एक समय की बात है; लंबी बरौनियों वाली झिलिक जो कि मुश्किल से अभी सोलह की हुई थी, उसका ब्याह चौतीस के मगाराम से कर दिया गया। पिता को अपने दायित्व का निर्वहन करना था, सो कर दिया.. ज्यादा पूछताछ की जरूरत समझी नहीं, सो नहीं की । लड़की के लिए खाने भर का जुगाड़ और सर पर छत, बस इत्ती-सी पिता की इच्छा के साथ झिलिक पड़ोस के गाँव में ब्याह दी गई। बिन मां की झिलिक शादी के सपने देखने से पहले ही बांध दी गई। ससुराल मिली, वहाँ सास नहीं थी, ससुर थे और था एक देवर।पति मगाराम की पहली पत्नी बीमारी में गुजर गई थी फिर मगाराम की ब्याह में दिलचस्पी ही नहीं रही, ऐसा किसी ने कहा, पर किसी ने शायद अपनी लड़की ही नहीं दी... ऐसा भी किसी ने कहा। बातें बिना पैरों के चलती हैं,बिना पंखों के उड़ती हैं और बिना आँखों के दुनिया को देख भी लेती हैं। सो... बातों को यहीं छोड़ देते हैं... आते हैं फिर से झिलिक और मगाराम की कहानी पर....
मगाराम फूल-पौधें उगाने का काम करता था। वह अपनी छोटी सी जमीन पर पौधे तैयार करता,आज के संदर्भ में कहें तो उसकी पौधों की नर्सरी थी। जहां वह तरह-तरह की फूल पौधे तैयार करता और बेचता, तो संक्षेप में ये भी कहा जा सकता है कि झिलिक की ससुराल गेंदा फूल थी। मगाराम ठहरा सीधा सादा आदमी,सारा दिन काम में लगे रहने वाला... रुचि के नाम पर उसके पास एक बाँसुरी थी जिसे वह बहुत संभालकर अपने बक्से में रखता और जब बहुत उदास होता तो ये बाँसुरी बक्से से निकलती... वह अपने गामछा से उसे पोंछता फिर धीरे से भरी दुपहरिया में जब सब आराम कर रहे होते या सो रहे होते वह बाँसुरी के रंध्र के किनारे को अपने निचले होंठ के किनारे पर छू भर लेता फिर धीरे-धीरे नीचे की ओर आर-पार फूँकने लगता उसकी ठुड्डी ऊपर की ओर उठ जाती और आँखे सीधी क्षितिज के पार देख रही होती... बाँसुरी के सात छिद्रों में मगाराम की उँगलियाँ घूम-घूमकर समंदर के तल की तरह गहरी धुन को निकालने लगती। झिलिक का देवर यानी मगाराम का छोटा भाई सोमू अपने भाई के काम में पूरा हाथ बँटाता; वह पास ही के बाजार में पौधें ले जाकर बेच आता। झिलिक के ससुर यानी मगाराम के पिता बीमारी के कारण चारपाई पर ही टिके रहते। घर में फूल खूब उगते और बिकते।घर में खाने पीने,पहनने ओढ़ने का सुकून था पर झिलिक के मन में सुकून का पंछी कभी भी अपने पंख ना फड़फड़ाता।झिलिक को सीधे-साधे मागाराम से कोई शिकायत नहीं थी। प्रेम तलैया के किनारे बैठी वह पानी में कंकर फेंकती।पानी मे उत्प्लावन बल लगता और लहरें अपना करतब भी दिखाने लगती पर मगाराम लहरों के बीच से ना निकलता; तट पर बैठकर भीगी हुई झिलिक को देखता रहता। झिलिक के दिन दुबले और रातें मोटी होती जा रही थी।
इस बीच झिलिक लहरों के बांध में बिंधे बंधे गबरू से छोटे देवर को देखती..जो बहुत तेज़ी से उसे की ओर बढ़ा आ रहा था,तो उसकी पुतलियों में हरारत होती, हरारत होती तो देह की बाँसुरी मीठी धुन गुनगुनाना शुरू कर देती। वह इन मीठी धुनों को कैसे तो अनसुना करे?.. कैसे?.. कितनी भी करे पर फिर भी तो! पता नहीं क्या हो जाता उसे? खुद को कोसती और राम जी जैसे मगाराम से मन ही मन माफी मांगती। एक दिन सोमू की पुलसिया नज़रों ने झिलिक की चोर नज़रों को पकड़ा और जकड़ लिया। नज़रें अब चोर सिपाही खेल रही थी,मन आनंद के झूले पर था। मगाराम नजरों के खेल से अभी बहुत दूर बैठा तनतनाती गर्मी में पलाश के फूल तोड़कर भरी दुपहरिया में उनकी वेणी बना रहा था। गर्मी की आहट से कुम्हलाते सभी फूलों में पलाश की ताकत जिजीविषा दूर से ही दिख जाती थी। कुछ धूसर कुछ भूरे रंग के रेशमी और रोयेंदार पत्तें, राख का रंग लिए छाल.... पूरी तरह खिलने के बाद पलाश जब अपने सारे पत्ते गिरा देता तब चटक फूल प्रकृति की अनूठी रचना बनकर इस प्रकार खिल उठते हैं मानो बेरंग मौसम में रंग भर रहे हों। उनकी भूरी टेढीमेडी डालों पर सूखे पत्तों को वह देख रहा था। लंबे हरे वृंतों के सिरे पर गहरे हरे मखमली प्यालेनुमा कठोर पुटकों पर घने लाल गुच्छ... पृथ्वी युवा पलाश को देख इठला रही थी। एक तोते की चोंच जैसी लंबी घूमी हुई पंखुरी... मगाराम को झिलिक की नाक याद आ गई वह ना जाने क्यों हँस पड़ा! हँसा तो सूखी पड़ी धरती तरल हो गई। पत्रविहीन डालों पर लाल नारंगी रंग के समूह में खिले हुए इनके घने गुच्छे खिलखिलाने लगे; ये दूर से देखने पर ऐसे दिखाई देते मानो जंगल में आग लगी हो। झिलिक को ये दहकते फूल बहुत अच्छे लगते थे। हल्की गंध स्वाद हल्का तीखा और कड़ुआ...पलाश। ब्याह में झिलिक के बालों में इन्हीं की वेणी थी । मगाराम झिलिक के लिए जंगल की आग की वेणी बनाकर चुपचाप घर के अंदर लाकर रात को सोई हुई झिलिक के सिरहाने रख देता। झिलिक की आँख खुलती तो पास रखी वेणी को पाकर वो देर तक सोये हुए सोमू को देखती और निहाल हो जाती। जंगल की आग अब घर में भी सुलगने लगी थी पर मगाराम अभी भी शीतल था।
मगाराम को ब्याहता का ध्यान था पर प्रेम के पलाशी रंग को समझ कर भी वह उसे प्रकट करने में असफल हो जाता था। वह बस झिलिक की चंचल हिरनी जैसी उम्र से डरता था। वह अक्सर... अक्सर थका होता.. तो सो जाता, नहीं होता तो भी सोने का अभिनय कर लेता। झिलिक के मन की बसंती नदी की लहरें उसे कभी भिगो नहीं पाती। कभी-कभी साथ सोने का धर्म झिलिक निभा रही थी। इसी धर्म के चलते उसके पैर एक बार भारी हुए पर एक फिर न जाने कैसे उसके पेट में मोटा दर्द उठा! और एक लाल नदी उसके पैरों में दौड़ने लगी। दौड़ती हुई नदी अपने साथ दोनों का बहुत कुछ ले गई। दे गयी, तो दुख पर दोनों के दुख साझा करने का तरीक़ा अलग-अलग था। झिलिक खूब रोयी -चिल्लायी...दुख को कलेजे से निकालने के लिए उसने कलेजा फाड़ लिया... दीवारें भी थरथराने लगी पर कुछ नहीं लौटा... कुछ भी नहीं। मगाराम भी बहुत दुखी हुआ। इतना दुखी कि उसकी आँखों से आँसू का एक कतरा भी नहीं निकला। अब वह ना किसी से बोलता और ना कुछ चाहता। चुपचाप अपना काम करता रहता। दुख ने दोनों को अलग तरह से गढ़ दिया, एक को नदी बना दिया तो एक को पहाड़। संतान को खोने का दुख दोनों को था और दोनों ही दुखी थे।
इस बीच देवर सोमू झिलिक की टहल कर रहा था। ससुर भी बिस्तर पर पड़े-पड़े गला खँखार कर झिलिक से कुछ पूछ लेते। मगाराम दूर से ही सब कुछ देखता रहता; कुछ करना भी चाहता पर उससे पहले ही वह काम सोमू कर देता। भाभी और देवर को हँसते बोलते देख वह शांत हो जाता ‘चलो झिलिक का दर्द कोई तो बाँट रहा था।‘ झिलिक किसी से बात करना चाहती थी... किसी के सामने मन को खोल देना चाहती थी। सामने सोमू था.... देवर भाभी के बीच आकाश का उजास फैल रहा था .... वहां पलाशी रंग फैल रहा था। इस बीच झिलिक के माथे की बिंदिया कुछ बड़ी हो गई थी। मगाराम ने ये देख लिया था पर वह अब भी चुप था। झिलिक की कोख अभी खाली थी। एक बरस हो गया था मगाराम का बोलना और कम हो गया था।
एक दिन मगाराम घर की उदासी दूर करने के लिए एक तोता ले आया। झिलिक बच्चे के ना होने से उदास थी। उसका अकेलापन देखकर मगाराम का मन हुआ कि वह झिलिक को कोई तोहफा दे। तोता पाकर झिलिक बहुत खुश थी। तोते का नाम सदा की तरह उस घर में भी मिट्ठू रखा गया। झिलिक की बोली को तोता समझने लगा था। वह समझता और खूब समझता; झिलिक जो कहती तोता भी उसे दोहराता। मगाराम झिलिक को दूर से देखता और खुश होता पर कहता कुछ ना। मगाराम अब थोड़ा थकने लगा था .. बच्चे की भरपाई तोता पूरी करने की कोशिश कर रहा था। तोता अब बहुत बोलने लगा। घर में जो भी बोला जाता वह पहले उसे ध्यान से सुनता फिर दोहराता।
“सोमू...” सोमू का नाम उसने सबसे पहले याद किया। झिलिक को वह ‘झिली’ कहता। मगाराम का नाम याद करने में उसे थोड़ा समय लगा। झिलिक और सोमू तोते के साथ खूब खेलते।वे तोते को रोज नए-नए शब्द सिखाते।। तोता भी फर्राटे से सारे शब्द बोलता।
एक दिन मगाराम अपने बगीचे से जल्दी घर आ गया। सोमू और झिलिक के खिलखिलाने की आवाज दूर से ही आ रही थी। झिलिक सोमू के लिए चाय छान रही थी। मगाराम को आते देखा तो दौड़कर उसके लिए भी चाय ले आई। मगाराम को झिलिक का यही व्यवहार पसंद था। वह उसकी देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ती। वह भी कुछ ऐसा ही करता पर दोनों के बीच बोलना कम ही था। मगाराम सब समझते बूझते भी समझ नहीं रहा था। झिलिक और सोमू का बढ़ता मेल उसे न जाने क्यों खल नहीं रहा था? झिलिक के पास मगाराम के लिए आज एक खुशखबरी थी। उसके पैर फिर से भारी थे।झिलिक से ये खबर सुनकर मगाराम सब कुछ भूल गया। वह बहुत खुश था। झिलिक की सेवा टहल करने में उसने कोई कसर ना छोड़ी। सोमू भी भाभी का पूरा ध्यान रखता। नौ माह की गर्भवती झिलिक को जब ज़ोर का दर्द उठा तो मगाराम घर पर ना था।अपने बगीचे यानी नर्सरी में कुछ पौध बना रहा था और साथ ही पलाश के दहकते फूलों को इकट्ठा भी कर रहा था झिलिक के लिए वेणी जो बनानी थी। वह इस बार भी वेणी को चुपचाप सोती हुई झिलिक के सिरहाने रख देगा। वेणी को पाकर झिलिक किसी छोटी बच्ची की तरह खुश हो जाएगी।मगाराम जब घर पहुंचा.. तब तक झिलिक प्रसव पीड़ा के बाद एक बेटे को जन्म देकर उसे निहार रही थी। बेटा पाकर मगाराम बहुत खुश था उसकी सारी मुरादें पूरी हो गई थी। बेटे का नाम अर्जुन रखा गया। घर के आँगन में खेलते हुए अर्जुन अब डेढ़ बरस का हो चला था। पहले झिलिक और सोमू तोते को पाठ पढ़ाते थे अब तोता अर्जुन को वही पाठ पढ़ाने लगा। अर्जुन बड़े अच्छे से भी वही दोहराता जो तोता कहता। तोता अर्जुन को अजुन कहता और अर्जुन उसे तोता ही कहता।
झिलिक के बूढ़े बीमार ससुर एक दिन चल बसे। अब घर में चार प्राणी थे और एक तोता, मगाराम चाहता था कि अब सोमू का ब्याह कर दिया जाए ताकि वह अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाए पर सोमू इसके लिए तैयार ना था। उसे कोई भी लड़की पसंद ही ना आती। सोमू सारा दिन झिलिक के आसपास ही घूमता रहता। मगाराम देवर भाभी की चुहल को चुपचाप देखता और फिर अपनी चारपाई के पास रखे हुक्के को गुड़गुड़ाने लगता। हुक्के का धुआँ उसके गले की खखार को और बढ़ा देता। अब जब भी वह बोलता उसका गला पहले खरखर करता पर झिलिक अपनी दुनिया में खुश थी,उसने अपने जीवन को इसी तरह स्वीकार लिया था;मगाराम का मौन और सोमू की चुहल । मगाराम उसकी खुशी को शांत मना होकर देखता रहता। अब मगाराम का जीवन अर्जुन के आसपास घूमने लगा। उसके जीवन का सुख अब अर्जुन में था। जब वह काम से आता तो अर्जुन दौड़कर उसके पास चला आता। मागाराम की सारी थकान मिनटों मे फुर्र हो जाती। दोनों बाप बेटा बहुत देर तक खेलते तोता भी उनके बीच में कुछ ना कुछ बोलता रहता...
एक दिन थका हारा मगाराम जब घर लौटा तो घर बिल्कुल सूना पड़ा था। झिलिक मायके गई हुई थी। सोमू काम पर से नहीं लौटा था। तोता पिजरें में अपने पंख फड़फड़ा रहा था; मगाराम को देखते ही वह चिल्लाया “अजुन..’ अजुन सुनते ही थके मगाराम के चेहरे पर मुस्कान आ गयी। वह तोते की तरफ बढ़ा कहीं भूखा प्यासा तो नहीं है। तोता फिर बोला “अजुन.. “ मगाराम फिर मुस्कुराया .....
“बोल अजुन मगाराम का बेटा है झिली का बेटा है” तोता मागाराम के नाम को छोड़ सबका नाम बोलने लगा। मगाराम को ना जाने क्या धुन लगी? वह बोलने लगा बोल “अजुन मगाराम का बेटा है”
“अजुन सोमू का बेटा है सोमू का बेटा है.. मगाराम भोला है.. मगाराम भोला है” तोता पूरी ताकत लगाकर बोले ही जा रहा था....मगाराम ठगा सा खड़ा उसे चिल्लाते देख रहा था। तोता ठहरा नकलची प्राणी झिलिक और सोमू को अठखेलियाँ करते शायद उसने सुन लिया था। अब मुआ वही दोहरा रहा था..... दोहराता ही जा रहा था; पता नहीं अफीम खाकर बैठ गया था क्या?तोता पूरे आँगन में चिल्ला रहा था। मगाराम की देह एकाएक निर्जीव सी होकर एक तरफ लटक गई। वह आँगन में रखी चारपाई पर टिक गया। ‘ये तोता क्या कह तो गया ?’
उस रात मागाराम सो नहीं पाया; उस रात ही नहीं वह कईं रातों तक ठीक से सो नहीं पाया। वह उस दिन के बाद से कुछ और चुप हो गया। जिस दिन तोता पूरे आँगन में चिल्ला रहा था; अच्छा था कि वह उस दिन घर में वह अकेला था। पिता तो अब थे ही नहीं । झिलिक मायके से लौट आई थी जब लौटी तो देखा मगाराम ने अब पहले से भी ज़्यादा लंबी चुप्पी ओढ़ ली है।अब वह बस काम की बात बोलता। सोमू भी अब ना जाने क्यों?खिंचा-खिंचा रहने लगा था। पहले की तरह बातें नहीं करता,काम के लिए भी बहाने बनाने लगा था। वह सब समझ रही थी। सोमू के लिए पहले से ही रिश्ते आ रहे थे आखिर एक रिश्ते के लिए उसने हाँ कर दी। लड़की का नाम अदीपा था। सोमू की ससुराल भरी पूरी थी। उसके ससुराल वालों ने उसे अपने पास ही काम के लिए बुला लिया। झिलिक का मन टूटा पर वह कुछ ना बोली,नियति को स्वीकार कर घर में मन लगाने लगी। अब घर में रह गए थे बस झिलिक,मगराम अर्जुन और तोता। झिलिक और मगाराम दोनों के बीच का मौन कभी-कभी अर्जुन में गुनगुना उठता । मगाराम रात में कभी चुपचाप पास लेटी झिलिक को देखता और कभी बीच में लेटे अर्जुन को, हल्के-हल्के खर्राटे भरती हुई झिलिक की पीली धोती पर कसा हुआ नीला चित्तीदार ब्लाउज, जिस पर गुँथी हुई उसकी घनी काली चोटी ढोंगा मार रही होती तब मागाराम का शरीर किसी ठंड में सिकुड़ती रात की तरह पलंग के एक ओर खिसकता चला जाता।
कहते हैं संशय में एक सुकून होता है कि व्यक्ति जो सोच रहा है वह उसके दिमाग की उपज हो सकती है पर सच किसी को वो सुविधा भी नहीं देता मागाराम के पास अब उसकी खामोशी थी। अर्जुन के साथ वो खूब खेलता पर झिलिक से अब कुछ ना कहता। झिलिक मगाराम की बढ़ती खामोशी से विचलित हो जाती। उसका मन ग्लानि के कूप में डुबक रहा था। सोमू तो ब्याह कर चला गया। उसकी पत्नी छोटी उम्र की लड़की अदीपा। सोमू का ध्यान झिलिक से हटा और चंचल नदी की तरह इठलाती अदीपा पर चला गया। एक दिन अदीपा और सोमू किसी काम से आए थे। दूसरे कमरे से आती अदीपा की खिल-खिल और सोमू की मनुहार झिलिक कटी पतंग-सी फड़फड़ायी। झिलिक बहुत समय से सोमू को दूर हटते हुए देख रही थी और अब तो वह उसे देखता भी नहीं ..... वह उससे नजरें चुराने लगा था;वह अब अदीपा में था। ये सब देख झिलिक की देह और मन दोनों में ही उदासी ने अपना ठौर बना लिया।
एक दिन मगाराम जंगल गया जहां भीषण गर्मी में खिले पलाश को देख उसे झिलिक याद आई; वह सुधबुध खो वेणी बनाने लगा। आज फिर वह वेणी झिलिक को अपने सिरहाने रखी मिली; पहले उसे भोर में जब भी सिरहाने पर ऐसी वेणी रखी मिलती तो वह वेणी को पाकर गबरू सोमू को देखती थी; मगाराम से कभी उसे ऐसी उम्मीद ना थी। उसे लगता सोमू स्त्री मन को समझता था। वो ऐसी बहुत सारी बातें कहता जो झिलिक के मन को खूब भली लगती पर आज.... ये वेणी... उसने खिड़की पर अपनी आँख रखी मगाराम पर नजर पड़ी जो एक कोने में चारपाई पर बैठा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था तो ये वेणी सोमू नहीं लाता था.....झिलिक ने देखा वह कुछ ज्यादा ही दुबला गया है और बूढ़ा भी लगने लगा है। उसकी धँसी हुई आँखों में एक कराह थी। वो चुप था... बिल्कुल चुप, जीवन से हाथापाई में घायल, निशक्त गहरी, अथाह मायूसी है और उकताहट थी।झिलिक की आँखों से आंसुओं की एक धार निकली;उसने सोते हुए अर्जुन को देखा फिर मागाराम को.... उसका सिर खिड़की के पल्ले पर टिका था। मन कसमसाने लगा , उसके हलक में रुलाई का फोहा अटका एक सुबकी के बीच उसने मगाराम को पुकारा....
अर्जुन को वह देख रही थी मागाराम की गोद में वो सुरक्षित और खुश था। दोनों तोते से बतिया रहे थे।आज चांद की पुतलियों में हैरानगी थी।वह एक दरख्त की ओट से आँगन की जमीन में तसले पर रखे बुझे चूल्हे की राख़ को देख रहा था। झिलिक ने देखा कि हौले –हौले सुलगता हुआ बादलों का धुआँ उसे अपनी गिरफ्त मे ले रहा था। झिलिक के कान में अकस्मात एक स्वर ठिठका.... मगाराम बाँसुरी बजा रहा था। पूरबा हवा का एक हल्का सा झोंका उसकी बाँसुरी के छिद्रों में ऐसे प्रविष्ट हुआ जैसे दर्द में भीगी नदी हो फिर कैसी तो दर्द की स्वर लहरी उठी! झिलिक का जी भर आया;हलक से एक हिचक के बाद की रुलाई.... लगा कोई समंदर है। जो उफनकर अपनी थाह लेने निकला है। सात छेदों वाली बांसुरी के अंदर की गांठों को वो वैसे ही हटा रहा था जैसे सात तालों में बंद राजकुमारी के द्वार के ताले कोई तोड़ रहा हो , रंध्र के किनारे को निचले होंठ के किनारे पर रखकर वह धीरे-धीरे नीचे की ओर और आर-पार फूँकने का प्रयास कर रहा था झिलिक पछतावे में रो रही थी दोनों दर्द में थे।
वह अब मागाराम के सामने थी। रोती हुई आँखों के साथ’ सब कुछ कुबूलने के लिए तैयार। मागाराम कमरे के अंदर आया अपना गामछा दीवार पर लटकाया और बिस्तर के एक ओर बैठकर पास सोये अर्जुन के माथे पर हाथ फेरने लगा, पता नहीं झिलिक जो अभी तक बिस्तर के कोने में पड़ी थी हिलकने लगी। उसकी रुलाई ज्यादा देर दबी ना रह सकी। मागाराम उठकर उसके पास आया और उसके कंधे पर अपना हाथ रख दिया। मागाराम को देखते ही झिलिक उसकी गोद में सिर रखकर रोने लगी। वह उसकी कमर को सहला रहा था। समझ ही नहीं पा रहा था, ‘उससे ऐसा क्या हो गया है!’
“क्या हुआ झिली?” मगाराम के माथे पर रेखाओं का गुँजल सिमट आया।
“मुझे बताना है कुछ” मागाराम की छाती में गड़गड़ाहट हुई। काले मोटे निम्बस बादल (वर्षा करने वाला).....
‘अर्जुन…’.
“आज सोमू आया था…” झिलिक ना जाने क्या बड़बड़ा रही थी?
“तू आराम कर झिल्ली”
वह बात आज सामने खड़ी हो रही थी जिससे मगाराम बचना चाहता था। वो उसे गिरा देना चाहता था... तोड़ देना चाहता था। । पलाश के फूल दहक रहे थे मगाराम ने देखा कि झिलिक के बालों मे पलाश के फूलों की सूखी वेणी थी जो झिलिक के बालों की ऊष्णता में संजीवनी ढूंढ रही थी। मगाराम के हृदय की तरलता को समेटे रक्त फेनिल झाग की तरह पूरे शरीर में किसी धावक की तरह दौड़ रहा था।
“नहीं जी मुझे कह लेने दो” झिलिक तड़पी
तड़पती मछली की तरह झिलिक ने मागाराम का हाथ कसकर पकड़ लिया मागाराम की देह में एक साथ हजारों लालटेन जली हों जैसे....
“मैंने तुम्हें धोखा दिया है जी”
मगाराम ने झिलिक को पूरा सुने बिना अपना हाथ उसके मुँह पर रख दिया
“कैसा धोखा री चल चुप सो जा, तेरी देह गरम तवे सी हो रही है।’
“अर्जुन...”
“पता है री मुझे”
“क्या पता है कुछ नहीं पता तुम्हें”
“मैंने धोखा दिया है जी तुम्हें”
“कोई धोखा-वोखा नहीं दिया,तेरी तबियत ठीक नहीं लग रही,तू आराम कर!”
“सुन तो लो मुझे!” झिलिक का स्वर काँपने लगा।
“मैं जानता हूँ री”
“क्या जानते हो जी?”
“बस जानता हूँ”
“पर कैसे..?” झिलिक की आँखों में विस्मय चक्रवात की तरह घूम रहा था।
“कैसे!” मगाराम बुदबुदाया
इस बीच उसने देखा झिलिक की आँखों में डर और ग्लानि की राख उड़ रही थी। जिसका कसैलापन मागाराम की आँखों को छूने की कोशिश करने लगा। पर मागाराम उस राख के अंधड़ से ना डिगा... पूरी आँखें खोलकर उस अंधड़ को गुजरते हुए देखता रहा।
मगाराम ने झिलिक की आँखों के अंधड़ को देखते हुए अपना दायाँ हाथ उठाकर बाहर टंगे तोते की तरफ इशारा किया.....
“उसने बताया था पर पहले मुझे यकीन ना हुआ फिर ना जाने क्यों लगने लगा था।
अब झिलिक की आँखे फैलकर इतनी चौड़ी हो गई कि उसकी आँखों का कोण तीन सौ साठ डिग्री पर जाकर रुका।
“जी मैं कुछ ना समझी”
“रहने दे झिली’
“कुछ बातें ना ही समझी जाए तो ठीक..
भीगी आँखों से झिलिक तोते की तरफ देख रही थी तो ये सब सुन रहा था जब वह सोमू से ..... । तोता सब बातों से बेखबर पिंजरे के एक कोने में सुकून से अपने पंखों को ओढ़े सो रहा था और झिलिक...उसकी अपनी ही आकृति जले कोयले जैसी हो गयी पर मगाराम शांत था।
“पुरानी बातें भूल जा झिल्ली देख अब सब ठीक हो जाएगा।“ झिलिक को कँधे से लगाए मगाराम धीरे-धीरे कह रहा था। झिलिक ने रोती हुई आँखों और हिचकते हुए गले से मागाराम की ढाढ़ी के स्लेटी बालों में अटका चावल का एक टुकड़ा अपनी उंगली के कोनों से पकड़ा और वहीं जमीन पर गिरा दिया मागाराम की देह में बिजली की गति से एक लहर उमड़ी।
रात धीरे-धीरे सुलग रही थी,पास ही के एक पेड़ से फूल उतर गए थे। पत्ते भी पीले पड़ कर झड़ गए थे। पेड़ के चारों तरफ गिरे ध्यान में मगन पत्तों को पूर्णिमा के दो दिन बाद का चाँद देख रहा है पेड़ का साथ छोड़ने से पहले उन्होंने अपना हरापन छोड़ दिया शायद हरा रंग वृक्ष को दे दिया और खुद पीला हो गया। दूसरी और पलाश था जब पेड़ों से पत्ते गिर रहे थे तो पलाश अपनी पूरी ऊर्जा के साथ अपने फूलों के साथ खड़ा था और यही पलाश आज पेड़ पर नहीं झिलिक और मगाराम के कमरे में दहक रहा था।
लेखक परिचय - ऋतु त्यागी
नाम- ऋतु त्यागी
जन्म-1 फरवरी
सम्प्रति-पी.जी.टी हिंदी केंद्रीय विद्यालय आद्रा
रचनाएँ-विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ तथा कहानियाँ प्रकाशित.
पुस्तकें- कुछ लापता ख़्वाबों की वापसी, समय की धुन पर,मुझे पतंग हो जाना है(काव्य संग्रह),एक स्कर्ट की चाह(कहानी संग्रह)
पता-45,ग्रेटर गंगा, गंगानगर, मेरठ
मो.9411904088
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