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डॉ प्रणव भारती

प्लीज़-बात करवा दें!!


बातें इतनी कठोर होती नहीं जितना मन, मन भी अपने आप कठोर नहीं बनता, उससे घिरे लोग बना देते हैं या समाज बना देता है| एक ही बात है! हर उम्र में कुछ चीज़ें बड़ी स्वाभाविक हो जाती हैं या होती रहती हैं जिन्हें करने की न तो कोशिश की जाती है, न ही कोई कवायद, न किसीसे वायदा किया जाता है| बालपन की, युवावस्था की, प्रौढ़ावस्था की और फिर वृद्धावस्था की भी, हर उम्र के दौर में कुछ संवेदनाएँ बड़ी स्वाभाविक रूप से सामने आ खड़ी होती हैं, उनसे बचा भी नहीं जा पाता, वो बस होनी होती हैं तो हो जाती हैं| फिर उन्हीं बातों में गोल-गोल घूमकर मन अपना एक नीड़ बना लेता है जिसमें बैठा गुटर-गूँ करता रहता है| कभी मन में घिरे हुए अवसादों की गुह्य कोटर में सिमटकर आँखों में आँसू भरे रखता है तो कभी लगता है कुछ पुरानी स्मृतियों के लहरावदार गलियारे खुलने लगे हैं और मन इत्र सा गमकने लगता है!

जीवन की सराय में कितने लोग मिलते, बिछुड़ते हैं – कहाँ गिनती रखी जा सकती है सबकी! लेकिन यह भी सच है कुछ तो ऐसे होते ही हैं जिन्हें न भुलाया जा सकता है और न ही किन्हीं विशेष कारणों से उन्हें याद किया जा सकता है| वे तो मन की तलहटी में चिपकी वो बालू होती है जो न जाने कैसे, कहाँ से सीमेंट अपने साथ खींचकर ले आती है और चिपक जाती है न उखड़ने के लिए!

कांत कुछ नहीं जानता था, पिछले पचास वर्षों से प्रीत कहाँ, कैसी होगी? उसने कोशिश भी नहीं की जानने की| कितनी मुश्किल से दामिनी के सहयोग से स्वयं को संभाले रखा उसने लेकिन भुला कहाँ पाया था? सीमेंट के साथ रेती ने उसके मन की गली में एक ऐसा कमरा बना रखा था जिसे उसने इतने सालों में कभी खोला तो नहीं था लेकिन उसके भीतर से जैसे कोई कुंडी खड़काता रहता और वह सुनकर भी अपने कान-आँखें बंद किए रहता| ज़रूरी भी था पत्नी के साथ न्याय करने के लिए, परिवार के साथ और अपने साथ भी तो! यह क्या कम था कि सब कुछ जानते हुए भी दामिनी ने उसका हाथ इतनी कठिन परिस्थिति में पकड़ा था अन्यथा वह आज तक साँस ले रहा होता क्या?

वैसे अपने पति कांत का साथ देने में, उसका भूत भूलने में, उसकी पत्नी दामिनी का भरपूर हाथ रहा| उसने एक टूटे हुए प्रेमी से विवाह किया था जिसमें थेगली चिपकाना उसके हिस्से में आया था| वैसे कोई मज़बूरी नहीं थी, अच्छे–ख़ासे परिवार की शिक्षित बेटी थी दामिनी! कोई दबाव भी नहीं था लेकिन जब उन दोनों को परिवार की ओर से विवाह के लिए मिलवाया गया, न जाने दामिनी ने क्यों और कैसे उसमें अपना जीवन-साथी ढूँढ लिया जिसके संबंध के बारे में उसको पहले ही अपने चचेरे भाई से पता चल गया था जो उसके भाई के साथ उसका अच्छा दोस्त भी था| मिलने पर कांत ने उसके समक्ष अपना विगत ईमानदारी से खोलकर रख दिया| अरे! इसमें नया क्या था? उसने मन में सोचा, उसके भाई ने पहले ही उसे कांत के प्रेम के बारे में बता दिया था, साथ ही उसकी प्रशंसा के गीत भी गाए थे|

जब कांत का परिवार दामिनी को देखने --- देखने भी क्या मिलने और रिश्ते की बात करने आया तब तक वह कांत की सारी बातें, आचार-व्यवहार के बारे में जान चुकी थी| उसे यह बात कहीं तकलीफ़देह भी लगी कि कांत के परिवार वालों ने उसके परिवार को कुछ नहीं बताया था| लेकिन ---सच में वह मूर्ख है, उसने सोचा| क्या कोई लड़के वाले अपने लड़के की कमियों का ढिंढोरा पीटते हैं? वैसे अगर लड़की भी होती तो क्या उसके विवाहपूर्व के संबंध के बारे में लड़के वालों को बताया जाता? लेकिन दामिनी को कांत सच में भला व ईमानदार लगा था|

ऐसे कठिन दोराहे पर खड़े होकर पूरी उम्र के लिए निर्णय लेना आसान नहीं था| जो व्यक्ति मुहब्बत में इतना पागल बन जाए कि मरने-मारने की बात तक पहुँच जाए, उसके साथ जीवन-यापन आसान हो सकता है क्या? वह पशोपेश में पड़ गई| आश्चर्य भी हुआ क्योंकि बाद में कांत के माता-पिता ने पूरे परिवार के सामने अपने बेटे के बारे में सब कुछ खोलकर बता दिया था| दामिनी के पिता से क्षमा भी मांगी| वे शायद सामने मिलकर यह बात बताना चाहते थे, वे इस बात से नावाकिफ़ नहीं थे कि इस प्रकार की बातें उड़नखटोले पर सवार होकर एक शहर से दूसरे शहर ही नहीं, एक देश से दूसरे देश पहुँच जाती हैं| समाज में तो छोटी सी बात भी एक बवंडर की तरह पसर जाती है फिर यह तो तहलका मचाने वाली घटना थी कि जो लड़का उनकी बेटी को ब्याहने के इरादे से उनके घर मिलने आ रहा है, वह अपनी प्रेमिका के विछोह में विष-पान कर चुका था|

दामिनी के पिता ने अपनी बेटी से सब कुछ स्पष्ट कर दिया किन्तु कांत तो पहली मुलाक़ात में ही अपनी ईमानदारी का प्रमाण दे चुका था|

“बेटा! माफ़ करना – हमें अभी पता चला| मैं समझता हूँ यह निर्णय बड़ा कठिन है – मेरे ख़्याल से हमें इस रिश्ते के लिए मना कर देना चाहिए – “ पिता ने दामिनी को अकले में बुलाकर कहा, वे असहज हो उठे थे|

दामिनी ने कांत से फिर एक बार मिलने का मन बनाया और माता-पिता को अपने मन की बात बता दी| कांत की ईमानदारी ने उसे प्रभावित किया था|अच्छा-ख़ासा ईमानदार, शानदार व्यक्तित्व का लड़का था| न जाने प्रेम में क्यों और कैसे चोट खा गया था!

दोनों फिर से मिले, दामिनी समझ नहीं पा रही थी कि क्या और कैसे बात शुरू करे? रेस्टोरेंट के एक कोने की सीट में गुमसुम बैठे कांत के चेहरे पर दामिनी ने अपनी धारदार दृष्टि जमा रखी थी|

“अब क्या स्थिति है?” दामिनी ने अचानक ही कॉफ़ी का सिप लेते हुए बेबाक हो कांत के सामने प्रश्न परोस दिया जिसके लिए इतनी अचानक ही वह तैयार नहीं था|

वह समझा नहीं, क्या उत्तर देना चाहिए उसे? वैसे उसे बार-बार यही महसूस होता है उसे शादी क्यों करनी चाहिए? वैसे उसे यह भी लगा इस प्रकार दामिनी से मिलने की भी क्या ज़रूरत है? उसे समझ आ गया था कि दामिनी उससे प्रभावित है किन्तु उस के मन में ऊहापोहों का उठना उतना ही स्वाभाविक था जितना किसी नाविक को अपनी नाव समुद्र में डालने से पहले समुद्र का मिज़ाज परख लेना|

“हो जाता है जीवन में ऐसा कई बार ---- बेवफ़ाई कोई नई बात नहीं है ----“ दामिनी ने कांत को कुरेदा था| वह जानती थी कि कांत की प्रेमिका ढ़ोल-ढपाड़े बजवाकर उसके शहर से तो चली ही गई थी लेकिन शहर से जाना इतना कठिन नहीं था जितना दिल की संकरी गली से निकलना!

“नहीं --- नहीं, ऐसी बात नहीं थी, कई बार परिस्थिति साथ नहीं देतीं और किसीके किए का कोई और ही भरता है --- जाति और सामाजिक स्थिति के कारण ही ----“

"जब प्रेम किया था, उसका मान-सम्मान भी तो ज़रूरी था ---" दामिनी सचमुच दामिनी ही थी, बड़ी स्पष्टवक्ता! उसे कांत हर लिहाज़ से अच्छा ही लगा था -- केवल इस बात पर उसका मन भटक रहा था कि कांत अपने विगत को भुला सकेगा या नहीं?

“व्यक्ति के सम्मान को ठेस लगाना भी उसे आहत ही करता है – ये जो कुछ भी उसने निर्णय लिया, यह मेरे घरवालों के मान-सम्मान के लिए ही ---“ कांत दुखी तो था|

“अब भी उसके बारे में सोचते हैं आप?” दामिनी ने स्पष्ट रूप से कांत से पूछा|

“सोच पर वश नहीं होता ---“ कांत धीमे से बोला|

“शादी क्यों करनी चाहिए आपको? क्या घरवालों के दबाव में ----?” दामिनी के दागे हुए प्रश्न कांत के दिलोदिमाग में नश्तर से चुभ रहे थे|

“यह बात कुछ हद तक सही है लेकिन केवल यही बात नहीं ----“ उसने बीच में ही अपने होठ बंद कर लिए |

“आपने अपनी बात अधूरी छोड़ दी ---“

“क्या बताऊँ --- यही कि पूरी उम्र अकेले रहने की हिम्मत नहीं है मुझमें ----“

“आप अपने लिए किसी का इस्तेमाल करना चाहते हैं?” दामिनी ने कुछ ऐसे पूछा कि कांत की आँखों में बेबसी का पानी भर आया |

“कोशिश तो करनी होगी, आप सोच लें यदि हम विवाह करते हैं तो एक-दूसरे के लिए ईमानदार रहना होगा –“

ठीक ही तो कहा दामिनी ने ---'परिवार बना लेना आसान है लेकिन उसके कर्तव्यों के प्रति निष्ठा ज़रूरी है|’ उसने कांत के सरल मुख पर अपनी दृष्टि गड़ाए रखी|

“समझता हूँ, परिवार के प्रति बेईमानी का परिणाम कष्टकर हो जाता है ---" कांत के स्वर में मासूमियत के साथ ईमानदारी झलक रही थी|

जिस जंगल में कांत घूम रहा था, उसमें से उसे निकालने का दामिनी के मन में बेहद शक्तिशाली विचार आया था| वह सदा से सोचती थी कि किसीके आँसू पोंछकर मुस्कुराहट देने में जीवन की सार्थकता हो सकती है तो शुरुआत खुद से ही क्यों न की जाए? कठिन था लेकिन उचित था प्रश्न! खुद को भी तो एक मौका देकर देखो तो सही कितना संयम रख पाते हो किसी की गलतियों को पचाने में! और उसने खुद को मौका दिया, कांत के साथ!

समय लगा खुद को समझाने में लेकिन दामिनी ने समझा कि शायद प्रीत का कोई क़सूर नहीं था, यह बड़ी बात थी| प्रेम कोई कसूर नहीं होता कसूर हो जाता है। अनगढ़ परिस्थितियों में उसे निभा न पा सकना| वैसे इसे भी कसूर क्या कहें, समय ही दुलत्ती मारता रहता है और हम एक-दूजे को दोषारोपण करने में कोई कसर नहीं छोड़ते| मनुष्य हैं, मुश्किल से विश्वास का अंकुर उगा पाते हैं मन में! फिर जब अंकुर फूटने लगता है तब भी कहीं न कहीं मन आशंकित होता रहता है| ख़ैर बीत गया था वह समय भी! अंकुर अब विशाल वृक्ष में परिवर्तित हो गया था, उसकी घनेरी छाया आश्वस्ति देने के लिए दामिनी के मन में सदा दृढ़ रही|

पचास वर्षों के अंतराल के बाद कांत को एक मित्र के द्वारा प्रीत का मोबाइल नंबर मिल गया और उसने तुरंत धड़कते हृदय से प्रीत का नंबर लगा दिया| उसके दिल का बंद सीमेंट से भरा कमरा न जाने कैसे तड़कने लगा था, बंद दरवाज़े की कुंडी ढीली पड़ने लगी थी और दरवाज़े के पल्ले चरमारने लगे थे| अंदर की कुंडी खड़कने की आवाज़ से वह इतने लंबे अर्से बाद असहज होने लगा था|

इस उम्र में बात करने में कोई हर्ज़ तो है नहीं, कांत बरसों से बंद सीमेंट का कमरा खोलने पर आमादा हो उठा| इतने वर्षों में दामिनी भी उसकी ओर से आश्वस्त हो चुकी थी| गृहस्थी के सभी उत्तरदायित्व पूरे हो चुके थे| बेटे-बेटी, सब सैटल और दोनों निवृत्त! एक अविश्वास के परकोटे से विश्वास की दहलीज़ पर सहमते हुए मन ने सदा एक बाँध बनाए रखा| वही बाँध न जाने क्यों इस उम्र में टूट जाना चाहता है |

कांत के बगीचे के पत्तों से पानी की बूँदें टप टप करती मानो उसकी आँखों से मिलने को आतुर होने लगीं| सामने बरसात की झड़ी लगी थी और उसे महसूस हो रहा था कि वो सारा का सारा पानी उसकी आँखों से बहा जा रहा था| सामने के तारों पर टँके मोती उसकी पलकों पर आकर दम भर को साँस लेने को ठिठक से गए जैसे ----

“हलो!“ प्रीत के मोबाइल पर आदमी की आवाज़ थी|

कांत समझ नहीं पाया कोई युवा है, अधेड़ या फिर वृद्ध! आवाज़ में एक झीनी सी तरावट थी, बड़ी नफ़ीस सी आवाज़ थी |

“जी, आप कौन?”

क्या उत्तर दे वह? वह वही है जिसने प्रीत के न मिलने पर ज़हर खाकर मरने की कोशिश की थी|

‘कितना स्टुपिड था वह -----‘ उसने मन में सोचा| अब इतने सालों से अच्छा-ख़ासा जीवन जीया ही है न! यूँ ज़हर खाकर नाटक करने से उसका पूरा परिवार तहस-नहस हो गया था| पिता तो पहले ही नहीं थे, नाना का ऊँचा रुतबा, समाज में ऊँची शान! और प्रीत समाज के उस वर्ग के ब्राह्मण की कन्या जिसमें उसके पिता पूजा-पाठ करके अपने परिवार का पेट पालते !

सच में, उसने नाटक नहीं किया था| वास्तव में उसे बड़ी शिद्दत से महसूस हो रहा था कि वह जी ही नहीं पाएगा उसके बिना! लेकिन परिवार के टकरावों से टक्कर लेना आसान नहीं होता था लगभग पाँच शतक पूर्व! कांत को आज तक यह बात समझ नहीं आई कि एक ओर ब्राह्मण देवता के पैर पूजे जाते हैं, उनके बिना कोई शुभ काज संभव नहीं, दूसरी ओर उन्हीं के बीबी-बच्चों से कैसा सलूक किया जाता। जैसे वो कोई अछूत हों|

कांत को अच्छी तरह याद है जब वह अपने किसी ब्राह्मण मित्र के घर कुछ खा लेता था नानी व नाना कैसे नाराज़ हो जाते थे उस पर|

"कितनी बार समझाया है कांत, हम ठहरे जात के छ्त्री और वो बामन --हमें उन्हें देने का हक़ है उनके घर खाने का नहीं "

“आपको किससे बात करनी है?” उधर से बड़ी विनम्रता से पूछा जा रहा था|

वह तो भूल ही गया था कि डायल करके खड़ा है, पता नहीं मन के किस कमरे को खोलने लगा था छैनी–हथौड़ी से!

उधर से शायद तीसरी बार आवाज़ आई।

“जी,बोलिए – किससे बात करना चाहते हैं आप?” आवाज़ में मिठास के साथ तहज़ीब का पुट भी खनक रहा था|

“जी --- शायद मैंने गलत नंबर लगा दिया लगता है ----“ उसने फ़ोन बंद करने की कोशिश की|

“नहीं, आपने ठीक नंबर मिलाया है --- लीजिए बात करिए ---“ आवाज़ ने एक अशक्त थरथराते हाथ में मोबाइल पकड़ा दिया था|

“हैलो ----“ कांत ने सुना, एक अशक्त सी आवाज़ थी, एकदम निर्बल, धीमी सी! उसका मन धकर-धकर करने लगा|

अशक्त हाथ में पकड़ा मोबाइल थरथराने लगा जैसे हाथ में कोई भूचाल पकड़ लिया हो उसने! हाथ का भूचाल! सुना या महसूस किया है क्या कभी? उसने किया जिसका पति जैसे उसे कोई करंट लगा तार पकड़ाकर कमरे से बाहर निकल गया था| उस आवाज़ को वह कब भूल सकी है? पचास वर्षों बाद भी नहीं ---लेकिन? कैसे? क्यों? सवाल बहुत थे जो उसके अशक्त मन में उग रहे थे| उसमें तो अब रोने की शक्ति नहीं बची थी – बहुत रोई थी वह उस आवाज़ को याद करके!

वह भी असहज महसूस कर रहा था| उसका दिल धड़क रहा था जैसे उन दिनों धड़का करता था जब --- लेकिन यह क्या हुआ? धीरे-धीरे उसका सारा शरीर ऊपर से नीचे तक अजनबी सा हो उठा| उसे लगा जैसे वह अपने आपे में नहीं था| थरथराने लगा पूरा आसमान, ज़मीन! दामिनी के हाथों में कैसे पहुँच गया कांत का मोबाइल? अचानक कांत की स्थिति अजीब सी होने लगी|

माफ़ी माँगकर अपना मोबाइल बंद कर दे? दूसरी ओर थरथराता हाथ सोच रहा था| लेकिन क्या यह असभ्यता नहीं होगी सोचकर वह चुपचाप सुनती रही| कुछ अजीब नहीं है? लेकिन होती हैं जीवन में अधिकतर घटनाएँ ... होती हैं जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते| वैसे कल्पना वाली कोई बात होनी तो चाहिए नहीं थी| बड़ी बात इसलिए भी नहीं कि आप न तो जान सकते हैं और न ही समझ सकते हैं कि दूसरों के भावों की क्या दशा हो सकती है? वही बात दूसरे के साथ भी तो है, वो भी आपकी मनोदशा आख़िर कैसे समझ सकता है?

“आप प्लीज़ इन्हें फ़ोन न करें --- मैं जानती हूँ आपके रिलेशन के बारे में ----“

कमज़ोर हाथ से मोबाइल छूटकर दूर जा गिरा| अचानक वे अंदर आ गए थे ज़मीन पर गिरा मोबाइल उनके हाथ में था जिसे उन्होंने एक गहरी साँस लेकर फिर से अपने कान पर लगा लिया था|

“कांत हैं न?” उन्होंने पूछा| उन्होंने मोबाइल को स्पीकर पर रखा दिया था|

“उनकी पत्नी – आप कौन?” दामिनी कड़कने लगी थी |

“ज़रा प्लीज,कांत जी से प्रीत की बात करवा दीजिए ---प्लीज़ ---“ और फिर से पत्नी के कान पर मोबाइल लगा दिया था, इस प्रतीक्षा में कि कांत की पत्नी भी उनके जैसी ही संवेदनशील तो होगी ही, वे तो पुरुष होकर ---

प्रीत को काटो तो ख़ून नहीं, वैसे ही बीमारी में उसका खून निचुड़ चुका था। क्या जवाब दे? लगा,ज़मीन फट जाए और वह उसमें समा जाए लेकिन वह सीता नहीं थी और न ही धरती उसके लिए फटने को तैयार बैठी थी| वह एक साधारण सी लड़की थी जिसका दिल अपने बचपन के साथी के लिए बालपन से ही धड़कने लगा था|अकेली उसका ही नहीं, उसके साथी का भी तो साथ ही धड़का था|

दिल तो उसका आज पचास वर्ष बाद भी धड़क रहा था जो स्वाभाविक भी था, दिल न धड़के तो सारी कहानी ही न ख़त्म हो जाए| रिश्तों की संवेदना मरती नहीं, धूल खाकर उनके नीचे सिमट जाती है| आज पचास साल बाद ये धूल किसने और कैसे साफ़ की? वृत्ताकार घूमते प्रश्नों में उसके साँस के आरोह-अवरोह उसे धीमे-धीमे सुनाई देते थे|

यह एक अलग बात है कि उसने अपने पुराने साथियों को 'सोशल मीडिया' पर तलाशना शुरू कर दिया था और उसे इतने लंबे अर्से के बाद कुछ पुराने साथी मिल गए थे जिनसे बात करके उसके दिल को ये तसल्ली हुई कि वे भी उसकी तरह अभी ज़िंदा हैं, साँसें ले रहे हैं| अपनी बीमारी को ताक पर रखकर उसने अपने सज्जन दोस्त पति के साथ मिलकर कोशिश की कि जिन-जिनसे बात हो सके, कम से कम चलते–चलाते समय में बात तो की जा सके| सबसे मिलना तो संभव था नहीं| उसी खोजा-खाजी में उसे अमिता का नंबर मिला जिसने वह नंबर कांत को पास कर दिया था| और बहुत दिनों कुंडी के खड़कने की आवाज़ को दबाकर आज न चाहते हुए भी झिझकते हुए कांत ने नंबर डायल कर ही दिया था|

भला बताओ, जिस कमरे पर कांत ने पचास बरस पहले दामिनी की सहायता से मोटा ताला ठोक दिया था, उसीको आज अपने हाथ से खोल डाला| दामिनी भी क्या सोचती होगी? क्या उसका सारा परिश्रम पानी में चला गया? वैसे अच्छा–भला जीवन बिता लिया था, सारे कर्तव्य भी अच्छे से पूरे हो चुके थे|

जीवन के अंत में सबसे बात करने की उसकी ख्वाहिश को प्रीत के पति ने बड़े ही सरल ढंग से लिया था|

वह भीतर से किसी चिथड़े की तरह तार-तार हो रही थी, अपने कंपकंपाते हाथों को पति के मोबाइल पकड़े हाथ से सटी वह अचानक अपने पलंग पर ऐसे गिर पड़ी जैसे किसी ने पीछे से कुल्हाड़ी का वार करके बरगद के विशाल पेड़ की जड़ पर कुठाराघात कर दिया हो|

उधर से ‘हलो –हलो‘ आती आवाज़ मूसलधार पानी में बहने लगी थी ||


 

लेखक परिचय – डॉ प्रणव भारती



नाम - डॉ. प्रणव भारती

जन्म –5 जून ,मुज़फ्फ़रनगर (उ.प्र ) शैक्षणिक योग्यता ; एम. ए (अंग्रेज़ी,हिंदी) पी. एचडी (हिंदी) लेखन का प्रारंभ ; लगभग बारह वर्ष की उम्र से छुटपुट पत्र-पत्रिकाओं में लेखन हिंदी में एम.ए ,पी. एचडी विवाहोपरांत गुजरात विद्यापीठ से

उपन्यास; NOVELS ----------------------- -टच मी नॉट -चक्र -अपंग -अंततोगत्वा -महायोग ( धारावाहिक रूप से ,सत्रह अध्यायों में दिल्ली प्रेस से प्रकाशित ) -नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि -गवाक्ष -मायामृग

- शी डार्लिंग (कहानी-संग्रह ) -एक दुनिया अजनबी (उपन्यास )

(डिज़िटल )

-चंपा पहाड़न ‘प्रकाशित ‘(साहित्य समर्था )जयपुर द्वारा प्रथम पुरस्कृत

-दास्ता-ए-दर्द ‘प्रकाशित ‘(अब प्रेस में )

-आख़िर किससे( धारावाहिक उपन्यास )’प्रकाशित ‘

-सलाखों से झाँकते चेहरे ( “ ) -दिल की ज़मीन पर ठुकी कीलें (लघु-कहानी-संग्रह)’प्रकाशित’

-उजाले की ओर (प्रेरक कथाएँ )--‘मातृ भारती’ में अब डिज़िटल लेखन

-दानी की कहानी (बच्चों के लिए )निरंतर प्रकाशन


पद्य रचनाएँ ; -------------- -एक त्रिशंकु सिलसिला ‘प्रकाशित’ -चंपक चूहा एवं अन्य बाल-कविताएं (बच्चों के लिए)’प्रकाशित’

-पद्य -रचनाएँ शनैः शनैः पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही हैं -(अप्रकाशित बहुत सी पद्य रचनाएँ ) भविष्य में संग्रह प्रकाशित होने की संभावना अन्य कार्यों में रही संलग्नता ; ------------------------------- -गुजराती व अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद(कहानी,कविता,उपन्यास आदि) -NID की योजना 'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया'; मुंबई के लिए अनुवाद कार्य -अहमदाबाद एक्शन ग्रुप (असाग) में को-ऑर्डिनेटर के रूप में कार्य -राष्ट्रीय डिज़ाइन संस्थान (NID) में हिंदी अधिकारी के रूप में अनुभव -इसरो (अहमदाबाद) के शैक्षणिक विभाग (डेकू )के लिए कई नाटकों व कार्यक्रमों का लेखन तथा प्रस्तुति -इसरो के डेकू विभाग के लिए सरकारी योजना के अंतर्गत (अब झाबुआ जाग उठा) सीरियल का कथानक,शीर्षक गीत एवं संवाद-लेखन (68-70 ) एपिसोड्स का लेखन (भोपाल के लिए) -इसरो (अहमदाबाद)के माध्यम से भोपाल,इंदौर के लिए पद्य में नृत्य-नाटकों का लेखन -'एजुकेशन इनीशिटिव्स संस्था' के साथ हिंदी -विशेषज्ञ के रूप में कई वर्षों तक संबद्ध -'एजुकेशन इनिशिएटिव्स संस्था ' के लिए बच्चों के शिक्षण हेतु बच्चों की सत्तर से अधिक कविताओं का गुजराती से हिंदी में अनुवाद -आई .आई. एम अहमदाबाद के साथ सात वर्षों तक हिंदी-विशेषज्ञ के रूप में जुड़ाव -लंदन में 'ए वोयेग ऑफ पीस एंड जॉय' शीर्षक से फ्यूज़न के लिए 8 भजनों का लेखन -विभिन्न संग्रहों ,पत्र-पत्रिकाओं में गद्य-पद्य लेखन में भागीदारी -आकाशवाणी एवं दूरदर्शन में वर्षों भागेदारी (कविता,कहानीपाठ,नाटक,साक्षात्कार,चर्चा,संचालनआदि

-वर्षों मंच पर सक्रियता -विराट-वैभव हिंदी दैनिक-पत्र ,दिल्ली से चार विभिन्न स्थानों क्रमश:जयपुर,जोधपुर व अहमदाबाद में 'गुजरात वैभव' के नाम से प्रकाशित पत्र में रविवारीय संस्करण का लेखन वर्षों तक ---(उजाले की ओर ) -Visiting Faculty (CITY PULS FILM & TELEVISON INSTITUTE) AHMEDABAD ,GANDHINAGAR (अहमदाबाद) तीन वर्ष पूर्व से घर से स्वतंत्र-लेखन

सम्मान एवं उपलब्धियाँ ; --------------------------- -विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मान

-साहित्यलोक संस्था ,गुजरात (54 वर्ष पुरानी संस्था )द्वारा आजीवन उपलब्धि सम्मान -अंततोगत्वा उपन्यास को हिंदी साहित्य अकादमी ,गुजरात द्वारा प्रथम पुरूस्कार -'गवाक्ष' उपन्यास श्री योगी जी ,मुख्य मंत्री (उत्तर-प्रदेश) द्वारा 'प्रेमचंद नामित पुरूस्कार' व राँची से 'स्पेनिन पुरूस्कार'

-युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच (दिल्ली ) भारतेंदु हरिश्चन्द्र सम्मान -'राही रैंकिंग' में विश्व के 100 हिंदी-लेखकों में नाम दर्ज 'हरे कक्ष में दिन भर' (साक्षात्कार संग्रह ) में श्रीमती मधु सोसी ,कहानीकार द्वारा लिया गया साक्षात्कार प्रकाशित (संपादन )श्री प्रबोध गोविल (हिंदी के प्रसिद्ध हस्ताक्षर )

रुचि ; ------- कत्थक नृत्य ,भारतीय शास्त्रीय व सुगम संगीत,पठन,लेखन,सामाजिक सलाहकार डॉ. प्रणव भारती (लेखन का नाम )





वर्तमान निवास


( डॉ .श्रीमती प्रणव प्रभा श्रीवाल ) c/o श्री मनीष शर्मा ‘कृष्ण कुटीर’ 10 बी,न्यू सूर्यनारायण सोसायटी 1 सोमेश्वर महादेव मंदिर के सामने रन्ना पार्क के पास घाटलोडिया अहमदाबाद 61 मो; 9904516484

MOB—9904516484

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