाहर आयीं,तो उनके हाथ में दो रोटियाँ थीं। रोटी देखते ही छोटकी ने झपट कर रोटियाँ पकड़ ली। अब वह किसी को रोटी देने को तैयार ही नहीं थी।
“तू इसको रोटी से भुलियार मैं चहा बना कर लाती। “ कहकर वे भीतर गयीं और लोटा भर काली चाय बना लाईं। बुधिया ने रोटी को हाथ लगाया तो छोटकी ने रोटी अपने पीछे छुपा ली। बुधिया ने थोड़ी जबरदस्ती की तो वह जोर – जोर से रोने लगी।
“थामा थामा मी आती “कहकर बूढ़ी अम्मा फिर भीतर चली गईं।
बहुत देर बाद जब वे बाहर आईं,तो उनके हाथ में बड़ी सी डेकची थी,उन्होंने उसे कपड़े से पकड़ रखा था। डेकची उनके सामने रख वे फिर भीतर गयीं और एक कटोरा लेकर बाहर आईं। उसमें लाल मिर्च और लहसुन की चटनी थी।
” जाओ मेरा बाड़ी से केला का पत्ता तोड़ लाओ। अब एतना थाली नई न मेरा पास।” उन्होंने कहा।
कुछ लोग उठे और झटपट केले के पत्ते ले आये। वो चटनी और भात उनके लिए अमृत से कम नहीं था। छोटकी सी – सी करती मिर्च की चटनी संग भात खाती रही। उसकी आँख नाक से पानी बहता रहा ;मगर उसने रोटी को छुड़ाने पर भी नहीं छोड़ा। फिर बूढ़ी अम्मा ने ही उन्हें बताया कि वहाँ से एक रास्ता सीधे गोंदिया को जाता है। उस रास्ते से वे जल्दी पहुँच जायेगें। पेट में अन्न पड़ा तो आलस ने भी घेरा ; मगर उनकी जिंदगी के इस लाकडाउन में आलस के लिए जगह ही कहाँ थी .सो वे फिर चल पड़े। यह मुख्य मार्ग नहीं था। सो सड़क भी वैसी नहीं थी। कहीं – कहीं तो सड़क का अस्तित्व ही नहीं बचा था। सो गहरे गड्ढों और बड़े – बड़े बोल्डरों को लाँघते फलाँगते चल रहे थे वे। यह रास्ता बहुत बीहड़ था। चलने में बहुत दिक्कत हो रही थी। खासकर बुधिया को। आठ महीने का पेट। उस पर दाई और छोटकी। छोटकी को लादकर चलना तो दूभर ही था ;मगर चलना तो था। जब से रोटी मिली थी,वह किसी की गोदी में जा ही नहीं रही थी। शायद रोटी छिन जाने का भय था उसे। सो बुधिया से ही चिपटी हुई थी।
लगातार चलते हुए बुधिया की हिम्मत जवाब देने लगी थी। उसके पैर लड़खड़ा रहे थे। लग रहा था कि अब गिरी की तब। फिर भी चलती जा रही थी। वे कुछ दूर ही चले थे कि एक नदी सामने आ पड़ी। नदी में पानी तो नहीं था ;मगर वह गहरी बहुत थी और सड़क यहीं तक जाकर ठहर गयी थी। नदी पर न तो कोई पुल,न ही उतरने की राह। अब अपनी राह खुद ही बनानी थी। सो कुछ ढाल देखकर वे नदी में उतर गये। पथरीली नदी, गहरे गड्ढों और ऊँची - ऊँची चट्टानों से भरी हुई। बड़ी मुश्किल से कदम जमाने की ठौर मिलती। नदी पार करते - करते शाम घिर आयी थी। राह अब और भी बीहड़ हो चली थी। लग रहा था जैसे वे अभी भी नदी में ही चल रहे हों। तभी उन्हें पटरियाँ दिखाई दीं और –
“सुनो न जी! ये रसदा में बहुते गड्ढा है। “ थोडा देर में अंधियार भी हो जाएगा। फेर तो चलना भी मुसकुल होगा। तो चलो न वो पटरी के रसदा पकड़ के चलते हैं .” सुकालू ने कहा .
“ हाँ जी! सही कहे। अभी लोकडाउन म रेलगाड़ी भी बंद है। तब तो कोनो खतरा भी नइ है। “किसी दूसरे ने समर्थन किया।
वे सड़क छोड़कर पटरी पर आ गये। अब पटरी पर चलना कुछ आसान हो गया था। सो वे जल्दी जल्दी चलने लगे। रास्ते में एक छोटा सा स्टेशन आया। स्टेशन तो सूना था ;मगर पानी का जुगाड़ हो गया था। पानी पीकर वे आगे बढ़ चले। अब रात अपने पैर पसारने लगी थी ;मगर उनके कदम बढ़ते ही जा रहे थे।
“ सुनो न जी! आघू कोई स्टेशन आएगा,तो वहाँ रात रुक जायेंगे का? अब रेंगत नइ बनत हे। “ बुधिया ने कहा।
” हाँ ये ठीक रहेगा। आघू जो भी स्टेशन आएगा,हम उहें रुक जायेंगे “ सुकालू ने समर्थन किया।
वे लगातार चल ही रहे थे। सब थकन से बेजार थे,तो यह बात सभी को जम गयी। वैसे भी सुकालू अब इस दल का नेता जैसा हो गया था। अब उन्हें किसी स्टेशन के आने का इंतजार था ;मगर दूर तक चलने के बाद भी स्टेशन की सुगबुग तक नहीं मिली। उनके कदम उठ ही नहीं पा रहे थे। धरती से ऐसे चिपके जा रहे थे,जैसे लासा लगा हो। फिर भी वे चल रहे थे ;मगर कब तक? चलने की भी एक सीमा थी और बुधिया? उसकी तो हिम्मत ही जवाब दे चली थी।
“ अब मेरे से नइ रेंगा जाता। “ कहा और वहीं पटरी पर बैठ गयी।
बाकी लोग भी थके तो थे ही। सो सब वहीं पटरी पर फ़ैल कर बैठ गये। लाकडाउन में ट्रेने तो बंद ही थीं। सो ट्रेन का डर तो था ही नहीं। कुछ देर आराम करके आगे बढ़ लेंगे। ‘ सोचकर वे वहाँ बैठे थे ;मगर देह जब निढाल होने लगी तो धीरे – धीरे पसरते चले गये।गहराती रात के साथ हवा में ठंडक और थकन के चलते जल्दी ही नींद ने आ घेरा। वे सब सीमेंट की कठोर पटरियों पर ऐसे सो रहे थे ; मानो वह सेमल की रुई का बिछावन हो। पहाती रात में बुधिया की नींद उचटी,तो पेंडू में कुछ दर्द सा महसूसा। उसे लगा शायद दिशा मैदान जाने का दर्द है।वह उठ गयी। उसने देखा उजली रात की झरती चाँदनी में सब बेसुध सो रहे थे। चाँदनी रात का उजाला तो था ही, तो उसने दाई को भी नहीं जगाया। बस छोटकी को उनके और करीब कर दिया कि वो जागे तो डरे नहीं। फिर उसे देखा उसने।अभी भी हाथों में रोटी को कसकर पकड़ रखा था उसने। वह कुछ देर छोटकी को ही देखती रही।फिर प्लास्टिक की बोतल उठाई और चल पड़ी।
पटरी के किनारे ही घनी झाड़ियाँ थीं। सो वह उनके पीछे जा बैठी ;मगर निपट लेने के बाद फिर दर्द उठा। अबकी वह दर्द देर तक घुमड़ता रहा। अब उसे आशंका हुई कहीं कि यह दर्द जचकी का न हो और वह उठ पड़ी ;मगर दो कदम चलते ही इतना तेज दर्द उठा कि वह वहीं बैठ गयी। फिर तो दर्द की आवृति बढने लगी,तो उसने सोचा दाई को आवाज दे। वे इनमें से किसी औरत को जगा देंगी,तो उसे कुछ सहारा मिल जाएगा। उसने आवाज देने के लिए मुह खोला ही था कि तभी धरती थरथरा सी उठी। उसे लगा भूकंप आ गया। फिर वह थथराहट उसकी देह में उतरने लगी और पलक झपकते ही एक ट्रेन पटरी से गुजर गयी। बुधिया का मुह खुला का खुला रहा गया। वह देर तक मुह बाए खड़ी रही। फिर दौड़ पड़ी।उसकी आँखें छोटकी को ढूँढ़ रही थीं ;मगर वहाँ कोई नहीं था न छोटकी,न दाई,न कोई और। कुछ देर पहले तक जो साबुत इंसान थे, अब वे चीथड़ों में बदल गये थे और वह बौराई सी उन्हें उन चीथड़ों में तलाश रही थी.। देर तक तलाशने के बाद भी जब कुछ नजर नहीं आया,तो ‘ शायद वो जाग गयी हो और उसे ढूँढ़ते हुए पटरी के उस पार ..और उसके पीछे दाई भी ... ’सोचकर मन में आस सी बंधी और उसकी नजरें पटरी के दूसरे छोर की झाड़ियों को टोहने लगीं। टोहती नजरों से वह आगे बढ़ी ;मगर पटरी पार करते ही जोर की चीख निकली और धरती से होकर आसमान को बेधती चली गयी।
पटरी से कुछ दूर एक नन्हा सा हाथ पड़ा था,जिसकी मुट्ठी ने रोटियों को कस कर जकड़ रखा था। बुधिया वहीं बैठ गयी और गोहार पार कर रोने लगी। वह देर तक चीखती रही और उन्हीं चीखों के बीच एक और जान ने जन्म ले लिया था ; मगर उसे उसका भान ही नहीं हुआ . . जब उसने जोर – जोर से रोना शुरू किया, तब उसने देखा। ललछौंहाँ सा माँस का लोंदा उसके पैरों के बीच पड़ा था और केहाँ – केहाँ के शोर से अपने आने की सूचना दे रहा था ; मगर उसका रुदन बुधिया के भीतर पहुँचा ही नहीं। उसके मन में तो मृत्यु का हाहाकार भर गया था। दाई,समारू और छोटकी की मौत से उपजे हाहाकार ने उसे अपने में इस कदर लपेटा कि उसके लिए सब कुछ निस्सार ही हो उठा। छोटकी का चेहरा तो उसकी आँखों में अटक ही गया था। सो उस नवजात के लिए उसके मन में कोई ठौर ही नहीं बन पायी। वह उसे यूँ ही देखती रही देर तक। उधर बच्चे का रुदन और तेज हो उठा। रोते –रोते उसका मुह लाल हो गया ;मगर बुधिया? उसके हृदय में तो जैसे एक शिला ही अड़ गयी थी,जिसे उसका रुदन भी बेध नहीं पा रहा था।
उसकी आँखें उस पर टिकी तो थीं ;मगर मन? मन में छोटकी की ही अटकी हुई थी .वह देर तक यूँ ही बैठी रही। फिर उठकर चल पड़ी,उस ओर जिधर कोई राह ही नहीं थी। उधर केहाँ – केहाँ का स्वर और तीव्र होता गया ; मगर बुधिया? वह चलती चली जा रही थी। उधर बच्चे का रुदन पंचम पर जा पहुँचा। फिर थम गया। रुदन के थमते ही न जाने क्या हुआ कि उसके बढ़ते कदम ठिठक गये। लगा किसी ने उसके कदमों को को छाँद दिया हो। फिर मन में जाने कैसी हूक उठी कि वह पलट कर दोड़ पड़ी। उसने लपक कर उस लोंदे को उठाया और सीने से लगा लिया ; मगर जब उसमें कोई हरकत नहीं हुई,तब उसकी नजरें ललछोंहीं से नीली होती देह पर जा टिकी।
उसकी आँखों में फिर छोटकी उभर आयी। ऐसा ही तो उसके साथ भी हुआ था,तब दाई ने ...और उसने अपनी साड़ी उतार ली।उसे उसमें में लपेटकर सीने से इस तरह सटाया कि उसकी धडकने उस लोंदे में उतरने लगीं और कुछ देर में वह लोंदा कुनमुना उठा। वह उसे लेकर बढ़ चली ;मगर अब नाल से जुड़ा फूल उसके पैरों से उलझने लगा था। फिर उसने नाल को पाँत पर रखा और एक पत्थर उठा एक ही झटके में उसे अलगा दिया और भोर की उस उजास में देखा उसे। मानो छोटकी ही लौट आयी हो। एकदम उसीका मुह ही उतार लायी थी ;मगर रोते –रोते उसके ओठ पपड़ा से गये थे,तभी उसे सीने में कुछ रिसाव सा महसूस हुआ और उसने उस अमृत कुंभ को उसके ओठों से सटा दिया।
अब वह चल रही थी आगे और उसके पीछे बिखरे हुए थे म्रत्यु तमाम अवशेष ;मगर आगे जिंदगी थी और वह जिंदगी के साथ बढ़ी जा रही थी।
लेखक परिचय - उर्मिला शुक्ल
urmilashukla20@gmail.com
फोन - 9893294248
उर्मिला शुक्ल का संक्षिप्त वर्णन
शिक्षा - एम ए ,पी एच डी ,डी लिट्
लेखन - कहानी , उपन्यास ,कविता , ग़ज़ल ,समीक्षा और यात्रा संस्मरण। छत्तीसगढ़ी और हिंदी में लेखन।
प्रकाशन हिंदी - कहानी संग्रह -
1. अपने अपने मोर्चे पर ,- प्रकाशक- विद्या साहित्य संस्थान इलाहबाद।
2. फूल कुँवर तुम जागती रहना - नमन प्रकाशन 2015 दिल्ली
3. मैं ,फूलमती और हिजड़े नमन प्रकाशन 2015
साझा कहानी संग्रह -
1. बीसवीं सदी की महिला कथाकारों की कहानियाँ नामक संग्रह नमन प्रकाशन दिल्ली द्वारा प्रकाशित दस खंडों में प्रकाशित। नवें भाग में कहानी गोदना के फूल प्रकाशित।
2. कलमकार फाउण्डेशन दिल्ली द्वारा 2015 में अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कृत कहानियाँ । इस संग्रह में कहानी -सल्फी का पेड़ नहीं औरत प्रकाशित-प्रकाशक-श्री साहित्य प्रकाशन दिल्ली।
3. हंस -सिर्फ कहानियाँ सिर्फ महिलायें अगस्त 2013 कहानी बँसवा फुलाइल मोरे अँगना प्रकाशित और चर्चित।
4. -कथा मध्य प्रदेश 4 खंडों में प्रकाशित मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ के कथाकारों के संग्रह में 4 भाग में नहीं रहना देश बिराने प्रकाशित।
कविता संग्रह - इक्कीसवीं सदी के द्वार पर (मुहीम प्रकाशन हापुड़ 2001 )
समीक्षा -
1. छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में नारी - चेतना से विमर्श तक (वैभव प्रकाशन रायपुर ),
2. हिंदी कहानी में छत्तीसगढ़ी संस्कृति (वैभव प्रकाशन रायपुर )।
3. हिंदी कहानी का बदलता स्वरूप (नमन प्रकाशन दिल्ली ),
3 हिंदी कहानियों वस्तुगत परिवर्तन
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