top of page
संजय सिंह

साइकिल, सुग्गा, मैना, गाय, बकरी और भेड़

साइकिल कोठी की दीवार से सटाकर जैसे ही भुनेसर उतरा हड़बड़ी में साइकिल गिर पड़ी। वह बिगड़ा -" करोगे बदमाशी? ठीक से खड़ा भी नीं रह सकते, जब देखो धराम बजाड़ गिर जाता है। एक दिन साले इतना पीटेंगे न कि मन-मिज़ाज़ ठीक हो जाएगा।"

बरामदे में कुर्सियों पर बैठे सभी लोग  हँस पड़े। मुंशी रतन लाल ने मजाक से पूछा - "क्या हुआ भुनेसर काहे बिगड़ रहे हो?"

"ई साइकिल को बोल रहे हैं मुंशी जी।"

उसने बाड़े की तरफ बढ़ते हुए कहा - "देखिए न ससुरा बड़ा नौटंकी कर रहा। रास्ते में भी दो-तीन बार चेन उतार दिया ... इसके चलते मिठुआ, सिठुआ, कनकी, रुनकी सब से बोल-ठोल सुनिए..."

घर के लोगों की हँसी मुस्कान में बदल गयी। शाम के धुंधलके के बीच उसने कमाण्ड रूम जाकर बत्ती का स्टार्टर नीचे किया, तो दुधिया रौशनी फैल गयी। जीवन का अद्भुत प्रमेय है यह। मणि शेखर बाबू की ग्यारह एकड़ में फैली कोठी सजीव हो उठी। भुनेसर लाल का यही स्वभाव है पिछले चालीस साल से इस कोठी में रहते हुए वह ऐसे ही बोलता है और  सभी अकसर ऐसे ही हँसते हैं। यूँ तो मणिशेखर बाबू सुखपुर रियासत के जमींदार थे, पर अपना सारा कारोबार दशकों पहले वे शहर ले आए थे। बीसियों ट्रक, तेल और कोयले के डिपो, पेट्रोल पंप थे उनके पास। इनके अलावा किस्म-किस्म के व्यापार जिनको चलाने के लिए अलग-अलग लोग थे। फार्म हाउस, डेरी ...  सब कुछ अपने उरोज पर था। उनके तीनों बेटे और दामाद सब काम देख रहे थे। मणिशेखर बाबू के पिता राज शेखर बाबू फ्रीडम फाईटर थे। गाँधी और राजॆन्द्र बाबू कॆ अनुयायी।  अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में वे कई बार जेल गए और वर्द्घा आश्रम में चर्खा काटने से लेकर अछूतोद्धार में अग्रगणी नेता रहे। राजसी वस्त्र उतार कर उन्होंने गौ सेवा के साथ एक बकरी भी पाल ली थी। फलाहार और दूध छोड़कर  कुछ नहीं लेते थे। देश आजाद होने के बाद जब उनकी मृत्यु हुई, तो आंतरिक रूप से न सही बाह्याडम्बरों के लिए मणि बाबू ने भी उनके इन आदर्शों को प्रतीकात्क रूप से संस्थागत रूप दे डाला। कांग्रेस पार्टी में उनकी पैठ बनी रही। बाद में उन्होंने समय-समय पर पार्टी बदली। मगर गाय, बकरी, तोता, मैंना रह गए। मौजूदा सरकार के गो प्रेम को देख कर इसे चलाते रहने के औचित्य का पुनर्नवीनीकरण करना उन्हें फायदेमंद ही लगा। आम का आम गुठली का दाम। गाय का तिलिस्म बना रहे, बस।

भुनेसर पन्द्रह बरस की उम्र से उनकी सेवा करते बूढा हो चला था। सुबह-शाम गाय-बकरी को खिलाना-पिलाना, दूहना-गोंतना सब उसी की दिनचर्या। मणिबाबू मांसाहारी भी थे मगर गाय के दूध के अलावा बकरी का दूध भी पीते थे। धीरे-धीरे परिवार के बढ़वार के साथ कोई खरहा ले आया, तो कोई  सुग्गा। नाती-पोतों की कमी न थी। सुबह आने के बाद  भुनेसर दोपहर एक बजे घर जाता था, फिर दो बजे से आठ बजे के बाद रात में। कनकी बकरी का नाम, मनकी गाय का, मिठुआ तोते का, टिटुआ खरगोश का, सिठुआ रामलाल भेड़ा का ... झंडूलाल साइकिल का ... उसे  तब से अब तक उस दुनिया के अतिरिक्त गैरेज, फुलवारी आदि का काम भी बोनस में मिलता गया था। सवारी गाड़ी साइकिल के साथ बारह हजार उसकी तनख्वाह थी, जो उसके बड़े कुनबे को चलाने के लिए कम नहीं थी। तीन-तीन बेटियों के ब्याह और दोनों बेटों को  पढ़ाने में उसकी यह नौकरी राम बाण दवा थी। कोई कुछ बोले, उसकी अपनी दुनिया और ड्यूटी थी। वह लगा रहता था।

 

मनकी गाय को खाना-पानी देने के बाद बकरी को उसने  पानी दिया और कहा - "खाओ, आज दूध नहीं सटकाना, कनकी? तुम्हारा डोज भी बढ़ गया है।"

और फिर मनकी से कहा - "माता जी, आपका मन ठीक है न? झंडू लाल ने आज बड़ा पेरा है ... आप टांग नहीं पटकिएगा।"

वह जैसे ही मुड़ा, मिट्ठू बोला - "अरे इधर भी कुछ दो बेटा भुनेसर, घर जाकर सो जाते हो। कुछ हम लोगों का भी खयाल किया करो।"

"हाँ-हाँ आ रहा हूँ, बेटा।" वह उखड़ा। " बक-बक मत कर। साले राम का नाम लो। मुफ्तखोरों को ज्यादा भूख लगती है..."

"रामलाल तू ससुरा कैसे आ गया मोरंग से? और कोई जगह नहीं मिली? यहाँ अपने जान पर आफत है ... इसको देखो, मूत साला मूत। तेरे मूत का कुछ नहीं बनेगा। ई ससुर टिटुआ। मेला से नुनू बाबू ले आए, तो यह भी  उतना ही खेला करता है। जैसे भुनेसरा को भूख, प्यास और निबटान नहीं चाहिए।"

 

ब्याह कर आयी झलारी वाली तो भुनेसर की बात पर पहली रात ही हँस पड़ी। उसने प्यार से कहा – “तू तो कनकी जैसी है..."

"कौन कनकी?"

“अरे मणि बाबू की बकरी"

"तुम बकरी चराते हो?"

वह लजा कर चुप हो गया। मौके पर लगा चूक हो गयी। अभी उससे यह गलती नहीं होनी चाहिए थी, मगर फिर उसे लगा हो भी गयी तो क्या, बाद में भी जानती ही। वह नौकर नहीं तो क्या है?

 

धीरे-धीरे झलारी वाली झलकी भी सब समझ गयी। गरीब के जीवन में काम का और चाम का क्या मोल। जो भी मिले करो। अम्मी के साथ घर का काम उसने संभाल लिया। जिन्दगी पटरी पर चलने लगी। भुनेसर के बब्बा थे नहीं, साँप काटा सो बचपन में अनाथ छोड़ मर गए। माई ने किसी तरह पाल-पोस कर काम और ब्याह के लायक किया। मणि बाबू के यहाँ नौकरी लगी, तो भुनेसर की जिन्दगी में ठौर आ गया। झलकी के बाप ने अनुभव से भुनेसर के खूँटे पर अपनी बिटिया रूपी बकरी बाँधी थी और उसने कहा भी रुनकी जैसी लगती  हो ... सच्ची कहा!

भुनेसर समय बचाकर भाग आता, तो वह भी हँसी-मजाक कर लेती। " मिठुआ क्या बोला? झुनकी तुमको चाहती है कि नहीं?"

"पहले बहुत चाहती थी।" वह भी मजाक करता - "उस दिन बोली, मेरी सौत आ गयी झलकी, अब उसी में लगे रहते हो ..."

दोनों हँस पड़ते। कोई न कोई स्मृति भुनेसर को घेर लेती, वह कहने लगता - "जो कहो, रुनकी बहुत बदमाश है, एक दिन मैंने नाराज होकर कहा, भाग उड़, मैं मणिबाबू से सुलट लूँगा। बहुत बक-बक करती है ..."

बोली - "भुनेसर भैय्या जवानी भर कैद में रही, अब बुढ़ापा में कहाँ जाऊँगी, मैं नहीं उड़ूँगी। तुम कितना भी भगाओ, अब यहीं रहूँगी।"

"सच्ची! झलकी उस की नाभि पर हाथ रख कर कहती - "तुम बहुत भोले हो ... एकदम कच्चा हीरा! खरा सोना! पशु-पक्षी की भी भाषा-बोली समझते हो ...  हीर-पीर सब!"

"अरे कनकी को दूहते समय थन में गुदगुदी लगती है, बहुत टाँग पटकती है ..." वह मसखरी करता - "शुरु-शुरु में तो उछल जाती थी ..."

धत! वह भाग जाती। 

 

भुनेसर के पास बहुत कहानियाँ थीं, पर उतना कहने का और सुनने का समय किसी के पास नहीं था। लगातार उन जीवों के साथ रहते हुए वह उनकी भाषा-बोली समझने भी लगा था। मणि बाबू की राजनीति गाय-बकरी को लेकर जो हो, पर वह तो मानो अपने काम में ही डूबा रहता। फुर्सत थी नहीं, और झलकी के आने से जिन्दगी फुर्सत माँग रही थी।

एक रोज वह जैसे ही दोपहर के समय आया, झलकी ने कहा - "जरा बाजार जाओ।"

"नहीं, झण्डु अभी नहीं जाएगा।"

"कौन झण्डू?”

"साइकिल।"

"क्या?" झलकी बिफरी, "मनई हो कि जिनावर-पत्थर?"

"पूछो तो झण्डू से? जाएगा?"

"बाजार तुम जाओगे कि झण्डू जाएगा?"

"वही न जाएगा।"

"पागल मत बनो ...”

"इसमें पागल बनने की क्या बात है?" वह भी बमका - " उसकी हवा निकल गयी है, काँटा लगा है, अभी नहीं जाएगा?"

"अगर कनकी-झनकी कहे तब?"

"तब तो जाना पड़ेगा।"

"तो जाओ।"

 

बाजार से नीम-नीबुआ, नमक शक्कर-सारी लेकर गर्मी में लौटते देर हो गयी, तो गुस्सा में वह बिना खाए ही कोठी के काम पर चला गया। जिनावर बाड़े के पास अपने कमरे में लेटा ही था कि उसे लगा सिठुआ कनकी बकरी को पटिया रहा है। उसने एक छड़ी दी - " साला प्यार करता है। अभी कनकी कहेगी तो बाजार जाएगा तू?"

वह वापस आ गया। सुराही से पानी ढाल कर पीया और फिर रुनकी मैना से बोला - "तू काहे मन मारे बैठी है। बोलो ब्याह करेगी?"

“किससे?”

"मिठुआ से और किससे?"

"ना बाबा, ना।" रुनकी बोली - "अब बुढ़िया हो गयी हूँ। घर बसाओ तो दस काम। कभी मरद गुस्सा में, तो कभी औरत। हरदम ताल बिठाओ। फिर बाल बच्चों का लफड़ा।"

 

भुनेसर भरम रहा था। अचानक चौंका, टिटुआ खरगोश पर आज उसकी नजर नहीं पड़ी थी। मणि बाबू की छोटकी पंटू का प्यारा है। वह झपटा। गार्डेन में दुबक कर घास टूंग रहा था - "चल बेटा! पिंजड़ा में चल!" वह हंका कर ले आया।

समय को बीतते क्या देर लगती है। गायों बकरियों के संतति-विस्तार के बीच झलकी के साथ वह भी बूढ़ा होता गया। उसके भी पाँच बच्चे हो गए - कम्मो, रम्मो, फुलकी, राजू, पलकू। इधर गायों के  और बकरियों के भी बच्चे बढ़ते गए। भुनेसर ने यह अनुभव किया था कि गायों और बकरियों के बच्चों को  उसके मना करने पर भी  मणि बाबू फार्म हाउस भेज देते थे। मगर एक गाय और बकरी , जिनके दूध का वे नित सेवन करते थे, उनको ही कोठी पर रखने का उनका संकल्प कायम था, जो किसी रहस्य अथवा मंगल-भाव से जुड़ा था। फर्क इतना रहा कि ये जानवर जीव मरते-हरते रहे, मगर इनके नाम भी  पड़ते रह गए। जैसे जमाना बदल गया,  भुनेसर फिर भी भुनेसर का भुनेसर रहा। खाली समय में गार्डेन को पानी देना और फूल-पत्ती से गप करने का बिंदास मौका झलकी से मिलने जैसा भले लगता रहा हो, मगर वक्त किल्लत ही रहती। वह करे तो क्या! इतने लम्बे अर्से में उसने अचंभे में कई बार खद्दर धारियों और एस.पी और डी,एम. को जीवाश्रम में आते देखा था। उस दिन बाड़े को चमकाने के लिए भुनेसर को अलग से फार्म हाउस के मजदूरों का भी साथ मिलता।  तजुर्बे से वह जैनरेटर और मोटर का भी मैकेनिक हो गया था। मगर कुछ विशेष अवसरों के बाद अपनी अलहदा दुनिया का वही मालिक था। दूध अन्दर पहुँचाने के बाद उसका उधर का काम  लगभग खत्म। दूध सूखने पर दूसरी मनकी और कनकी आ जातीं। कभी माँ तो कभी बेटी। नाम वह बदले, वह जाने। झनकी, रुनकी ... इसलिए उलटा-पुलटा भी बोलता।

छुट्टियों में बच्चे आए हुए थे। भुनेसर परेशान था। मणि बाबू के नाती-पोते सवाल करते-करते उसे थका देते। घर में अपने बच्चे।

"बाजार से आए बाबू?"

"झण्डू खुद थका हुआ है।"

"मतलब?"

"वह जा पाएगा?"

"वह क्या आदमी है, जो बोलेगा?" 

माँ इशारा करती - "ले जाओ।"

बाद में बच्चे बाबू की बात पर सब खूब हँसते।

"रूनकी ... पानी लाओ।" भुनेसर कहता, तो कम्मो बिगड़ जाती - "मैं गाय-बकरी नहीं हूँ, कम्मो बोलिए, तो दूँगी।"

"दो न?"

बुढ़िया के मरने के बाद से भुनेसर को लगता है कि अब झलकी को भी उसका खयाल नहीं। पहले कोठी से आते वह पानी लेकर दौड़ती ...  जल्दी से खाना खाने के बाद पलकू पर बिगड़ कर वह निकल गया। इधर से मनकी उसे कुछ कह रही थी, पर वह भी मटिया देता था। असल में वहाँ भी बच्चे उससे पूछते - "दादा मिठुआ क्या बोलता है? कनकी कैसे रोती है, सिठुआ, टिटुआ भी गप्प करता है क्या आपसे?"

"हाँ, हाँ - सबकी अपनी दुनिया है, दुख-सुख, पीड़ा-जरूरत चुप रहने से चलेगा?" और वह क्या कहे, कि तुम्हारे वाले तो गए...

“दादा यह वही मोरंग वाला सिठुआ है न"

"हाँ, हाँ।"

"यह रंगैली बाजार वाली मैनी?"

"हाँ तो ।"

"क्या बोलती है?"

"यही कि हमारा देश, नदी, पहाड़ हमको याद आता है ..."

"तो, उड़ा दो न।"

"अरे पहले बोलती थी ..."

"अब नहीं?"

"नहीं।"

"तो अब क्या बोलती है?"

"अब कहती है, क्या करूँगी जाकर ... अब कौन पहचानेगा वहाँ ... सब बदल गए होंगे, नदी- पहाड़- जंगल उजड़  गए होंगे... अब यहीं रहूँगी भुनेसर भैय्या ..."

जाड़े की शाम थी। जैनरेटर रूम में स्टार्टर मारने के बाद भुनेसर मणि बाबू के सामने जाकर खड़ा हो गया। मणि बाबू को लगा कोई जरूरत कहने आया होगा, सो बोले - " कहो..."

"मनकी बोली दूध नहीं देंगे।"

उनका मन हुआ कि वे जोर से हँसें,पर दबाकर बोले - "काहे?"

"बोली पेट में गैस है, पहले दवा दो।"

डा.घोष को उन्होंने फोन लगया डाक्टर आए, तो वह हटा। इलाज के बाद चाय पीते हुए मणि बाबू ने कहा - " घोष बाबू, गाय सचमुच बीमार थी क्या?"

"जी थी तो।" फिर उन्हौंने  कुछ सोच कर कहा -"क्यों?"

"नहीं, ऐसे।"

"एक बात कहूँ, सर!" घोष बाबू ने उठते हुए कहा।

"कहिए।"

"आप बुरा नहीं न मानेंगे?"

"नहीं।"

"पशु-पक्षियों के साथ रहते हुए भुनेसर भी जानवर जैसा हो गया है। वह उनके बिहेवियर का एक हिस्सा हो गया है ... समझिए जानवर ही है वह!" वे मुसकूराए, पर मणि बाबू सन्न रह गए। भुनेसर पर उन्हें दया आयी।

डाक्टर को कुछ अटपटा लगा, तो उसने संभाला - "नॉट कम्पलीटली सर ... बट कुछ तो है ... इफ यू डीकोड दिस मैन ... दैट एनीमल विल बी सीन।" उन्होंने फिर संभाला - "मे बी पॉसिबल ... ऐसा होता है, सर ... कंडिशनिंग के कारण ..."

अचानक मणि बाबू को मौन देखकर वे उठ गए - "दवा दे दी है, ठीक हो जाए,  तो फोन कर दीजिएगा।"

"कौन?" मणिबाबू ने शालीनतावश अपने को हल्का करते हुए मजाक किया - "मनकी, कि भुनेसर?"

इस बार अकबकाने के बाद चलते-चलते डाक्टर घोष हँस पड़े और बोले - "मनकी सर! बीमार तो वही है ..."

 

"अब क्या है?" भुनेसर को फिर दूसरे दिन सामने देख कर  मणि बाबू बोले - "तू भी सठिया गया क्या? एनीमल डाक्टर भी एनीमल और तू भी ... दूध की कमी है क्या? फार्म हाउस पर गाय-बकरियाँ नहीं। यह वर्द्धाश्रम से पोलिटिकल कनैक्शन है। एक राजनीतिक डैमो ... अब मौजूदा राजनीति से भी ..." खुद में कुछ देर उलझने के बाद वे बोले - "बोलो न?"

"रामलाल सिठुआ मर गया।"

" कैसे?" उन्हें बिजली सी लगी।

"पहले से बूढ़ा था।"

"बच्चों को मालूम हो गया? "

“नहीं।"

"बोरे में लपेट कर साइकिल पर ले जाकर कहीं फेंक दो।" मणि बाबू ने हड़बड़ा कर रुपये निकालते हुए कहा - "और दूसरा मिलता-जुलता खरीद लाओ। कोई जाने नहीं। नहीं तो बच्चों के दिल टूट जाएँगे। वे बहुत बखेड़ा करेंगे।"

भुनेसर को  पहली बार सब अटपटा और असहज लगा। पर बाद में जब बच्चों ने दूसरे भेड़े को भी  रामलाल सिठुआ ही समझा तो उसे लगा कि इस दुनिया में किसी के होने और नहीं होने का कोई मतलब नहीं। असलबात है दिमाग! सच को झूठ में और झूठ को सच में बदलने की ताकत। पैसे हों, तो दुनिया को झाँसा दिया जा सकता है ... विकल्प दिया जा सकता है..."

शाम को यही बात घुमा-फिरा कर अपने बच्चों से भुनेसर ने कही कि कैसे रामलाल सिठुआ मरकर भी नहीं मरा, मगर ऐसा सबके साथ नहीं हो सकता। बच्चों का ध्यान कहानियों से ज्यादा झंडू पर था और झलकी का महीने की पगार पर। उसकी बात लगभग अनसुनी रह गयी। झलकी को उसने देखा तो वह रनकी मैना की तरह झिलंगी लगी, पहली, दूसरी, तीसरी ... मैनी भी बदलने के बाद झिलंगी। वह खुद भी झिलंगा।

भुनेसर का मन भरम रहा है। रामलाल सिठुआ की तरह उसे भी बदल दिया जाएगा। इन पचास वर्षों में उसने तीनों बेटियों के विवाह किए। माँ का श्राद्ध। दसियों बार झलकी को अस्पताल ले गया। कम्मो, रम्मो, फुलकी की दस जरूरतें पूरी कीं ... राजू को नौकरी लगवायी मिन्युसपैलिटी में ... पलकू  मैट्रिक में लटक गया अभागा ... अब उसकी  जिन्दगी के जैनरेटर रूम में उसकी मशीन भी धड़धड़ा कर चल रही है ... उसका फीटर लाचार ... मणि बाबू भी बेड रेस्ट पर। अन्दर नया रिमोट और इनभर्टर ... फणि बाबू, तालो बाबू और फट्टो बाबू उस पार्टी में जिसकी हवा... बकरी के दूध की जरूरत डेंगू बुखार में पड़ी फट्टो बाबू को.. पपीता ...अनार ... गिलोय ...

 आज वह खुद बेहोश पड़ा हुआ है सरकारी अस्पताल में ... डिलेरियम में सिठुआ, मिठुआ  कनकी मनकी की कहानी चल रही है ... घोष बाबू मनकी को बचाइए, कनकी, रुनकी ... झनकी कोई मरे नहीं ... रात भर रोई झनकी। कनकी को बहुत तकलीफ है।"

राजू और पलकू रो रहे हैं - "बचाइए सर हमरे बाबू को।"

झलकी रो रही है, बेटियाँ और दामाद आ रहे हैं ... खबर हुई है।

"आउट आफ डेंजर।" डाक्टर ने कहा - "मेयर साहब, यानि फणि बाबू का फोन आया है ... प्लेटलेट्स की संख्या सुधर रही है, नहीं होगा, तो गाय का प्लाजमा चढ़ाया जाएगा ... इट्स इनफ!”

डाक्टर में मानो डाक्टर घोष बोल रहा था।

भुनेसर के परिवार के लोगों की पनियायी आँखों की कोर में उम्मीद की किरणें उभर रही थीं, गाय के प्लाज्मा से बनी दवा ... विदेश से मँगवा रहे हैं मेयर साहब ... उन्हें आश्चर्य और विस्मय के बीच गाय का महत्व समझ में आ रहा था ...

 


 

लेखक परिचय – संजय कुमार सिंह

नाम- संजय कुमार सिंह

जन्म- 21 मई 1968 ई.नयानगर मधेपुरा बिहार।

शिक्षा- एम.ए. पी-एच.डी(हिन्दी)भा.वि.भागलपुर।

रचनात्मक उपलब्धियाँ- 

हंस, कथादेश, वागर्थ, उद्भभावना,परिकथा, नया ज्ञानोदय,  पाखी , साखी, पुष्पगंधा, नवनीत, इन्द्रप्रस्थ भारती, आजकल, अविराम साहित्यिकी, वीणा, अहा जिंदगी, चिंतन दिशा, हिंदी चेतना, हरिगंधा, संपर्क भाषा भारती, कथाबिंब, दोआबा, कथाक्रम, लहक, कलायात्रा, प्राची, परिंदे, अक्षरा , गगनांचल, विपाशा, हिमतरु, साहित्य अमृत, समकालीन अभिव्यक्ति, मधुराक्षर , प्रणाम पर्यटन, परती पलार, नया, विचार वीथी, प्रणाम पर्यटन, संवदिया, गृहलक्ष्मी , साहित्य कलश, रचना उत्सव, दि अण्डरलाइन, हिन्दुस्तानी जबान, सृजन सरोकार, सृजन लोक, नया साहित्य निबंध, पाठ, किस्सा, किस्सा कोताह, नवल, ककसाड़ , एक और अंतरीप, अलख, नया, अग्रिमान, हस्ताक्षर, नव किरण, आलोक पर्व, लोकमत, शब्दिता, दूसरा मत, उदंती, काव्य-प्रहर, नव निकष, समय सुरभि अनंत, पुरवाई, स्वाधीनता ,रचना उत्सव, प्रखर गूँज, अभिनव इमरोज, शोध-सृजन, पश्यंती, वर्त्तमान साहित्य, कहन, गूंज, संवेद, पल, प्रतिपल, कला, वस्तुत: उमा, अर्य संदेश, गूँज, सरोकार, द न्यूज आसपास, कवि कुंभ, जनपथ , अपरिहार्य , मानवी, अलख, साहित्य समीर दस्तक, सरस्वती सुमन, हिमतरु, हिमालिनी, अंग चम्पा, हस्ताक्षर, मुक्तांचल, साहित्य यात्रा, विश्वगाथा ,विश्वा, शीतल वाणी, अनामिका, वेणु, जनतरंग , किताब , चिंतन-सृजन, उदंती, स्पर्श  समकालीन, सुसंभाव्य, साहित्यनामा, हिमाचल साहित्य दर्पण, दैनिक हिन्दुस्तान, इन्दौर  समाचार, मालवा हेराल्ड, कोलफील्ड मिरर, नई बात, जनसत्ता, प्रभात खबर आदि पत्र- पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ,आलेख व समीक्षाएँ प्रकाशित।

प्रकाशित कृतियाँ-

1 टी.वी.में चम्पा (कहानी संग्रह) सस्ता साहित्य मंडल दिल्ली

2 रंडी बाबू ( कहानी- संग्रह)जे.बी.प्रकाशन नई दिल्ली

3 कैसे रहें अबोल( दोहा-संग्रह) यश प्रकाशन दिल्ली

4 धन्यवाद-( कविता संग्रह) नोवेल्टी प्रकाशन पटना।

5 वहाँ तक कोई रास्ता नहीं जाता-(कविता-संग्रह)अधिकरण प्रकाशन दिल्ली।

6 लिखते नहीं तो क्या करते-(कविता-संग्रह) वही।

7 रहेगी ख़ाक में मुंतज़िर-(उपन्यास) वही

8 सपने में भी नहीं खा सका खीर वह!(उपन्यास) वही

9 समकालीन कहानियों का पाठ-भेद( आलोचना की पुस्तक)यश प्रकाशन दिल्ली।

10- कास के फूल ( संस्मरण)वही

11करवट (कहानी-संग्रह)न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन नई दिल्ली।

12 अँखुआती है फिर भी जिंदगी (काव्य-संग्रह) सृजन लोक प्रकाशन नई दिल्ली।

13 आलिया की कविता का सच(कहानी-संग्रह)अधिकरण प्रकाशन दिल्ली।

14 लाल बेहाल माटी (कहानी-संग्रह) अधिकरण प्रकाशन दिल्ली।

15 हजार पंखों का एक आसमान (कहानी-संग्रह) अधिकरण प्रकाशन दिल्ली।

16 गरीब रथ(कहानी-संग्रह)अधिकरण प्रकाशन दिल्ली

17 लेफ्ट कार्नर (कहानी-संग्रह) सृजन लोक प्रकाशन, दिल्ली

 

सम्प्रति- प्रिंसिपल, पूर्णिया महिला कालेज पूर्णिया-854301

9431867283/6207582597




इस अंक की प्रतियाँ गूगल प्ले या ऐमेज़ौन से खरीदी जा सकती हैं


0 टिप्पणी

हाल ही के पोस्ट्स

सभी देखें

Comments

Rated 0 out of 5 stars.
No ratings yet

Add a rating

आपके पत्र-विवेचना-संदेश
 

bottom of page