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डॉ हरीश नवल

‘गरीब कौन होता है?’



‘ गरीब कौन होता है?’ उन्होंने एक छोटा सा सादा सा सवाल पूछा।

वे गुरुदेव दुविधा में पड़ गए। जब युवासम्राट ने पूछा है तो माकूल जवाब देना होगा। सवाल कठिन नहीं था पर जवाब देना कठिन लगा। सो उन्होंने कोशिश की और सीधा सा उत्तर दिया जिसके पास रहने को अपना घर, खाने को रोटी और पहनने को कपड़ा नहीं होता, वह गरीब होता है।"

जवाब पाकर युवा सम्राट चिंतन की मुद्रा में चले गए, थोड़ी देर बाद लौट आए और बोले, गुरुदेव राजधानी में सभी नागरिकों के पास अपने घर कहाँ हैं, ज़्यादातर लोग किराए पर रहते हैं। यहाँ रोज़ सुनने को मिलता है कि किराए बहुत बढ़ गए हैं। जो इतने बढ़े हुए किराए दे सकता है तो गरीब कैसे हुआ? दूसरी बात यह कि रोटी रोज़ रोज़ राजधानी में कौन खाना है। सभी बाज़ारों में बल्कि जहाँ बाज़ार नहीं भी हैं - रेस्टोरेंट हैं, फूड मार्ट हैं, खोमचे हैं - जाओ तो जगह नहीं मिलती कोई कोई ही वहाँ रोटी खाता है, हमने तो अक्सर नागरिकों को चाउमिन, डोसे, भठूरे, पीज़ा, वर्गर, पूड़ी, टोस्ट आदि ही खाते देखा है - जो इतना पैसा खर्च करके यह सब खा सकता है - गरीब क्योंकर होगा? तीसरी बात गुरुदेव, माफ़ कीजिए आपने ही क्या कपड़े पहने हैं। पूरे शरीर पर सिर्फ एक सादी सी केसरिया धोती ही तो पहनी है। उस दिन आप हमें कुम्भ दिखाने हरिद्वार ले गए थे - स्वामियाँ, साधुओं, संतों ने पहना ही क्या था, आधा शरीर नग्न था बल्कि नागा साधुओं ने तो कुछ भी नहीं पहना था। उनकी सवारियाँ निकल रही थीं, बाजे बज रहे थे, कितने ही साधु, परोहित हाथियों पर बैठे हुए थे, सबके बड़े बड़े आश्रम हैं, वो गरीब तो नहीं कहे जा सकेंगे, वो तो राजा-महाराजा की तरह बर्ताव कर रहे थे।

गुरुदेव संकुचित हो उठे, कुछ देर कोई उत्तर न सूझा। वे स्वयं आधा तन ढके थे, रोज़ उनकी सेवा में योग कराने और उनकी शंकाओं का समाधान करने वे आते हैं। आते भी राजमाता द्वारा प्रदत्त बड़ी कार में हैं।

हठात् कह उठे, "युवा सम्राट गरीब वह होता है जिसकी आवाज़ नहीं सुनी जाती, जो वह कहना चाहता है, कह नहीं पाता है?"

"गुरुदेव, अखबारें में पढ़ रहा हूँ, टी-वी- में देखता हूँ - जजों की नहीं सुनी जा रही, प्रोफेसरों, अध्यापकों की नहीं सुनी जा रही। दुकानदारों, इंजीनियर, डॉक्टर अपनी आवाज़ अनसुनी होने पर हड़ताल कर रहे हैं। क्या वे गरीब हैं?"

गुरुदेव हकबका गए। अपनी से आधी आयु के प्रिंस को वे समझा नहीं पाए। वे गरीब की परिभाषा का निर्माण करने में दिमाग खपाने लगे, कुछ प्रकाश दिखा तो झोले से बोले, "युवा सम्राट, जिसके पास रोजगार नहीं वह गरीब होता है।"

युवा सम्राट उठकर खड़े हो गए, उनका रेशमी गाउन झिलमिला उठा, हँसते हुए बोले, "गुरुदेव क्या हम गरीब हैं? हमारा तो कोई रोजगार नहीं है। हमारे बेरोजगार दोस्त जी-एम॰ डब्ल्यू और पराडो में घूमते हैं, कुछ के पास फरारी भी है। क्या उन्हें या उन जैसों को गरीब कहा जा सकता है? नहीं ना?" कह कर वे ज़ोर ज़ोर से हँसने लगे।

गुरुदेव उनका ज़ोर सहन न कर पाए। मन मन में जाने क्यूँ एक गीत गूंजने लगा, ‘तू भाग मिल्खा, भाग ----', पर ऐसे भाग कहाँ कि वे अपनी मर्ज़ी से भाग पाते।

युवासम्राट का आदेश हुआ, "गुरुदेव इतनी सी बात नहीं बता पा रहे कि गरीब कौन होता है? यही है आपका ज्ञान आपकी साधना? तनिक दिमाग पर ज़ोर दीजिए एक कपालभाती कर लीजिए।"

शब्दों की चोट से गुरुदेव भीतर ही भीतर तिलमिला उठे। कुछ देर शीर्ष पर उगी दीर्घ केश राशि में उंगलियां घूमाते रहे। युवासम्राट समीप रखे कोच पर धंसे हुए थे पर उनकी निगाहें गुरुदेव की उँगलियों का पीछा कर रहीं थीं। वे आनंद में थे मानो आज ऊँट पहाड़ के नीचे पिस गया हो।

गुरुदेव उवाच, "गरीब वह होता है, युवा सम्राट, जिसके पास कोई बैंक बैलेंस ना हो, पल्ले पैसा ना हो।"

युवासम्राट ने ध्यान से यह कथन सुना, उसके अनुसार सोचा और पूरक प्रश्न उपस्थित किया, "गुरुदेव राजधानी में ही इतने काले धन वाले हैं जो बैंकों में खाता नहीं खोलते। बाजे वक़्त उनके पास पैसा क्या, पल्ला भी नहीं होता। क्या वे ही गरीब होते हैं?"

गुरुदेव निरुत्तर हो गए। उन्हें अपनी साधना और ध्यान शक्ति पर विश्वास खोया सा लगने लगा। तब भी उन्होंने प्रयास करके कहा, "युवा सम्राट मैं समझता हूँ गरीब वह होता है जिसका कोई विश्वास नहीं करता।"

युवा सम्राट का चेहरा विद्रूप हो उठा। उन्होंने शब्दों की कटुता भरी छड़ी उठाई और गुरुदेव की छलनी करने के बाद कहा, "गुरुदेव राजधानी में जो सबसे खुला हराभरा स्थान है जहाँ एक बड़ी गोल इमारत है, उसमें दाखिल होने वालों का कोई विश्वास नहीं करता। नागरिक अपने व्यवस्थापकों और कार्यपालकों पर भी विश्वास नहीं करते, क्या गोल इमारत में सब गरीब हैं?

"गुरुदेव आप दुनिया के सामने बड़ी बड़ी हांक लेते हैं पर हमारे आवास में आते ही लगता है आपको हांक कर लाया गया हो, यहाँ आप लल्लो चप्पों करते हैं जो हमें पसंद नहीं। देखिए आप हमें बताएं कि किन काम-धंधों वालों को गरीब कहा जाता है। सोचिए और बताइए, हमें आज पता करके ही चैन मिलेगा कि गरीब कौन होता है?"

यह प्रश्न डूबते हुए गुरुदेव को तिनका सा लगा, उसके सहारे वे कुछ उबरे और हीनभावना के पानी से तनिक बाहर आए और कुछ क्षण विचार सागर में डुबकी लगाकर मोती खोज लाए।

"युवासम्राट, गरीब आदमी प्रायः मजदूरी करता है, उसे घंटे या दिहाड़ी के हिसाब से मजदूरी मिलती है -----"

बात काटते हुए युवराज ने कहा, "मजूरी, दिहाड़ी, प्रति घंटा यानि जिसे अंग्रेज़ी में वेजिज़ कहते हैं। गुरुदेव हमें हिंदी पढ़ाने एक गुरुजी आते हैं, राजमाता उन्हे प्रति घंटे के हिसाब से पेैसे देती हैं, जिस दिन नहीं आते, उन्हें पैसे नहीं मिलते। वे तो गरीब नहीं है लगते, अपनी कार से आते हैं। उनका एक फ्लैट राजधानी मेें और एक मसूरी में है। क्या वे गरीब हैं? प्राइवेट कंपनियों में काम के घंटों के अनुसार पेमेंट होती है। हमारा नया युवा वर्ग सरकारी नहीं प्राइवेट संस्थानो में काम करना चाहता है, उसे दिहाड़ी मिलती है पर कंपनी की तरफ़ से देश-विदेश भेजे जाने पर सारा खर्च मिलता है। तो गुरुदेव यह नहीं और बताइए।"

"जी वही बता ही रहा था," संभल कर बोलते हुए गुरुदेव ने कहा। "गरीब वह हो सकता है जो दूध बेचता हो, बाल काटता हो, कपड़े धोने का काम करता हो, जूते गांठता हो, दूसरों का मैला साफ करता हो, वगैरह वगैरह ----" गुरुदेव ने सांस ली, उन्हें विश्वास था कि युवराज उनके उत्तर से संतुष्ट होंगे, यद्यपि आशंका भी थी कि युवराज ‘खाल में से बाल’ निकालने में सिद्धहस्त हैं, उनकी ऐसी खालबालात्मक टिप्पणियाँ अनेक बार अन्य विवादों में ग्रस्त हुई हैं, पर उनकी सीमा असीम है, कुछ कहा नहीं जा सकता।

गुरुदेव की आशंका निर्मूल नहीं थी। युवराज ने गुरुदेव के उत्तर का अधसिला कोट उठाया और उसके बखिए उधेड़ने लगे।

"क्या कहते हैं गुरुदेव? जो दूध बेचे वह गरीब? आप नहीं जानते कि हमारे परिवार को दूध सप्लाई करने वाला अपनी जीप में आता था, सेना की नौकरी छोड़कर कोठी, कोठी दूध बेचता था - वह गोलभवन का सदस्य बना, वह मंत्री पद तक पहुँचा - तो यह आपकी बात गलत सिद्ध हुई।

"जहाँ तक बाल काटने वाले की बात है। हमारे पिता हमारे और अपने बाल कटवाने हमें एक फाईव स्टार होटल में ले जाते थे, वहाँ बाल काटने वालों के सैलून में हमारे बाल कटते और हम फिर फाईव स्टार ब्रेकफास्ट करके घर लौटते। अभी भी हम वहीं जाते हैं या सैलून वाले यहाँ कोठी में आते हैं। उनके सैलून की शाखाएँ राजधानी क्या, अनेक शहरों में खुली हैं - आप कहते हैं बाल काटने वाले गरीब होते हैं?

"कपड़े धोने की बात भी ऐसी ही है। हमारे पुरखे तो विदेश तक अपने कपड़े धुलवाने भेजते थे। तब अपने देश में ऐसी व्यवस्था नहीं थी। अब तो हर कॉलोनी की मार्किट में कम से कम एक दुकान ज़रूर होती है, जहाँ से नागरिक कपड़े धुलवाते हैं, ये दुकानदार कितना कमाते हैं, आप क्या जानें आप तो बस एक ही पहनते भी नहीं, बस ओढ़ते हैं।

"जूते गांठने की कंपनियों के बारे में भी क्या आपको बताना पड़ेगा? देश की छोड़िए गुरुदेव, विदेश की बड़ी बड़ी जूता कंपनियां हमारे नागरिकों के लिए जूते गांठ कर अपनी गांठें मज़बूत कर रही हैं। यह भी गरीब की परिभाषा में नहीं चलेगा।

"दूसरों का मैला साफ करने का एक बड़ा उद्योग बन चुका है। यह सर्वसुलभ है। कंपनियाँ बाकायदा काँटेक्ट यानि ठेका लेती है कि वे आपके आवास, परिसर, संस्थान आदि की सफाई का जिम्मा लेंगी और एक निश्चित मासिक या वार्षिक रकम पर साफ-सफाई करेंगी। गुरुदेव ऐसी कंपनियों के कार्यकर्ता भी गाड़ियों में झाडू लेकर आते हैं --- गुरुदेव कुछ और कसर हो तो उसको भी उत्तर में शामिल करलें, गरीब कौन होता है?"

गुरुदेव किंकर्त्तव्य विमूढ़त्व की गति को प्राप्त हो चुके थे, मुख बंद हो गया पर कान शतप्रतिशत खुले थे। वे जानते थे कि युवराज तर्क और कुतर्क में अंतर नहीं जानते, गुरुदेव को ज्ञात था कि युवराज सत्य और तथ्य तथा तथ्य और भ्रम का फ़र्क कर पाने में असमर्थ होते हुए भी इतने समर्थ हैं कि उनके समक्ष गुरुदेव जैसे व्यक्तित्व भी ऊदना हैं क्योंकि तंत्र में रहते रहते का चापलूसी का मंत्र वे कभी भूल नहीं पाते हैं।

युवराज का मुख बंद होते ही गुरुदेव के कान भी बंद हो गए थे, वे शरीर नहीं आत्मा हो चुके थे जो निरंतर मरती जा रही थी --- पर तब भी कहीं उनके मस्तिष्क के एक कोने में यह शाश्वत प्रश्न कौंध रहा था कि गरीब कौन होता है। इस समय तो उन्हें वे स्वयं ही बेहद गरीब लगने लगे थे।


 

लेखक परिचय - डॉ हरीश नवल


जन्म- ८ जनवरी १९४७ को पंजाब के जलंधर जिले में शिक्षा- एम.ए., एम. लिट. तथा पी.एच.डी. की उपाधि कार्यक्षेत्र- अध्यापन एवं लेखन। डॉ. हरीश नवल बतौर स्तम्भकार इंडिया टुडे, नवभारत टाइम्स, दिल्ली प्रेस की पत्रिकाएँ, कल्पांत, राज-सरोकार तथा जनवाणी (मॉरीशस) से जुड़े रहें हैं। इन्होने इंडिया टुडे, माया, हिंद वार्ता, गगनांचल और सत्ताचक्र के साथ पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम किये हैं। वे एन.डी.टी.वी के हिन्दी प्रोग्रामिंग परामर्शदाता, आकाशवाणी दिल्ली के कार्यक्रम सलाहकार, बालमंच सलाहकार, जागृति मंच के मुख्य परामर्शदाता, विश्व युवा संगठन के अध्यक्ष, तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन में अंतरराष्ट्रीय सह-संयोजक पुरस्कार समिति तथा हिन्दी वार्ता के सलाहकार संपादक के पद पर काम कर चुके हैं। वे अतिथि व्याख्याता के रुप में सोफिया वि.वि. बुल्गारिया तथा मुख्य परीक्षक के रूप में मॉरीशस विश्वविद्यालय (महात्मा गांधी संस्थान) का दौरा कर चुके हैं। प्रकाशित कृतियाँ- व्यंग्य संग्रह- बागपत के खरबूजे, पीली छत पर काला निशान, दिल्ली चढ़ी पहाड़, मादक पदार्थ, आधी छुट्टी की छुट्टी, दीनानाथ का हाथ, वाया पेरिस आया गांधीवाद, वीरगढ़ के वीर, मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएँ, निराला की गली में। समीक्षात्मक लेख- तीन दशक, रंगमंच – संदर्भ, नव साहित्य की भूमिका और माफिया जिंदाबाद तथा छोटे परदे का लेखन संपादित पुस्तकें- भारतीय मनीषा के प्रतीक, रंग एकांकी, गद्य – कौमुदी, धर्मवीर भारती के नाम पत्र, व्यावहारिक हिन्दी, शिव शम्भू के चिट्ठे और अन्य निबंध तथा साहित्य-सुबोध। सह लेखन- भारतीय लघुकथा-कोश, विश्व लघुकथा-कोश आदि देश विदेश के अनेक संकलनों में रचनाएँ संकलित। पुरस्कार व सम्मान- युवा ज्ञानपीठ पुरस्कार, गोविन्द वल्लभ पंत पुरस्कार (भारत सरकार), साहित्य कला परिषद् पुरस्कार (दिल्ली राज्य), साहित्यमणि (बिहार), बालकन जी बारी इंटरनेशनल सम्मान, साहित्य-गौरव (हरियाणा), मीरा-मौर (दिल्ली हिन्दी साहित्य सम्मेलन), जैनेन्द्र कुमार सम्मान, फिक्र तौंसवी सम्मान, माध्यम का अट्टाहास सम्मान, काका हाथरसी सम्मान व हास्य रत्न, हिन्दी-उर्दू अवार्ड (उत्तर प्रदेश) आदि। ई मेल : harishnaval@gmail.com


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