अचानक मिसेज गुटगुटिया पेट पकड़कर “ओक ओक” करती फर्श पर ही हड़बड़ाकर उल्टी कर देती हैं। एक क्षण को पूरा शोरुम फदफदा आए दही की तीखी सड़ांध से गंधा उठता है।
"अरे... अरे..!" गुटगुटिया साहब की संपूर्ण चेतना काउंटर पर बिखरे “रेमोंड्स” के वस्त्रों पर केंद्रित थी। उल्टी की आवाज पर चौंककर पलटते हैं - "क्या हुआ डार्लिंग?"
“कुछ नहीं... बस जरा उल्टी...", मिसेज गुटगुटिया उल्टी के ढेर को देखकर अपराध-बीच से अकबका जाती हैं और झेंप मिटाने के लिए होंठों पर सूखी मुस्कुराहट खींच लाती हैं। तभी चेहरे पर पीड़ा की अमूर्त-लहर दोवारा हावी हो जाती है और फर्श पर पड़ी उल्टी का वृत्त “ओऽऽऽक” की पुनरावृत्ति के साथ कुछ और बढ़ जाता है।
शाम का धुंधलका कोसों दूर खड़ा कनखी मारने लगा है। बाजार का पूरा वातावरण तेज रोशनियों एवं नियोन लाइटों से जगमगा उठा है। शहर के सर्वाधिक पॉश एरिया का खूबसूरत मार्केट कॉमप्लेक्स! चिकनी सड़कों पर फर्राटे से फिसलते वाहनों की कतारें! शाम के समय खरीददारों की चहल-पहल से मुखरित फिजां! ऐसे में शोरूम की इस अप्रत्याशित स्थिति को देखकर पांचकोड़ी बाबू के दिमाग का बल्ब भक् से उड़ जाता है। उचककर आग्नेय नजरों से देखते हैं, काउंटर के बाहर पूरे फर्श पर उल्टी से जैसे आस्ट्रेलियाई मानचित्र की रंगोली रच दी गई हो। काउंटर की दीवारों पर भी जहाँ-तहाँ छींटे आ चिपके थे। पूरे शोरूम में अजीव-सी सड़ी हुई खटास घुमेरे घाल रही थी।
"पानी मिलेगा थोड़ा...?” गुटगुटिया साहब के चेहरे से सम्पन्नता का रुआब वैसे ही चू रहा था जैसे झल्ली ढोते मजदूर के चेहरे से पसीना। एक हाथ में पानी का जग और दूसरे हाथ से मिसेज की बांह थामे वे सामने फुटपाथ के सहारे खड़ी “ऑडी” तक आते हैं। मिसेज गुटगुटिया कुल्ला करके कार की सीट पर निढाल-सी पड़ जाती हैं। पांचकौड़ी बाबू भी गुटगुटिया साहब के साथ कार तक चले आते हैं। नजरें मिसेज के गोरे और भरे चेहरे पर से रेंगती हुई गले के नीचे लुढ़कती है और युग्म वक्षों के बीच की उपत्यका पर ठहर जाती है। उपत्यका के मुहाने पर ढीठता से चिपके उल्टी के कुछ कण गुटगुटिया साहब का ध्यान आकर्षित करते हैं तो वे उस जगह पर रुमाल रगड़ने लगते हैं।
“प्रेगनेन्ट हैं न... ", गुटगुटिया साहब पांचकौड़ी बाबू की ओर देखकर मुस्कुराते हैं। मुस्कुराहट पांचकौड़ी बाबू के कलेजे में छुरी सी चुभने लगती है। विवाह-लग्न का सीजन चल रहा। शाम के वक्त ग्राहकों की गहमागहमी शिखर पर रहती है। आसपास के शोरूमों में खरीददारों की भीड़ लगी है। लेकिन यहां... फर्श पर पड़ी ऑस्ट्रेलियाई मानचित्र की लक्ष्मण-रेखा को लांघकर कौन भीतर आये? दो-चार ग्राहक थे भी तो उल्टी की दुर्गंध से घबड़ाकर बिना खरीदे, यह जा - वह जा!
पांचकौड़ी की आँखों में खीझ के भाव उभरने लगते हैं जिन्हें वे छद्म मुस्कान से छुपा लेते हैं। दूसरा कोई ग्राहक होता तो कभी का उसको तीखी झाड़ की घुट्टी पिला चुके होते - “प्रेगेनेन्सी... वो भी मेच्योर! ऐसा नाजुक टाइम में मार्केटिंग के लिए आने का बहादुरी काहें? एक-डेढ घोंटा का सेल मार खाया! लॉस के देगा...तोमरा दादू?”
लेकिन गुटगुटिया साहब शहर की जानी-मानी हस्ती हैं। दो हार्डकोक और एक स्पॉन्ज आयरन फैक्ट्री के मालिक! करीबन आठ सौ लेबर काम करते हैं। वर्करों की ड्रेस का ठेका लाखों का होता है जिसे लाख जोड़-तोड़ के बावजूद पांचकौड़ी बाबू हथियाने में सफल नहीं हो सके थे अब तक।
"जरा सी वोमिटिंग से चेहरा कैसा निचुड़ गया। तुम बैठी रहो, मैं बिल पे करके अभी आया।” मिसेज निःश्वास छोड़ती हुई सहमति में सिर हिला देती हैं। गुटगुटिया साहब पांचकौड़ी बाबू के संग शोरूम में आते हैं। दुर्गंध से बचने के लिए दोनों ने नाक पर रुमाल डाल लिया है। गुटगुटिया साहब बिल अदा करते हैं और पैकेट उठाकर कार की ओर बढ़ने लगते हैं कि पांचकौड़ी बाबू मरी आवाज में हिनहिनाते हैं - “सर... ये बोमी (उल्टी)...?"
"बोमी...?" गुटगुटिया साहब चौंकते हुए से उल्टी को देखते हैं - “विश्वास कीजिए पांचकोड़ी बाबू. यह अचानक हो गया। प्रेगनेन्सी की हालत में मार्केटिंग की जिद कर बैठी मैडम। सच, आई एम रियली वेरी सॉरी दादा।"
"नो नो सर, उसके लिए कोई बात नेई ..." पांचकौड़ी बाबू एक दम सकपका जाते हैं -”हमारा मतलब है, सिरीफ इसका सफाई का इंतजाम कर देता तो..."
"इंतजाम? इसमें इंतजाम करने जैसी बात क्या है?" गुटगुटिया साहब तमक उठते हैं -"अरे बाबा, शोरूम में इतने स्टाफ हैं, किसी से भी कहिए एक दो बाल्टी पानी ढाल कर बहा दे। नौ प्रॉब्लम!”
"जल के निकास के लिए नाली भी तो चाहिए। नाली कहाँ है!” पाँचकौड़ी बाबू के लहजे में मायूसी घुली है - “मालूम नेई बिना नर्दमा (नाली) के बिल्डिंग का नक्शा सरकार पास कैसे कर दिया?”
बगल वाले शोरुम के भीखम भाई झवेरीवाला लपकते पांचकीड़ी बाबू के पास चले आते हैं, "अरे पांचू साईं, सरकार को काहे कोस रहा? अभी सब जगह सेटिंग का सिक्का चल रहा। सेटिंग बोले तो परसेंटेज! ऊपर से नीचू तक परसेंटेज का बिसात बिछेला है। जिसको परसेंटेज मिल गया वह खुश! जिसको नहीं मिला सका, बागी होकर सिद्धांतों की दुहाई देता फिर रहा।”
गुटगुटिया साहब को दूसरा विकल्प प्रस्तुत करते हुए एक पल भी नहीं लगता - “किसी नौकर से कहिए पुराने चट-वट के टुकड़े में लपेट कर फेंक दे और पानी का पोंछा मार दे।" पाँचकौड़ी बाबू सहमति में सिर हिलाते निमाई को पुकारने के लिए उद्यत होते हैं तो चौंक उठते हैं। शोरूम के पांचों सेल्समैन इसी बीच बदबू से बचने के लिए काउंटर से निकल कर बाहर फुटपाथ पर आ खड़े हुए हैं। हवा के हिंडोले पर चढ़कर गुटगुटिया साहब की बात उन तक पहुँच चुकती है और उमेश तीखे स्वर में फुफकार उठता है - “पहले “नौकर” शब्द को विथड्रॉ कीजिए सर। इतना बड़ा एक ठो शोरूम का सम्मानित स्टाफ को नौकर बोल रहा...हंह! भद्र भाषा में तो बात कीजिये।”
“हां हां ... नौकर शब्द विथड्रॉ कोरते होबे ... कोरते होबे!" सारे स्टाफ समवेत स्वर में नारे लगाने लगते हैं। इन लोगों के नारेबाजी से आकृष्ट होकर पदचारी जमा हो जाते हैं। पांचकौड़ी बाबू घबड़ा उठते हैं। संगठित यूनियन हैं दुकान कर्मचारियों की। इन लोगों को बहाना चाहिए। दौड़ कर यूनियन लीडरों को बुला लाएंगे और शोरूम के सामने लाल झंडा लग जायेगा। लग्न-ब्याह का सीजन है। कुछ समय पहले मोड़ के शोरूम वाले दासगुप्ता बाबू के मुँह से किसी स्टाफ के लिए “बोका” (वेवकूफ) शब्द निकल गया था। यूनियन ने बात को इतना खींचा कि शोरूम दो माह बंद रहा।
"आप लोगों को क्या कभी उल्टी नहीं होती?" गुटगुटिया साहब के लहजे में तीनों कारखाने का सम्मिलित अर्थतंत्र थिरकने लगता है - "चट में लपेटकर फेंक देने से इज्जत घट जाएगी?”
"वाह सर, अभी बोमी सफा करने बोल रहा। थोड़ी देरी में पखाना कर के आएगा, बोलेगा सफा करो... हंह! क्या समझ रहा हम स्टाफ लोग को!”
गुटगुटिया साहब का चेहरा खीझ व अपमान के भाव से तमतमा उठता है। दो कौड़ी का लेबर, किस तरह जबान चला रहा है। कार के ड्राइवर को कहने से इनकार तो नहीं करेगा, पर वह ब्राह्मण है... पांडे! ब्राह्मण से उल्टी साफ कैसे करायें!
“गुटगुटिया साहब हम लोग का सम्मानित खरीददार हैं। उनका तरफ से हम माफी माँग रहा।”
पांचू बाबू कुशल नट की तरह बात के सूत्र को लपक लेते हैं - “आइए सर... इधर आइए।”
गुटगुटिया साहब की बांह थामकर कार की ओर बढ़ते हुए फुसफुसाते हैं – “इन लोगों के मुँह लगना ठीक नई सर। अभी इन सब के मुंडू (खोपड़ी) पर यूनियन का बेताल सवार है। आप थोड़ा ठहरिए, हम कोई मेस्तर ( मेहतर) या भिखारी को बुला रहा। अपना सामने में सफा करा दें तो मेहरबानी होगा।" पांचू बाबू ठेके की बात करने का मौका चाह रहे थे। कार के पास फुट पर स्टूलें आ जाती हैं और दोनों बैठ जाते हैं।
"जैसी आपकी इच्छा...", गुटगुटिया साहब पांचकौड़ी बाबू की आँखों में झाँकते हुए दिल की भड़ास उगलने लगते हैं - “देखा आपने? आजकल के लेबर लोग कितने टेंटिया होने लगे हैं! डिसीप्लीन नाम की चीज है ही नहीं। पहले के जमाने में नौकरों की बात ही और होती थी। मालिकों के गू-मूत सफा करने में भी नहीं हिचकिचाते थे। मेरे दादाजी बताते थे, जब मैं बच्चा था, एक दिन किसी बात से रो रहा था। मुझे चुप कराने के लिए खेल-खेल में उन्होंने हमारे नौकर रामखिलावन को पीटना शुरू किया। रामखिलावन चुपचाप पिटता रहा था पर क्या मजाल जो चूं भी कर जाता।"
“अब उ बात ठो भूल जाइए सर," - पाँचकौड़ी बाबू के ललाट पर छिपी तीसरी आँख ड्रेस सप्लाई के ठेके को हासिल करने की संभावना तलाशने में लग जाती है। कार के पास ही दाहिनी ओर हजारासिंह का फ्रूट जूस का ठेला है। ठेले की ओर मुँह करके रेंक उठते हैं - "ऐ सरदारजी... दू ठो मौसम्मी जूस भेजेगा। ताड़ाताड़ी (जल्दी)!"
"नहीं... नहीं तकल्लुफ की जरूरत नहीं हैं पांचकौड़ी बाबू।"
"अरे तकल्लुफ कइसा?" पाँचकौड़ी बाबू हें हें करते एक दम दोहरे हो जाते हैं - "आप हमारा रेसपेक्टेड कस्टमर हैं। हम चाहता जे हमरा आपका यह संपर्कों (सम्पर्क) थोड़ा अऊर ब्यापक, थोड़ा अऊर घनिष्ठ हो। लेबर का ड्रेस सप्लाई का ठेका...”
आगे कुछ कह पाते कि सामने से हवलदार तिवारीजी आते दिख जाते हैं तो गुटगुटिया साहब का सारा ध्यान उनकी ओर केंद्रित हो जाता है।
"कोई गुप्त मिटिंग-उटींग चल रहा है का जी?" बड़ी-बड़ी मूंछों में मुस्कुराते हैं तिवारीजी। खाकी वर्दी को इतना निकट पाकर गुटगुटिया साहब तनाव-मुक्त हो जाते हैं। जेब से डनहिल का पैकेट निकाल कर उन्मुक्त ठहाका लगाते हुए उल्टी वाली घटना का विस्तार से बखान कर देते हैं। तिवारीजी के लिए भी स्टूल डाल दी जाती है। पांचकौड़ी बाबू को मन मारकर जूस के एक और गिलास का ऑर्डर देना पड़ता है।
“आजकल यूनियनबाजी का गन्दा दौर चल रहा है तिवारीजी।” सिगोर का लंबा कश खींच कर गुटगुटिया साहब बड़बड़ाते हैं। “जो यूनियनबाजी कल कारखानों व व्यावसायिक प्रतिष्ठानों तक सीमित थी अब वह स्वरूप बदल कर राजनीतिक दलों के बागियों, आतंकी संगठनों आदि में भी फैल गयी है। पाँच आदमी इकट्ठे हुए, एक ग्रुप या संघ बना और वह यूनियन का रूप पा गया। इस गुट या संघ को शिखंडी ढाल बनाकर लगे ब्लैकमेल करने। मेरा बस चले तो सबसे पहले यूनियन के कांसेप्ट पर ही बैन लगा दूं।"
रुमाल से चेहरा पोंछने का उपक्रम... जूस के दो-तीन घूँट और एक जोरदार कश! गुटगुटिया साहब की टिप्पणी हवा में तैरती हुई हजारासिंह के पगड़ी ढके कानों से टकराती है तो जूस निकालते हाथ थमक जाते हैं – “ओ बाऊजी ... यूनियन तो आम मजदूर और मेहनतकश बंदों का जुल्म के खिलाफ पुरजोर हथियार है जी। जब यूनियन बंद करने की गल करते हो तो नजरों के आगे सिरफ लेबर यूनियन ही क्यों रेहंदी है? आप बिजिनेसमेनों के बड़े-बड़े चेम्बर ... बड़े बड़े फेडरेशन क्यों नहीं?”
गुटगुटिया साहब उड़ती नजरों से इस अवांछित घुसपैठिये की ओर देखते हैं, फिर धीमे स्वर में कहते हैं- "ले हलुआ ... जिसे देखो वही इकोनॉमिस्ट बनने पर तुला है।”
नयी सिगरेट सुलगाते हुए गुटगुटिया साहब जैसे स्वयं भी सुलग उठते – “आपको पता है पांचकौड़ी बाबू, हमारी स्पंज फैक्ट्री में स्ट्राइक चल रही है।"
“अरे ...!”
“जी हां। बात मामूली है। पिछले साल की तुलना में इस साल नफा कम हुआ। अच्छी खासी रकम राजनीतिक पार्टियों के इलेक्शन फंड में डोनेट करनी पड़ी। नफा कम हुआ तो बोनस को कम होना ही था। बस, वर्कर लोग भड़क गए और स्ट्राईक कर दिया। अरे भाई, प्रॉफिट जब नहीं होगा तो बोनस क्या आसमान से टपकेगा? एक ओर राजनीतिक दल, दूसरी ओर यूनियनें ... बीच में साला बिजिनेसमैन पिसा जा रहा है।"
“इस्स...” पांचकौड़ी बाबू हाथ मलते हुए अफसोस जाहिर करते हैं - "केतना लॉस होता होगा डेली। आपको तो लॉक आउट कर देना चाहिए। तभी उन लोग का देमाग लाइन में आएगा, क्यूँ तेवारीजी?"
"एक दम सही बात है," - तिवारीजी की आँखों के आगे नई बनी पुलिस यूनियन कौंध उठती है। बिना संगठन के भला अन्याय, शोषण और हक की लड़ाई लड़ी जा सकती है भला! वह भी पूंजीवादी व्यवस्था में! लेकिन अभी इनका विरोध करना ठीक नहीं है। आई.जी. तक पहुँच है सेठजी की। एक फोन भर कर दें तो इनफोर्समेंट ब्रांच में आसानी से ट्रांसफर हो सकता है। इनफोर्समेंट ब्रांच की ऊपरी आमदनी.! जय जय भोलेनाथ! रूल को हथेली पर पटपटाते हुए मरी आवाज में दहाड़ते हैं -"यूनियनबाजी से व्यवसाय जगत में केतना अराजकता फैल गया है! अनुशासन तो एकदम्मे नए रह गया है। पांचकौड़ी बाबू का स्टाफ यूनियन में नहीं होता तो हम एक-एक को बांस कर देते। एकरा माय के ... उल्टी सफा नय करेगा, हंह!" अपनी बात का प्रभाव देखने के लिए नजरें गुटगुटिया साहब के धोबड़े पर टिका देते हैं तिवारीजी।
अपने शोरूम में भीड़ हल्की होते ही झवेरीवाला फिर बहस में टपक पड़ते हैं - “सच्ची बात तो यह है साईं कि मार्क्सवाद, लेनिनवाद या समाजवाद जैसे नारे अब पार्टी को सिर्फ जिंदा रखने के बहाने बन गए है। नहीं तो... कैसा सिद्धांत और कैसा मजदूर हित! एक बार पॉवर मिल जाए तो बड़े-बड़े आदर्शवादियों को स्केमों व स्कैन्डलों में फंसते देर नहीं लगती।"
"हमरा बांग्ला में एक ठो कथा ... जे जाय लोंका सेई होये रावन। माने लंका में जाते ही सब रावण बन जाते हैं!" चारों के सम्मिलित ठहाके गूंज उठते हैं। तभी शोरूम का स्टाफ हाराधन आकर बताता है कि दूर-दूर तक एक भी मेहतर या भिखारी नहीं मिला।
“वंडरफुल!” गुटगुटिया व्यंग्य से हंस पड़ते हैं।
“मेस्तर-वेस्तर पाएगा भी कैसे सर ...” पांचकौड़ी बाबू खीझ से भर जाते हैं - “अब सरकार इन लोगों को पकड़-पकड़ कर मजिस्ट्रेट अऊर अफिसर के चेयर पर बिठा रहा...।"
"जिनको सुथना संभालने का लूर नहीं, जनता पर शासन करेंगे, हंह!” तिवारीजी फनफनाते हैं। दोनों की नजरें अर्जुन की आँख की तरह गुटगुटिया साहब के मुखारबिंद पर स्थित हैं। एक क्षण के लिए वहाँ मौन का धुआँ छा जाता है।
"कभी कभी हमहूं सोचते हैं कि काहें नहीं विशनाथ बाबा हमको किसी मेहतर के घर में जनम दिये। अभी जोन स्तर की प्रतिभा है देमाग में, सिडीउल कास्ट में होने से हवालदारी से उठ कर कभीए के हाकिम-उकिम बन गए होते!” अपनी बात पर हो-हो करके हंस पड़ते हैं तिवारीजी। पांचकौड़ी बाबू स्पेन के लड़ाकू सांड की तरह उन्हें घूरते हुए भड़क उठते हैं - "ले हलुआ ... ये हांसी-ठठ्टा का टाइम है? कुछ कोरिये दादा ... प्लीज।"
“धत्त तेरे... आप भी बहुत जल्दी घबड़ा जाते हैं पांचकौड़ी दा,” - तिवारीजी के चेहरे पर तनिक भी सिकन नहीं। चिर-परिचित पुलिसिया मुस्कान होंठों पर खींच लाते हैं - "एक बात शायद आप लोग नय जानते हैं कि अपना देश में प्लानिंग बनाया ही ऐसे जाता है कि साल में जेतना गरीबी दूर हो, उससे डबल फिर से पैदा भी हो जाए। सिडिउल कास्ट का सभी लोग को यदि अफसर बना दिया तो मंत्री लोग के संडास कौन सफा करेगा..?"
पांचकौड़ी बाबू को छोड़कर तीनों व्यक्ति जोरों से ठहाके लगा बैठते हैं। पांचकौड़ी बाबू की नजरें आसपास के शोरूमों में लगी ग्राहकों की रेलपल पर तैरने लगती हैं। ब्याह-लग्न का बाजार है। सेल मार खा रही है और इन लोगों को लतीफे सुनने-सुनाने की पड़ी है।
"है भगवान!” चौंकने का अभियान करते हैं तिवारीजी- "अब जाके खयाल आया कि कलकत्ता का “पोस” एरिया है ई जगह ठो। विदेशी मेहमान राजभवन या सचिवालय में एही रास्ता से न आते जाते हैं। यहाँ से भिखारियों को कब्बे का खदेड़ दिया गया है और हमको उनका अड्डा का जानकारी है। अभी पकड़ के लाते हैं एक जन को। लेकिन..."
"लेकिन...?" पांचकौड़ी बाबू की पूरी चेतना “लेकिन” की चाबुक से तिलमिला जाती है - "अब “लेकिन” पर गाड़ी काहें अटका रहा तेवारी दा!”
“लेकिन पर गाड़ी नहीं, गाड़ी पर मामला अटक रहा। जाना है शहीद मीनार की तरफ और दुर्भाग्य देखिए कि स्कुटरवा को आज ही के दिन खराब होना था।”
तितली सी पंख फड़फड़ाती तीनों की नजरें लालरंग की “ऑडी” पर जा टिकतीं हैं। मिसेज गुटगुटिया पीछे की सीट पर अधलेटी किसी पत्रिका में खोई हुई हैं। यानी कि भिखारी को लाने के लिए ऑडी चाहिए।
"प्लीज सर ... गाड़ी ठो ले जाने दें।” पांचकौड़ी बाबू हाथ जोड़ते मिमिया उठते हैं। गुटगुटिया साहब के जबड़े मन ही मन कस जाते हैं, चेहरा असहज हो उठता है पर बाहर से शांत रहते हैं। सहमति देने के अलावा कोई चारा नहीं। मिसेज के लिए नई स्टूल आ जाती है। तिवारीजी लपककर कार में जा बैठते हैं। शहिद मीनार की ओर दौड़ती कार के संग तिवारीजी के जेहन में भी सुनहरे सपने कूदफांद करने लगते हैं - गुटगुटिया साहब पर इम्प्रेसन पोंकने का एही तो मौका बे तिवारी...! महौल को सहज और ठेके की बात के अनुकूल बनाने के लिए पांचकौड़ी बाबू सबके लिए चाय मंगा लेते हैं। चाय की चुस्की लेते हुए ठेके की चर्चा करना चाह ही रहे थे कि प्रोफेसर मालखंडे जिन्न की तरह प्रकट हो जाते हैं।
“अरे पांचकौड़ीदा ... शोरूम छोड़कर यहाँ? कोई प्राइवेट गुफ्तगू चल रही है क्या?" आँखों में मोटे फ्रेम का चश्मा! इकहरे चेहरे पर कैक्टसी दाढ़ी! कंधे से झूलता लाल रंग का साइड बेग और हाथ में दो-तीन पत्रिकांए! दो साल पहले मालखंडे पांचकौड़ी बाबू के “खोका” (लड़के) को ट्यूशन पढ़ाया करते थे।
“नमस्कार प्रोफेसर साहब," - प्राफेसर की ओर हाथ जोड़े देते हैं पांचकौड़ी बाबू - "इनसे मिलिए ... गुटगुटिया साहब! शहर का जाना माना इंडस्ट्रियलिस्ट! इनका मैडम शोरूम में परचेजिंग कर रहा था कि हठात बोमी कर दिया। बोमी सफा नेइ होने तक गॅप-शॅप चल रहा।”
प्रोफेसर मालखंडे भरपूर नजरों से गुटगुटिया साहब को देखते हुए शोरूम के चौखट तक जाते हैं और नाक पर रुमाल दबाते हुए उल्टे पांव लौट आते हैं।
"दुर्गंध...! महादुर्गंध...!!" पत्रिका वाला हाथ हवा में भांजते हुए फनफनाते हैं प्रोफेसर - "ये उल्टी साधारण नहीं पूंजीवाद का विष-वमन है दादा, समझे? देश के कोने-कोने में नव पूंजीवाद लगातार वमन करके दुर्गंध फैला रहा और देश की आम जनता चटखारे लेकर इसको सूंघने को मजबूर है। इस्स!”
"आप भी प्रोफेसर साहब अच्छा मजाक कर लेते हैं।" गुटगुटिया साहव हो-हो करके हंस देते हैं।
"आपको मजाक लग रहा?" प्रोफेसर भड़क उठते हैं। तैश में आकर कंधे से झूल रहे बेग से एक पत्रिका निकालते हैं और उसके पन्ने पलटते हुए पांचकौड़ी बाबू से मुखातिब होते हैं - "इतनी गंभीर बात इनको मजाक लग रही है। देखिए ... देखिए पांचकौड़ी दा! मैंने अपनी लंबी कविता “पूंजीवाद का विष-वमन” में ऐसी ही स्थिति का कैसा सजीव चित्रण किया है! विषय वस्तु गंभीर नहीं होता तो कविता पर बिड़ला अकादमी का शिखर पुरस्कार यूँही नहीं मिल जाता?"
"दारुन (खूब) प्रोफेसर मोशाय.!" पांचकौड़ी बाबू कनखी से गुटगुटिया साहब की ओर देखते हुए हकलाते हैं। रुमाल से नाक दबाते प्रोफेसर तेज कदमों से आगे बढ़ जाते हैं।
"बिड़ला अकादमी का पुरस्कार...!" गुटगुटिया साहब ठहाका लगा बैठते हैं - "यानी कि पूंजीवादी विष-वमन का सिर्फ एक घूंट पाकर ही मदहोश हो गए प्रोफेसर साहब!"
"अरे...पूरा नोक्साल (नक्सल) है इ प्रोफेसर ..." पांचकौड़ी बाबू-दाएं-बाएं देखते हुए फुसफुसाते हैं।
"आप लोग बेकार में इतना देर से मगजमारी कर रहा।”
अचानक भीखमभाई उत्तेजित स्वर में कह उठते हैं - "उधर देखिए। वो रहा इस प्रॉब्लेम का सोल्यूसन...!" सभी की नजरें एक साथ भीखमभाई के द्वारा इंगित की जा रही दिशा की ओर चली जातीं हैं। जूस वाले ठेले के पिछले चक्के के पास एक झबरेला कुत्ता सामने के पंजों पर थुथून रखे ऊँघ रहा है।
“इस कुकरे को घेर घार के शोरूम में ठेल दिया जाए तो गंदगी चाट के सफा कर देगा बरोबर?"
"सचमुच ...", गुटगुटिया साहब इस प्रस्ताव से चमत्कृत हो उठते हैं - "पांचकौड़ी बाबू ... बिस्कुट के कुछ पैकेट मंगवाइए जल्दी।"
ठेके की बात बार-बार कट जाने से पांचकौड़ी बाबू का चेहरा उतर जाता है। इतना अच्छा मौका हाथ लगा, यूँही चला जायेगा। पहले ही जूस अउर चाय का खर्चा हो चुका, अब बिस्कुट! मन के किसी कोने में अभी भी ठेका पा जाने की क्षीण भी आशा थी सो बिस्कुट मंगा लेते हैं। कुछ आगे बढ़कर भीखमभाई कुत्ते की आँखों के आगे बिस्कुट नचाते हैं - "आऽऽऽ... आऽऽऽ... तूऽऽऽ..।” बिस्कुट देखते ही कुत्ता बदन झाड़ता उठ खड़ा होता है। “आऽऽऽ... आऽऽऽ...” करते भीखमभाई कदम दर कदम शोरूम की ओर बढ़ने लगते हैं। कुत्ता भी सहमता हुआ उनका अनुसरण करता है। शोरूम तक आकर हाथ के सारे बिस्कुट कुत्ते को दिखलाते हुए उल्टी के ढेर पर फेंक देते हैं। कुत्ता तीर की तरह शोरूम में प्रवेश कर जाता है। दुम पेंडुलम की तरह जोर जोर से दाएं-बाएं हिलने लगती है। एक क्षण को ठिठककर उल्टी के ढेर की परिक्रमा करता है। फिर तीसरी टाँग उठाकर ढेर पर मूत की पतली धार छोड़ बैठता है - छर्रर्र !
"जा साला... " पांचकौड़ी बाबू माथा ठोक लेते हैं। तभी हवा में तैरती “ऑडी” आकर खड़ी होती है। कार की पिछली सीट पर एक भिखारिन बैठी है। पांचकौड़ी बाबू फुर्ती से दरवाजा खोलने को लपकते हैं - “ओ मासी... साहब का मेमसाब एइ दिके (इघर) शोरूम में बोमी कर दिया, सफा कर दो। साहब बख्शीश देगा।”
भिखारिन की आँखों में दुनिया भर का आश्चर्य सिमट आता है। भीख के नाम पर हमेशा गाली-गलौज देकर दुत्कारने वाले सेठ लोग के मुख पर उसके लिए ऐसा मधुर संबोधन! बायीं ओर खड़े स्टॉफ आपस में ख़ुसूरपुसूर कर रहे हैं - ऐ बेनर्जी, की दारुण सीन (क्या खूब दृश्य है) रे! भिखारी ठो क्वीन एलिजाबेथ जैसा और पांचू दा उनका सोफर माफिक लग रहा न!” व्यंग्य से गिजगिजाती टिप्पणी हवा में उड़ती ऑडी की छत से टकरा कर पांचकौड़ी बाबू के कानों में रेंग जाती है तो अंदर ही अंदर तिलमिला उठते वे पर प्रकट में संयत रह कर भिखारिन को उतरने का इशारा करते हैं। ऑडी में बैठने के रोमांच को जी भरकर जी लेने की धुन में भिखारिन कार से उतरने की हड़बड़ी नहीं दिखाती।
"अरे, जल्दी उतर ससुरी ...!” गुटगुटिया साहब के चेहरे की खीझ को भांपकर तिवारीजी बेंत हवा में फटकारते हैं तो भिखारिन द्रुत गति से कार से उतर जाती है। बख्शीश की बात पर आँखों में चमक भर आयी है। सुबह से भीख में सिरीफ पोनेरो (पन्द्रह) टाका मिला। दस टाका हवलदार साहेब का कमीशन! बाकी टाका में बख्शीश का पैसा मिला देने से हाफ प्लेट माछ-भात आ जाएगा। रोज-रोज रोटी खा खाकर माछ का गोंधों (गंध) ही भूल गया!
उल्टी का मुआयना करने के लिए वह आवेश में शोरूम की ओर बढ़ती है। फिर झुककर उल्टी को देखना चाहती है कि एक मुश्त बदबू नथुनों में ठूंस जाती है। उबकाई से जी मिचलाने लगता है। झट से कार के पास लौट आती है वह।
"का हुआ रे ... ?"
"बहुत पोचा (सड़ा) गोंधों आछे हवलदारजी।" नाक को हथेली से ढकती भिखारिन “ओऽऽऽक” करके बदबू की तीव्रता को जताने का प्रयास करती है। भिखारिन का नखरा देखकर पांचकौड़ी बाबू का धैर्य चुकने लगता है। वे खीझ से भरकर कहना चाहते हैं कि बोमी (उल्टी) से दुर्गंध नहीं तो क्या गुलाब का खुशबू आएगा पर भीखमभाई आँखों के संकेत से रोक देते हैं।
“थोड़ा पैंसेस (धीरज) रखो दादा, नहीं तो काम बिगड़ सकता है।" फिर मुलायम स्वर में भिखारिन से कहते हैं - “उल्टी में थोड़ा तो गंध रहेगा माई। फिर जरा-सा काम के लिए बख्शीश भी तो तगड़ा मिलेगा।”
“माई” शब्द के ताप से भिखारिन का रुख कुछ नरम पड़ता है। एक क्षण टुकुर-टुकुर सोचने का उपक्रम करती है, फिर चट के टुकड़े के साथ शोरूम में प्रवेश कर उल्टी के पास घुटनों के बल बैठने लगती है। बाहर सभी सांस रोके एक टक उसको देख रह हैं।
"शाबास..!" भीखमभाई जोश में भरकर बकअप करने लगते हैं - “सिर्फ दो मिनट का काम है।”
टिक-टिक, टिक-टिक! समय जैसे थम गया हो। तभी भिखारिन झटके से खड़ी होती है और “ओऽऽऽक... ओऽऽऽक” करती हड़हड़ाकर ढेर पर ढेर सारी उल्टी कर बैठती है।
लेखक परिचय – महावीर राजी
नाम : महावीर राजेश ( पूर्व : महावीर राजी )
शिक्षा : कोलकाता से एडवांस्ड एकाउंट्स में ऑनर्स ( प्रथम श्रेणी ), एल.एल.बी. ,
प्रकाशन : मुख्य धारा की सभी राष्ट्रीय पत्रिकाओं ( हंस, कथादेश, वागर्थ, नया ज्ञानोदय , परिकथा, पाखी आदि ) में कहानियाँ, लघुकथाएं व कविताएं प्रकाशित, कुछ कहानियों का अंग्रेजी में अनुवाद,
सम्मान : वर्तमान साहित्य कृष्ण प्रताप स्मृति कहानी प्रतियोगिता में चतुर्थ पुरस्कार,
'सहित्य समर्था' आयोजित डॉ कुमुद टिक्कू अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार,
कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार,
कथादर्पण 'कमल चंद वर्मा स्मृति लघुकथा प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार,
कई सांझा कथा संग्रहों में कहानियां संकलित,
आकाशवाणी कोलकाता से कहानियों का प्रसारण,
कथा संग्रह - 'आपरेशन ब्लैकहोल' ( वाणी प्रकाशन ) , 'बीज और अन्य कहानियां' ( एपीएन पब्लिकेशन ), 'ठाकुर का नया कुआं ( न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन), 'मेरी कहानियां' ( इंडिया नेटबुक्स ), 'शम्बूक, प्लेटफॉर्म और पिल्ला' (शीघ्र प्रकाश्य) घासीराम अग्रवाल स्मृति साहित्य सम्मान, वाक् कथा सम्मान कोलकाता ,
सम्प्रति: स्वतंत्र लेखन
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