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मनीष कुमार सिंह

लट्टू की माँ

बच्‍चों से बचपन छीना जा सकता है पर बचपना नहीं। जामुन के पेड़ के नीचे बनी झुग्‍गी के बाहर तीन बच्‍चे पकड़ा-पकड़ी खेल रहे थे। नाचते हुए बच्‍चे शोर कर रहे थे। तोता-मैना जामुन गिरा दे। जामुन भला ऐसे नहीं गिर जाता। पहले के गिरे हुए जामुन बीने जा चुके थे। सबसे छोटा तीन साल का था। दो लड़कियाँ क्रमश: सात और दस की होंगी। उनका कोरस सुनकर पास में चूल्‍हा जलाती माँ मुस्कराने लगी। पानी की बाल्टी पर एक कौआ आकर बैठ गया। कई रोज से सूखे पड़े सरकारी नल से बूँद-बूँद पानी आँसू की तरह टपक रहा था। पीने और खाना पकाने के लिए सुबह-शाम पानी चाहिए। कौआ को उड़ाने की बजाय आटे की एक लोई फेंक कर माँ बगल की झाड़ी में फैलाए कपड़े उठाने के लिए आवाज देने लगी। बड़ी लड़की उसकी बात सुनकर कपड़े उठाने लगी।

नाम कुछ और था लेकिन टोले-मुहल्‍ले में लट्टू की माँ के नाम से जानी जाती थी। लट्टू यानी उसका छोटा बेटा।

झुग्गियों का एक झुण्‍ड़ खाली प्‍लॉटों में अवस्थित था। आसपास अज्ञातकुलशील पेड़-पौधों और झाड़ियों का झुरमुट बन गया था। दिन भर बच्चे इनके बीच खेलते और कुछ खाने की चीज ढूँढ़ते। कुदरत की हर चीज को स्‍त्रीलिंग या पुलिंग में नहीं बाटा जा सकता है। कुछ वनस्‍पतियाँ, खटमिट्ठे फल और झरबेरियाँ बालरूप होते हैं। निम्‍मी जरा लंबी थी। टहनियों पर लगे फल को उचककर या कंटीली झाड़ी में एकाध खरोंच पाकर भी आधे पके अज्ञात गोत्र का फल तोड़कर वह भाई-बहन में बाटने लगी। खुले आसमान के नीचे बच्‍चों ने अपना खजाना सजाया था। चमकीले पत्‍थर, चिड़ियों के पंख, कंचे वगैरह पेड़ के नीचे गड्ढे में रखे हुए थे। यह मुक्‍ताकामी संग्रहालय तीनों की साझी संपत्ति थी।



उस रोज झुग्गी से जोर-जोर से लड़ाई-झगड़े की आवाज आती रही। आज फिर उसका मर्द शराब पीकर लड़ रहा था। लट्टू की माँ अच्‍छी कद-काठी की स्त्री थी। पति लड़ाई में अकसर हाथ उठा देता। शराबी कमजोर होता है लेकिन फिर भी मर्द का हाथ है। जिन घरों में वह काम करती थी उसके बाशिंदों ने उसे कभी-कभार चोटिल देखकर हाल-चाल पूछा़। वह कड़े दिल की थी। यह बताने में कभी गुरेज नहीं किया कि ये चोट पति के द्वारा पहुँचाए गए हैं लेकिन आँखों से आँसू या जबान पर दर्द जैसी कोई बात नहीं छलकी। औरतों ने भी कहानी में ज्यादा मजा न मिलने पर मामले की बारीकी में घुसना ठीक नहीं समझा।

“भाभी जी अगले महीने से पगार बढ़ा देना। मेरा मर्द कहता है कि इतने पैसे में काम करने से अच्छा है कि तू घर बैठकर चूल्‍हा-चौका सँभाल। मैं कामकाज करने के लिए काफी हूँ।” बाद में यह भेद खुला कि इस वक्तव्य के पीछे मर्द का पुरुषार्थ नहीं बल्कि पति का उसके चाल-चलन पर शक बोल रहा है। फ्लैट में रहने वाली स्त्रियों ने लट्टू की माँ के भीरूपन की समवेत स्वर से निंदा की।

दो घरों से काम छोड़ने की वजह छह महीने के भीतर पगार बढ़ाने की अनुचित माँग थी।

बर्तन धोते हुए उसे रसोई में मुंह चलाते देखकर घर की मालकिन ने पूछा, “क्‍या बात है?”

“मेमसाहब मुझे सुपारी का शौक है। इससे पहले भी लोगों ने पूछा है। हम तो मुंह खोलकर भी दिखा देते हैं। कहीं कोई यह न सोचे कि रसोई में कुछ चुराकर खा रही है।”

“तू अपना मिजाज बदल। लोग तुझसे परेशान हो गए हैं।” एक नरमदिल महिला ने उसे एक बार सत्‍परामर्श दिया।

दो दिन बाद संभ्रांत स्त्री को अपनी कामवाली का असली रंग मालूम हुआ। “भाभी जी मेरा मर्द कहता है कि आपके मर्द मुझ पर गलत नजर रखते हैं। मुझसे आपके घर का काम छोड़ने को कह रहा है।”

लट्टू की माँ के वचन सुनकर उसे गश सा आ गया। तनिक प्रकृतिस्‍थ होकर बोली, ”तेरा मर्द पागल तो नहीं है?”

“भाभी जी वो गलत बोलता है लेकिन है तो आखिर मेरा मर्द। उसे नाराज करके कहाँ जाऊँगी। इसलिए आपके यहाँ काम नहीं कर सकती।”

अनपढ़ औरत से क्या बहस करना।

एक दिन अशुभ समाचार आया। लट्टू की माँ का पति शराब के नशे में धुत मोटरसाइकिल पर पीछे बैठे-बैठे सड़क पर लुढ़क गया। पीछे से आने वाली गाड़ी ने उसे रौंद डाला। घटनास्‍थल पर ही मौत हो गयी। लोगों ने अनुमान लगाया कि अपने नशेड़ी साथी के साथ पीकर लौट रहा होगा।

अक्‍लमंद स्‍त्री ने जिद करके उसका बीमा कर रखा था। कुछ दिनों की दौड़-धूप के बाद पैसा मिल गया। पति के व्‍यसनी होने के कारण मालमत्‍ता नदारद था। घूँघट काढ़ने की कोशिश करो तो पीठ दिखने लगेगी।‍ मध्‍यमवर्ग के संभ्रांत लोगों में अल्पकाल के लिए उसके प्रति सहानुभूति की लहर व्याप्त हुई। बेचारी कैसे घर-परिवार चलाएगी? पति-पत्‍नी में से किसी के न रहने पर परिवार टूटी गाड़ी जैसा हो जाता है। जिन्‍दगी चलती नहीं बस घिसटती है। पढ़े-लिखे समाज में अकेली माँ या अकेले पिता को घर चलाने में नानी याद आ जाता है।

नरमदिल महिला के घर वह आयी। “अरी अब क्या लेने आयी है?” पहले मन किया कि दरवाजे से लौटा दे लेकिन फिर इंसानियत के वास्ते अंदर बुलाया। आखिर पढ़े-लिखे होने का कुछ तो फर्क पड़ता है। रोने-धोने लगी तो उसने उसे कुछ पैसे पकड़ाए। “नहीं भाभी जी ये नहीं ले पाऊँगी।” शायद बस इंसानी हमदर्दी की तलाश में आयी थी। अंत में जिद करके उसने लट्टू की माँ को बच्चों का वास्ता देकर खाने की कुछ चीजें दी।

मेन मार्केट में लट्टू की माँ ने फल-सब्‍जी का ठेला लगाना शुरु कर दिया। आज के जमाने में भी औरतों में कस्‍बाई दया-धर्म मौजूद है। फ्लैट में रहने से क्या हुआ? एकाध परिचित महिलाओं ने पूछा। अरी तू यहाँ...! “मेमसाहब बर्तन-पोंछा से अच्छा अपना काम है। इसमें अपनी मर्जी चलती है।” आगे बढ़ गयी महिलाओं को उसकी हँसी सुनायी दी। “बाजार में काम करने पर चर्बी ज्यादा गलती है। घर के काम में वो बात नहीं।”

आज के बाद कोई इसे अपने यहाँ काम पर नहीं रखेगा। वह चाहेगी तो भी नहीं। हर कोई ऑफ दी रिकार्ड अत्यंत गंभीर होकर निहायत अगंभीर गुफ्तगू में लगा हुआ था। हालांकि अभी भी ज्यादातर लोगों की सहानुभूति उसके साथ भी लेकिन कालोनी के कतिपय जानकार के विचार नितांत अलग थे। हिंसा मृगया की शिकार स्वयं एक धुरंधर खिलाड़ी बन गयी है।

घर लौटने पर मालूम होता कि लट्टू एक बड़ी गाड़ी के नीचे आते-आते बचा। आसपास के राहगीरों की साँस धक से रह गयी। उनकी दोनों बहनों ने रूआसी होकर यह बताया। वह अपनी रुलाई रोककर सोचने लगी कि बच्चों की हिफाजत ज्यादा जरूरी है या उनकी खातिर रोटी का बन्‍दोबस्‍त। शाम को खाने की तैयारी करते वक्त चूल्‍हे में आग पकड़ नहीं पा रही थी। बुझे चूल्हे में बार-बार फूँक मारने से आँखें कड़वे धुँए से गीली हो गयीं। अधजली लकड़ियों से निकलते धुएं जैसी मरणासन्न इच्छाओं के पूरा होने की संभावना न होने पर भी उम्मीद कौन छोड़ता है। वह लगातार कोशिश कर रही थी। पीछे कोई आकर कब खड़ा हो गया यह उसे पता नहीं चला। कुछ दूर पर झुग्गी डालकर रहने वाला देवर था। उसका वर्तुलाकार मुख स्थूल उदर व वृहदाकार कटि से मेल खा रहा था। “चल छोड़ दे ये झंझट। मेरे पास गैस स्‍टोव है। आगे से खाना उसपर पकाना।”

उसे संकुचाई देखकर वह आगे बोला, “मिलजुल कर रहेंगे तो बच्चों की देखभाल हो जाएगी।”

गैस स्‍टोव जलाकर वह जल्‍दी-जल्‍दी रोटी सेंकने लगी। देवर यह देखकर हँसने लगा, “जल्दी करने की क्या जरूरत है?”

“वो बच्चों को भूख लगी है।”

देवर ने जैसे उसकी बात सुनी नहीं। “कुछ काम मंद आंच पर ही होते हैं। जल्दबाजी करने से जायका खराब हो जाता है।”

नादान से नादान मुर्गा भी भरी दोपहर में बांग नहीं देता है। वह सब समझ रही थी लेकिन मरती क्या न करती। उसने फैसला लेने में ज्यादा देर नहीं लगायी।

अगले दिन देवर ने छोटे बच्चे को गोद में उठाकर कहा, “बिल्कुल भईया से शक्ल मिलती है।” बिस्कुट का पैकेट देकर बोला, “सब मिलकर खाना।” बस इतने पर वह खुश हो गयी।

“आज खाना मिलकर खाएंगे।” देवर जरा इधर-उधर नजर दौड़ाकर बिना किसी को संबोधित किए बोला। यह सुनकर पुलक कर वह चूल्हा जलाने चली गयी। जब स्‍टोव पर पलक झपकते नीली आंच आयी तो फूलती हुई रोटी मानो हँस रही थी। आज जमीन पर दरी बिछाकर बच्चों को खिलाते हुए वह बार-बार उन्हें और खाने को कह रही थी। “तूने फिर आधी रोटी छोड़ दी? चल निम्‍मी तू थोड़ी सी दाल और ले। कल कढ़ी बनाऊँगी फिर देखना बिना पूछे कितनी रोटी खाएगी।”

निम्‍मी अपनी छोटी बहन की ओर इशारा करके बोली, “माँ यह कह रही है कि मुझे खाने के लिए परांठा चाहिए।” उसकी बहन माँ की ओर टुकुर-टुकुर देखकर मुस्कराने का प्रयास कर रही थी।

“चल किसी दिन बना दूंगी।” उसने वादा किया लेकिन तारीख नहीं बतायी। जितना बड़ा हवनकुण्‍ड़ होगा समिधा उतनी लगेगी।

देवर ने टोका, “तुम भी खाओ। बिना भरपेट खाए कैसे काम करोगी?” वह खाने के साथ लगातार उसे निरख भी रहा था।

निम्‍मी की बहन झुग्गी के अंदर से गत्ते का एक पुराना डिब्बा गाड़ी बनाती हुई खींचकर लायी। डिब्बे से चूहे के नवजात शिशु बाहर जा गिरे। धूप में असहाय पड़े उन जीवों को देखकर तार पर सतर्क बैठे कागों की लार टपकने लगी। निम्‍मी फुर्ती से बहन के हाथ से गत्ते का डिब्बा लेकर उसमें नन्हे चूहों को रखने लगी। “चल छोड़। डिब्बे को अंदर रख दे।”

बात झुग्गियों से ही फैली। इसका अपने देवर से संबंध है। इस औरत ने अच्छी माया जोड़ी है। देवर देह और माया दोनों हथियाना चाहता है। यह औरत भी कौन सी दूध की धुली है। पहल उसी ने की होगी। जाने दो। पराये मामले में हम क्यों पड़े।

“दुनिया-समाज जाने कहाँ से कहाँ पहुँच गयी है।” देवर के स्वर में हमदर्दी के साथ बौद्धिकता का पुट भी था। “भईया बड़े अच्छे थे लेकिन मुर्दा चाहे जितना भी अच्छा रहा हो लेकिन सामने खड़ा जिन्‍दा ज्यादा बड़ा होता है।” स्वयं पर पड़ती उसकी निगाहें देखकर लट्टू की माँ को अपने पति की नजरें याद आ गयीं। बरबस उसकी पलकें झुक गयीं। देवर उसकी झुकी निगाहों को अर्धस्‍वीकृति मान रहा था।

काया सुख का जीवन में अपना महत्व होता है। देवर का इन दिनों यह बारंबार बोलना उसे कानों में मधुर घंटियों सदृश्य लग रहा था। “तू मुझे पराया मत समझ। बच्चों की फ्रिक तूझ अकेले को थोड़े न करनी है।” लट्टू की माँ के मन से एक बड़ा बोझ उतर गया। काया सुख की दिशा में जाने वाले अश्‍व समवेग पाकर आवेग में बदल जाते हैं। देवर की हर हरकत के पीछे उसकी स्वीकृति थी। तीन महीने कैसे बीत गए यह पता ही नहीं लगा। वह रोज मन लगाकर देवर की पसंद का खाना बनाती। वह मुर्गा-मछली और अण्‍डा लाता। साथ में शराब की बोतल भी होती। “अरे पीने में कोई बुराई नहीं है। भईया को बेहिसाब पीने की आदत थी इसलिए चले गए। जो आदमी बिना खाए पीएगा वह ज्यादा नहीं जी सकता।”

मृत पति का इस प्रकार जिक्र करना उसे अच्छा नहीं लगा। वह उठने लगी। “बैठो जरा। कौन सी भैंस बिना दूहे खड़ी है।” परिहास की मुद्रा में बैठे देवर को उसके साहचर्य में लुफ्त आ रहा था।” मसालेदार जर्दे का भरपूर प्रयोग करके वह मदिरापान की गंध को दबाने का प्रयत्न करता। वह उसकी इतनी सी शराफत से कृतज्ञता से झुक जाती। देवर टी.वी. धारावाहिकों में दिखने वाले देवी-देवताओं जैसा हमेशा मुस्कराता रहता।

बरसात आने पर हमेशा की तरह झुग्गी की छत टपकने लगी। वह आदत के मुताबिक बाल्टी रखने लगी। “ऐसे नहीं चलेगा, “ देवर यह देखकर बोला।

“छानी के पानी से दाल अच्छी बनती है। हमारे गांव में बर्तन-घड़े सब बारिश के पानी से भरे जाते हैं। खपरैल से चुआ पानी बड़े काम का है।” वह चहकी।

“छोड़ वो सब चीजें। यह शहर है। यहाँ यह पानी गंदगी मानी जाती है।”

अगले दिन छत की मरम्मत हो गयी।

देवर को लग रहा था कि इधर-उधर की बातें इतनी लंबी हो गई हैं कि मूल विषय भूसे के ढेर में अनाज के दाने की तरह खो गया है।

“झुग्गी में अब काफी जगह हो गयी है। बच्चे बड़े हो गए हैं उनके लिए अलग बिस्तर डाल दे।” देवर की आँखों में रक्तिम आभा थी। वह जल में मनोनुकूल आहार पाने की आकांक्षा से प्रेरित मगरवत विचरण कर रहा था।

“तू पुरानी बातें छोड़। रोज दस रुपए की चायपत्‍ती और एकाध किलो आटा लेने की आदत अब रहने दे। एक बार में महीने भर का सामान रख ले।” देवर की ये बातें आश्‍वस्‍तकारी लगीं। नून-तेल, लकड़ी की मुहावरेदार पंक्ति संपूर्ण गृहस्थी के प्रबंधकीय चिंताओ को समेटी हुई थी।‍

“हम दोनों शादी कर ले तो अच्छा होगा। ऐसे कब तक चलेगा?” एक रोज वह बोल पड़ी।

“अरे यह सब बड़े घरों के चोंचले हैं!” वह रुक्षता से बोला। प्रेमी होना पति होने से अधिक सुविधाजनक था।

बीमा की रकम हाथ आने पर देवर ने हँसकर कहा, “इसमें कुछ मेरा भी हिस्सा है कि नहीं।” वह हँसकर टाल गयी। “आज काम पर जाने का मन नहीं है।” वह झुग्गी में पूरे दिन पसरा रहा। बच्चों को बात-बात पर झिड़का। झुग्गी के अंदर पड़े खाट और अल्‍मुनियम के बर्तनों को ऐसे घूर रहा था जैसे कोई सेठ अपनी जायदाद बिना वसीयत लिखे दिवंगत हो गया हैं।

अब उसने घर-गृहस्‍थी में कोई योगदान देना बंद कर दिया। लट्टू की माँ गृहस्थिन से पुन: कामकाजी औरत हो गयी।

“क्या बात है आजकल काम पर नहीं जा रहे हो? वह बोली।

दारु की बदबू का भभका उठा। “अपनी मर्जी से काम करने वालों में हूँ। ठेकेदार से मेरी नहीं पटती है।” अपने पति के शराबी होने पर भी उसे इतना डर कभी नहीं लगा था।

“लेकिन रोजी के लिए कुछ तो करना पड़ेगा।”

“तू भी काम कर सकती है। तेरे पिल्लों को खिलाने-जिलाने का ठेका मेरा नहीं है। इन्हें बड़े घरों जैसा तीन टाइम खाना खिलाना जरूरी नहीं है।” हाथ में पावरोटी का सिंका टुकड़ा लिए बच्‍चे ठगे से खड़े रह गए। देवर के मुंह से शराब की दुर्गंन्‍ध के साथ दिमाग से शातिर चाल झलक रही थी। इतने महीनों में पहली बार उसके अंदर देवर के प्रति घृणा जैसा कोई भाव जगा।

“तेरे वादे का क्या हुआ?”

यह सुनकर देवर ने अपने नजरें उसपर ऐसी डाली मानो साँप ने फन उठाया हो। “जो औरत अपने मरे हुए मर्द को दो दिन में भूला दे वह किसी की क्या होगी?” उसने स्पष्ट कर दिया कि वह उतना ही सामंतवादी सोच का है जितना मर्द को होना चाहिए। बौद्धिकता काम निकालने का जरिया है। बोझा ढोने की चीज नहीं। उस दिन दोनों में जमकर झगड़ा हुआ। हाथापाई तक हुई। डरे-सहमे बच्चे दूर से देख रहे थे। “बदनाम ऐसा करूँगा कि तू मुहल्ला छोड़कर चली जाएगी।” जाते-जाते देवर ने धमकी दी। काम तरंगित रुधिर प्रवाह से वशीभूत मधुकंठी पक्षी जैसी वाणी बोलने वाले अब कर्कश निनाद करने लगा।

“अरे जा-जा बदनामी की धौंस औरत को क्यों दिखाता है? तेरे पास इज्जत नहीं है क्‍या? नहीं है तो इसमें मेरा क्या कसूर।” झगड़े की पराकाष्ठा में उभय पक्ष मरने-मारने में उतारू होते हैं। महाभट्ट की भांति उनके शीश विहीन कबन्‍ध भी मैदान छोड़ने को राजी नहीं होते हैं।

“हमने तुझे सत्तू माँगने पर मोतीचूर दिया है। पर तू अहसान फरामोश निकली।” देवर एकत्रित लोगों को सुनाने की खातिर पंचमी सुर में बोला।

“तेरी हकीकत मालूम है। जा किसी और को सुनाना।” उसने सांसों के सिलसिलेवार होने तक इंतजार किए बगैर आगे बोलना चाहा लेकिन कंठ और जबान ने हाथ खड़े कर दिए। आखिर वह क्यों मान गयी? उसे प्यार और प्रपंच के बीच भेद क्यों नहीं दिखा? बिना भावना के संबंध में घर बुढ़िया के दांतों की तरह हिलता है। यह बात समझने में देरी क्यों लगी?

दूसरे की घर की लड़ाई को अगल-बगल वाले उसी कौतुक से निहार रहे थे जैसे मुर्गों की जंग देखी जाती है।

उसे निगलने के लिए धरती क्यों फटेगी? आखिर धरती के पेट में उसके जिंदा रहने से कौन सा दर्द हो रहा है। सारी शर्म अकेले खुद क्यों झेलेगी? देवर विषहीन सर्प की भांति मात्र कुवाच्‍य बोलकर फुफकार सकता है लेकिन कोई‍ क्षति नहीं पहुँचा पाएगा।

देवर के जाने के बाद बच्चे छिपी हुई बिल्लियों की तरह बाहर निकले।

देवर अपनी दी हुई हर चीज ले गया। जर्जर दीवाल पर टँगे खूँटे को उखाड़ने में पूरी दीवाल बीमार शरीर की भांति कांप गयी। लट्टू की माँ यह देखकर विद्रूपता से हँस पड़ी। वह अकसर दरवाजा खुला छोड़कर काम पर निकल जाती थी। इस झुग्गी में अगर गलती से डाकू आ गए तो क्या पाएंगे। हां शगुन की खातिर रुपया-दो रुपया माँग कर जरूर ले जाएंगे। लेकिन वह इस तरह लूटेगी इसका गुमान नहीं था। देह राग के ऊपर हृदय राग का वर्चस्व शायद नहीं होता है। मृतक का दाह संस्कार होता है लेकिन जिन्‍दा लोग इंसानियत को अस्थि विसर्जन तक कर देते हैं। प्याज़ जितनी मर्जी छिलो लेकिन कोई दाना हाथ नहीं आएगा। सच बात है कि लालच पानी में बहता कम्‍बल जैसा है। उसे पकड़ने पानी में उतरने वाले को पता चलेगा कि कम्‍बल के बदले रीछ पानी में है। वह रीछ से चाहे जितनी भी पिंड छुड़ाना चाहे लेकिन रीछ बिना उसकी बोटी खाए छोड़ने वाला नहीं है।

उस दिन चूल्हा नहीं जला। दूसरे दिन सुबह निम्‍मी ने कच्‍चा-पक्‍का जैसा भी बन पड़ा लाकर माँ और भाई-बहन को परोसा। ऐसा नहीं कि लड़की ने पहले घर का काम नहीं किया था पर आज लट्टू की माँ की आँखें भर आयीं। वह बिछौने पर मुड़ी-तुड़ी लेटी रही। “जा तुम सब खाओ। मुझे भूख नहीं है।”

“जरा सा खाने में क्या हो जाएगा माई।” बेटी मनुहार करने लगी। हृदय कामना रहित हो सकता है। मस्तिष्क का विचारशून्य होना संभव है पर उदर में क्षुधा की आग न भड़के यह कैसे मुमकिन है।

“तूने खाया?”

निम्‍मी ने पेट फुलाकर डकार ली। “मैंने खा लिया।” लट्टू की माँ इस डकार का अभिप्राय समझ गयी कि यह सच्‍चाई छिपाने का उपक्रम है। छोटे भाई-बहन को खिलाते हुए बेटी अपना हिस्सा भी खिला गयी। “चले मेरे साथ बैठ।” उसने प्यार से डांटा। मुश्किल से दोनों को दो-दो कौर मिले। दोनों का प्रयास था कि दूसरे को ज्यादा ग्रास खिला दें। इस चेष्टा में माँ-बेटी का झगड़ा हुआ।

मेहनतकश की औलाद घर-बाहर का काम सीखती है। किताब-कॉपी इसमें बाधक हैं अतः उन्‍हें आरम्भ से ही बहिष्कृत किया जाता है। हालांकि निम्‍मी एकाध साल स्कूल गयी थी। मीड डे मील का आकर्षण था। माँ का नाम भले ही उसके छोटे भाई लट्टू के नाम पर प्रसिद्ध हो लेकिन घर में काम करने और छोटे भाई-बहन की देखभाल का पूरा जिम्मा उसने उठा लिया। “तू किसी मेमसाहब के घर होती तो अच्छे से चोटी करके स्कूल जाती।” माँ की इस इच्छा का अर्थ उसके पल्ले ज्यादा नहीं पड़ा।

काफी दिनों बाद माँ और बच्चे एक जगह सोये। नींद के आगोश में जाने से पहले खूब बातें हुई। “इस दीवाली में मैं चरखी चलाऊँगी।” छोटी बेटी बोली। “मुझे दो चरखी चाहिए।” लट्टू बिस्तर पर पड़े-पड़े दो उँगलियां दिखाकर बोला। “चल मेरे बाबू तुझे मैं अपनी चरखी दूँगी।” निम्‍मी ने उसके गाल को छूकर कहा।

माँ सबको शाब्दिक वाहन में बैठाकर दीवाली की खरीदारी कराने बाजार घूमा लायी।

लट्टू की माँ कॉलोनी के उन घरों में गयी जहां वह पहले काम करती थी। उधार माँगा। संसार अभी धर्मात्‍माओं से रिक्त नहीं हुआ है। उसे कर्ज मिल गया। लेकिन सीढ़ियों से उतरते हुए उसे कुछ सुनायी दिया। इसका अपने देवर से रिश्ता बना था। देवर ने शादी करने से मना कर दिया। पराये बच्‍चों वाली को कोई क्यों ढोएगा?

“मेरे बच्चे हैं। इनकी जिम्मेवारी निभाने का दम रखती हूँ।” वह सगर्व बोली।

आज सुबह से ही लट्टू का बदन गर्म था। शायद रात में भी बुखार रहा होगा। वह डॉक्‍टर को दिखाने ले गयी। डॉक्‍टर ने दवा लिखते हुए पूछा, “क्या इसको समय पर टीका लगवाया था?” उसकी चुप्पी पर वह व्यंग्य से मुंह बना कर बोला, “चलो अब कम से कम ये दवाइयां समय पर देना।”

दो दिन बीत गए। लट्टू बरसों पुराने अखबार के पन्ने सरीखा पीला पड़ा था। रोजी-रोटी की खातिर वह काम नहीं छोड़ पायी।

देर शाम को जब अंधियारा गहराने लगा तब निम्‍मी उसे ढूँढ़ती हुई बाजार आयी। “माई...!!” आवाज संवाद का माध्यम और संदेश का जरिया होती है। परंतु हर आवाज की प्रतिध्वनि नहीं होती है। निम्‍मी की चीत्कार में रोंगटे खड़ी कर देने वाली प्रतिध्वनि थी।

“माई लट्टू के पास जल्दी चलो। वह पानी नहीं पी रहा है। आंख भी नहीं खोल रहा है।” वह फौरन झुग्गी की ओर भागी। रास्ते में घुप अंधेरा था। स्‍ट्रीट लाइटें मुर्दे की तरह बुझी पड़ी थीं। इस भुतहे अंधेरे में राहगीर काली छाया की तरह विलीन हो रहे थे। दूसरी तरफ से आने वाले अलबत्ता आश्चर्य की भांति प्रकट होते थे। उसे दौड़ता देखकर एकाध राहगीर उत्सुकता से रुक गए। घर पहुँचते-पहुँचते अंधियारे ने हर चीज के मूल रंग पर कालिमा पोत कर अपने जैसा मनहूस बना दिया। बच्चा बेसुध पड़ा था। माँ का मन कहाँ मानता है। शायद मन के कोने में यह उम्मीद थी कि उसकी औलाद मृत्यु का तट स्पर्श करके वापस आ जाएगा। अस्पताल ले जाने का भी लाभ नहीं हुआ। सदा चरखी जैसा नाचने वाले लट्टू की देह आटे की लोई की भांति लटकी हुई थी। रिक्शे पर अपने बेटे का शव लादकर वह घर आयी। दसेक मिनट तक चीख-पुकार मची।

अगले दिन सुबह लोगों ने हैरानी से देखा कि उसकी माँ दीवाली के दीये और रोशनी वाले झालर ठेले पर लगाए बाजार में सामान बेच रही है। स्‍वसंकल्‍पाभिभूत होकर मानो उद्घोषणा कर रही हो कि अकेले ही गोवर्धन पर्वत उठाएगी। बड़ी कठकरेजी औरत है। जिसने देखा वही यह बोला कि जिसका औलाद मर गया हो वह ऐसे वक्त क्‍या काम-धंधा करने निकलेगी? घर में बच्चे का मृत शरीर रात से पड़ा है।

अकेला इंसान रोये या कब्र खोदे। हाथ में ठेले का सामान बेचकर पैसा आया तो वह घर गयी। कफन-दफन वगैरह का इंतजाम जो करना है। झुग्गी के बाहर लगे मजमा की नजरें उस पर जमी थी। बीमारी की उत्पत्ति से लेकर मृत्यु तक का सोपान मूलक वर्णन सुनने की जिज्ञासा अधूरी रह गयी। किसी को कर्ण और बलि की पंक्ति में सम्मिलित होने का अवसर नहीं दिया गया। उसने सीधे चादर से ढके बच्चे के शव की ओर रुख किया। इस बार वह किसी के भरोसे नहीं रहेगी।

गली का कुतता अर्थी के पीछे कुछ दूर तक भागा।

 

विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं यथा-हंस,नया ज्ञानोदय, कथादेश,समकालीन भारतीय साहित्‍य,साक्षात्‍कार,पाखी, दैनिक भास्‍कर, नयी दुनिया, नवनीत, शुभ तारिका, अक्षरपर्व,लमही, कथाक्रम, परिकथा, शब्‍दयोग, ‍इत्‍यादि में कहानियॉ प्रकाशित। सात कहानी-संग्रह ‘आखिरकार’(2009),’धर्मसंकट’(2009), ‘अतीतजीवी’(2011),‘वामन अवतार’(2013), ‘आत्‍मविश्‍वास’ (2014), ‘सांझी छत’ (2017) और ‘विषयान्‍तर’ (2017) और एक उपन्‍यास ‘ऑंगन वाला घर’ (2017) प्रकाशित। ‘कथा देश’ के अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता 2015 में लघुकथा ‘शरीफों का मुहल्‍ला’ पुरुस्‍कृत।

भारत सरकार, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय में प्रथम श्रेणी अधिकारी के रूप में कार्यरत।


मेरे बारे में

लिखने की शुरुआत पढ़ने से होती है। मुझे पढ़ने का ऐसा शौक था कि बचपन में चाचाजी द्वारा खरीदी गई मॅूँगफली की पुड़िया को खोलकर पढ़ने लगता था। वह अक्‍सर किसी रोचक उपन्‍यास का एक पन्‍ना निकलता। उसे पढ़कर पूरी किताब पढ़ने की ललक उठती। खीझ और अफसोस दोनों एक साथ होता कि किसने इस किताब को कबाड़ी के हाथ बेच दिया जिसे चिथड़े-चिथड़े करके मूँगफली बेचने के लिए इस्‍तेमाल किया जा रहा है। विश्‍वविद्यालय के दिनों में लगा कि जो पढ़ता हूँ कुछ वैसा ही खुद लिख सकता हूँ। बल्कि कुछ अच्‍छा....।

विद्रुपता व तमाम वैमनस्‍य के बावजूद सौहार्द के बचे रेशे को दर्शाना मेरे लेखन का प्रमुख विषय है। शहरों के फ्लैटनुमा घरों का जीवन, बिना आँगन, छत व दालान के आवास मनुष्‍य को एक अलग किस्‍म का प्राणी बना रहे हैं। आत्‍मीयता विहीन माहौल में स्‍नायुओं को जैसे पर्याप्‍त ऑक्‍सीजन नहीं मिल पा रहा है। खुले जगह की कमी, गौरेयों का न दिखना, अजनबीपन, रिश्‍ते की शादी-ब्‍याह में जाने की परम्‍परा का खात्‍मा, बड़े सलीके से इंसानी रिश्‍ते के तार को खाता जा रहा है। ऐसे अनजाने माहौल में ऊपर से सामान्‍य दिखने वाला दरअसल इंसान अन्‍दर ही अन्‍दर रुआँसा हो जाता है। अब रहा सवाल अपनी लेखनी के द्वारा समाज को जगाने, शोषितों के पक्ष में आवाज उठाने आदि का तो, स्‍पष्‍ट कहूँ कि यह अनायास ही रचना में आ जाए तो ठीक। अन्‍यथा सुनियोजित ढंग से ऐसा करना मेरा उद्देश्‍य नहीं रहा। रचना में उपेक्षित व‍ तिरस्‍कृत पात्र मुख्‍य रुप से आए हैं। शोषण के विरुद्ध प्रतिवाद है परन्‍तु किसी नारे या वाद के तहत नहीं। लेखक एक ही समय में गुमनाम और मशहूर दोनों होता है। वह खुद को सिकंदर और हारा हुआ दोनों महसूस करता है। शोहरत पाकर शायद स्वयं को जमीन से चार अंगुल ऊँचा समझता है लेकिन दरअसल होता वह अज्ञात कुलशील का ही है। घर-समाज में इज्जत बहुत हद तक वित्तीय स्थिति और सम्पर्क-सम्पन्नता पर निर्भर करती है। कार्यस्थल पर पद आपके कद को निर्धारित करता है। घर-बाहर की जिम्‍मेवारियाँ निभाते और जीविकोपार्जन करता लेखक उतना ही साधारण और सामान्‍य होता है जितना कोई भी अपने लौकिक उपक्रमों में होता है। हाँ, लिखते वक्त उसकी मनस्थिति औरों से अलग एवं विशिष्‍ट अवश्य होती है। एक पल के लिए वह अपने लेखन पर गर्वित, प्रफुल्लित तो अगले पल कुंठा व अवसाद में डूब जाता है। ये विपरीत मनस्थितियाँ धूप-छाँव की तरह आती-जाती हैं। दुनिया भर की बातें देखने-निरखने-परखने, पढ़ने और चिन्तन-मनन के बाद भी लिखने के लिए भाव व विचार नहीं आ पाते। आ जाए तो लिखते वक्त साथ छोड़ देते हैं। किसी तरह लिखने के बाद प्रायः ऐसा लगता है कि पूरी तैयारी के साथ नहीं लिखा गया। कथानक स्पष्ट नहीं कर हुआ, पात्रों का चरित्र उभारने में कसर रह गयी है या बाकी सब तो ठीक है पर अंत रचना के विकास के अनुरूप नहीं हुआ। एक सीमा और समय के बाद रचना लेखक से स्वतंत्र हो जाती है। शायद बोल पाती तो कहती कि उसे किसी और के द्वारा बेहतर लिखा जा सकता था।


मनीष कुमार सिंह

एफ-2,/273,वैशाली,गाजियाबाद, उत्‍तर प्रदेश। पिन-201010 09868140022 ईमेल:manishkumarsingh513@gmail.com

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