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बाबूजी की आराम कुर्सी

  • महेश शर्मा धार
  • 28 फ़र॰
  • 8 मिनट पठन




आफिस से शाम को घर आते ही मुझे घर के ओटले पर जो नजर आया, मैं  ठिठक गया। था तो कुछ नहीं लेकिन ओटले पर पुरानी आराम कुर्सी खाली रखी हुई थी। वही कुर्सी जिस पर रोजाना बाबूजी बैठते थे। हालाँकि पिछले तीन वर्षों से वे हमारे बीच नहीं थे, और तभी से मैंने उनकी आराम कुर्सी को घर के एक कमरे में सुरक्षित उनकी यादगार के रूप में रख दिया था। आज अचानक कुर्सी बाहर दिखी, लेकिन किसी बेनूर उदास, शोकपूर्ण मुद्रा वाली पत्थर की मूर्ति की तरह।

मैं वहीं घर के ओटले पर बैठ कर पिछली यादों में डुबने लगा।

बहुत सजीव हुआ करती थी यह कुर्सी जब बाबूजी इस पर सुबह सात  बजे से  नौ बजे तक धूप लेते थे, और इसी पर बैठ कर अखबार पड़ा करते थे। दोपहर को जब वे आराम करते थे तब यह कुर्सी भी आराम करती। शाम को चार बजे फिर ये कुर्सी और बाबूजी दोनों व्यस्त हो जाते। दोपहर का आराम कर बाबूजी फिर ओटले पर कुर्सी लगाकर बैठते। चाय वहीं पीते बच्चों को खेलते देखते और रास्ते से आने जाने वालों को देखा करते। लेकिन मुझे मालूम था कि इस व्यस्तता में वे वास्तव में मेरे ऑफिस से लोटने का इन्तजार करते थे। साढ़े पांच से लेकर छह बजे तक जब तक में ऑफिस से घर नहीं आ जाता, उस ओटले और आराम कुर्सी को नहीं छोड़ते।

मुझे देखते ही उनके चेहरे पर एक चमक आ जाती, एक सुकून की मुस्कराहट के साथ अक्सर बोलते, “बहुत देर कर दी बेटा आज तो,”, “देर कर दी, ‘ “आज तो जल्दी आ गए,” या घर की कोई बात कहते हुए मेरे साथ ही घर में घुसते थे। माँ कहती अब अन्दर आने का मन हुआ तुम्हारा जब बेटा घर पर आ गया है। वे केवल मुस्करा देते, और मैं धन्य हो जाता अपनी इस अमूल्य संपदा पर।

वैसे बाबूजी को अपना पैतृक निवास जो गाँव में था उसे छोड़ना बिलकुल पसंद नहीं था। लेकिन मेरे आग्रह के कारण कुछ स्थान परिवर्तन के लिए माँ के साथ बाबूजी भी मेरे यहां रहने को आ जाते थे। एक-दो माह जो वे यहां गुजारते यह समय मेरे लिए अतिरिक्त उत्साह और व्यस्तता का हो जाता था। मैं प्रयास करता ऐसे अवसर ढूंढने का, ऐसे कामों का जिनमें वो व्यस्त रहें या उन्हें रूचिकर लगे। कई  बार उन्हें किसी मन्दिर ले जाता, कभी बाजार तो कभी अपने किसी परिचित के यहां जहाँ कोई बुजुर्ग हो। और ये मेरा प्रयास कुछ ऐसा ही था जैसे कोई किसी अति विशाल कर्ज को चुकाने का विनम्र प्रयास करे या धरती से लेकर आकाश तक की अनंत ऊंचाइयों को छूते  एक निश्छल प्रेम, अटूट विश्वास और लगाव से भरे रिश्ते के एहसास को पुनः उसी रूप में लौटाने की  तिनके के सामान अति लघु कोशिश!

तेज बुखार आया था रात  को , वे टायलेट जाने के लिए उठे और अचानक गिर पड़े । पता चला शरीर का आधा हिस्सा पेरेलिसिस का शिकार हो चुका था । तत्काल अस्पताल में भरती किया गया। आठ दस दिन में कुछ सुधार हुआ लेकिन हाथ का पंजा पाँव का पंजा अभी भी काम नहीं कर रहे थे । बाबूजी बहुत चिंतित थे वे तत्काल सुधार चाहते थे । कई तरह की तेल मालिश , दवाईयाँ, गोलियां  आदि से इलाज करवाया । धीरे-धीरे सुधार हुआ भी अंततः वे चलने फिरने लग गए लेकिन उन्हें बैठने में अभी भी तकलीफ होती थी एक पाँव लम्बा करके बैठना पड़ता था ।

इस बीमारी के बाद जब में उन्हें अपने यहाँ  लाया तो घर में बैठे-बैठे बोर होने लगे । वे बाहर बैठना भी चाहते थे पर सीधी कुर्सी पर बैठ नहीं पाते थे । एक दिन माँ ने कहा ``बेटा वो एक आराम कुर्सी भी आती है  ना लम्बी , महँगी आती है  क्या ? यदि वो ------ मैंने  माँ की बात पूरी भी नहीं होने दी । मैं  अभी जाके  लाता हूँ।

और मैं  बाजार जाकर उसी दिन एक बढ़िया सी लकड़ी की आराम कुर्सी ले आया । उस दिन मैं  बहुत उत्साहित था । प्रसन्नता से इतना अभिभूत था जैसे उनके लिए कोई अनमोल तोहफा ले जा रहा हूँ  ।

घर पहुँच कर पूरी कुर्सी लगाकर जब बाबूजी को बैठाया तो बाबूजी गदगद हो गए उन्हें बहुत अच्छा लगा । उठने बैठने में आरामदायक लेटने में सुविधा जनक ! उन्होंने उस कुर्सी को सम्हाल सम्हाल कर देखा और उसी दिन से बाबूजी उस कुर्सी को अपनी महत्वपूर्ण सम्पत्ति मानकर उसका उपयोग करने लगे । मुझे उनकी ललक देखकर अपने बचपन के दिन याद आ गए जब बाबूजी ने मुझे तीन पहिये वाली साइकिल लाकर दी थी और मैं  इतना खुश हुआ था मानो मुझे स्वर्ग का राज मिल गया हो मस्त होकर दिनभर साइकिल चलाता ,हंसता खिलखिलाता और मुझे देखकर बाबूजी और माँ भी खुश होते ।

मैं  सोच रहा था वही समय पलटकर फिर अपने आप को दोहरा रहा हे एक नए रूप में । मुझे यह अहसास अन्दर तक सुख की जबरदस्त अनुभूति दे गया कि, मैंने  बाबूजी के लिए ऐसा कुछ किया हे जिससे वो बहुत खुश हुए भले ही इसके लिए ज्यादा पैसा खर्च नहीं किया लेकिन उन्हें आल्हादित करने वाला कार्य उचित समय पर किया था ।

 फिर इस कुर्सी ने प्रसन्नता के कई क्षण मुझे दिए । बड़ी बेटी की शादी में बाबूजी एक माह पहले से आ गए थे रोजाना ओटले पर कुर्सी लगवाकर बैठ  जाते और बैठे-बैठे ही शादी की सारी तैयारियों का जायजा लेते । दोपहर का आराम भी उसी पर कर लेते । शाम की चर्चा में आराम कुर्सी पर बैठे-बैठे ही भाग लेते । माँ चिढ़ कर कहती ``अब रात भर के लिए तो ये राजसिंहासन छोड़ दो । और तब बाबूजी रात को अपने बिस्तर पर सोने जाते ।

मुझे आज भी याद है  बाबूजी की वो छवि , जब वो सफ़ेद धोती कुर्ता पहने ऊपर से जाकेट गुलबंद डाले आराम से कुर्सी  पर लेटे रहते और पान चबाते रहते । भाई साहब का छोटा बिट्टू जिद करता तो उसे भी अपनी गोद में बिठा लेते । गाँव  से आये कुछ बुजुर्ग उस कुर्सी को लेकर कुछ ईर्ष्या भी करते और बाबूजी थे कि आराम कुर्सी पर बैठे या लेटे ज्यादा इतराते ।

लेकिन क्या पता था कि यही कुर्सी जिससे इतनी अच्छी-अच्छी यादें जुड़ी थीं किसी ऐसे हादसे में भी भागीदार बनेगी जो हमेशा मन को दुःख की अनुभूति देता रहेगा !

रोजाना की तरह बाबूजी सुबह का खाना खाकर आराम कुर्सी पर लेटे थे ! उन्हें हलकी सी नींद भी आ गई थी तभी शायद कालप्रेरित वो दुर्घटना घटी । मोहल्ले के एक आवारा सांड और अन्य बैलों में सड़क पर पड़े चारे को खाने के लिए जो घमासान मचा तो दोनों सींगो में उलझते एक दूसरे से भिड़ते हुए घर के ओटले से टकराए । उसी गुत्थमगुत्था में एक बैल का सींग ओटले पर बैठे बाबूजी की कुर्सी के पाए में फंसा । लोगबाग चिल्लाते हुए दौड़े तब तक तो बाबूजी धड़ाम से आराम कुर्सी सहित गली में जा गिरे । बैल का सींग तब भी कुर्सी में फंसा रहा , नतीजा यह हुआ कि दस बारह फुट दूर तक बाबूजी कुर्सी के साथ रगड़ते हुए  फिंका गए । किसी बैल का पैर भी उन्हें लगा । तत्काल उन्हें अस्पताल में भरती किया गया । चोट काफी आई थी यद्यपि डाक्टरों ने सम्हाल लिया था तो भी अभी खतरे से बाहर नहीं थे ।

दो तीन दिन बाद थोड़ी तबीयत सुधरी कुछ होश दुरुस्त हुए , तो बाबूजी रोने लगे । मैंने उन्हें धीरज बंधाया । तभी अचानक पूछ बैठे अरे वो मेरी कुर्सी ? गली से उठा तो ली थी ना ?

इस अप्रत्याशित प्रश्न से सभी चौंक पड़े । हँसी भी आ गई सबको| माँ ने उन्हें उलाहना देते हुए कहा अब तो उस मुई कुर्सी का नाम छोड़ो भगवान् का नाम लो ।

मेरे मन में अचानक एक विचार कौंधा `` किसी भी कमजोर मनोबल वाले व्यक्ति या निराश रोगी को उसकी प्रिय वस्तु की आकांक्षा जगाने से उसकी शक्ति तेजी से पुनः संग्रह  होती है  । मैंने  बाबूजी को धीरज बंधाया `` बाबूजी आपकी आराम कुर्सी सुरक्षित है  आप जल्दी अच्छे हो जाओ फिर वहीं आपको उसी पर आराम करना है  ।

मैंने पाया की बाबूजी को यह बात बहुत अच्छी लगी । आठ दस दिनों में स्वास्थ्य कुछ ठीक हुआ | बाबूजी भी घर चलने की जिद कर रहे थे । घर आने के बाद मुश्किल से दो दिन गुजरे होंगे कि बाहर धूप में बैठने की जिद करने लगे । उनका मन देख कर मैंने पुनः आराम कुर्सी लगवाकर उन्हें थोड़ी देर कुर्सी पर बिठाया । बैठते ही बाबूजी को लगा वे वापस अपने राजसिंहासन पर विराज चुके हैं  , बड़े सुकून से वे लेट गए ।

मैं  ऑफिस के लिए निकल चूका था । अभी लंच टाइम भी नहीं हुआ था की घर से खबर आई बाबूजी की तबीयत गड़बड़ है  तत्काल घर पहुंचा बड़ी भीड़ लगी थी घर के बाहर । अन्दर पहुंचा , बाबूजी निष्प्राण पड़े थे । घर में कोहराम मचा था अनंत लोक का वासी अपने अज्ञात सफ़र पर रवाना हो चुका था ।

दूसरे दिन माँ ने बताया की सुबह कुर्सी पर बैठे-बैठे धूप लेने के बाद अन्दर आने से इनकार करते हुए उन्होंने खाना भी वहीं बुला लिया और खाना खाकर जो लेटे तो आँख नहीं खोली । मैं  जब उठाने गई तब पता चला कि अब कुछ बाकी  नहीं है  ।

मैं  समझ नहीं पाया क्यों किसी को किसी से इतना मोह हो जाता है  । सजीव रिश्ते तो ठीक किसी जड़वत वस्तु से भी मनुष्य इतना बंध जाता है  । माँ ने कई बार कहा कि, इस कुर्सी को कहीं भी फेंक दो या किसी को दे दो , इसे देखकर मन न जाने कैसा हो जाता है  ।

लेकिन मैंने उस कुर्सी को बाबूजी की प्रिय धरोहर के रूप में अपने घर में सम्हाल कर  रखा था । मैं जब भी उस कुर्सी के नजदीक पहुंचकर उसके हत्थे पर हाथ रखता , मुझे बाबूजी के पीले मुरझाये से हाथों  का एहसास होने लगता । मैं  उस कुर्सी के नजदीक बैठता तो लगता बाबूजी के पास बैठा हूँ  ।

अचानक मेरी तंद्रा टूटी ,  मां की आवाज कानों में गुंजी बेटा यहाँ  ओटले पर बैठा क्या सोच रहा है ?

अरे ये कुर्सी बाहर क्यों निकाली  है   । मैंने पत्नी से पूछा । उसने बताया घर की साफ़ सफाई चल रही है  । मैंने एक कपड़ा लिया और उस कुर्सी के हत्थे पाए साफ़ करने लगा ,उसे झटकार फटकार कर उसकी धुल हटाई ।

मैं  भावुक हो चला था । मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं  बाबूजी की ही सेवा कर रहा हूँ  ।


 

लेखक परिचय - महेश शर्मा धार


श्री महेश शर्मा धार
श्री महेश शर्मा धार

शिक्षा -----विज्ञान स्नातक एवं प्राकृतिक चिकित्सक

रूचि ----लेखन पठन पाठन गायन पर्यटन

लेखन  परिमाण ---- लभग ४५ लघुकथाएं 80 कहानियां २०० से अधिक गीत२०० के लगभग गज़लें कवितायेँ लगभग ५० एवं ८० ले लगभग आलेख 

प्रकाशन --- दो कहानी संग्रह १- हरिद्वार के हरी -२ – आखिर कब तक

          एक गीत संग्रह ,, मैं गीत किसी बंजारे का ,,

         दो उपन्यास  १- एक सफ़र घर आँगन से कोठे तक  

इनके अलावा विभिन्न पत्रिकाओं जैसे हंस , साहित्य अमृत , नया ज्ञानोदय , परिकथा ,  परिंदे  वीणा , ककसाड ,  कथाबिम्ब ,  सोच विचार , मुक्तांचल , मधुरांचल , नूतन कहानियां , इन्द्रप्रस्थ भारती और एनी कई पत्रिकाओं में   चार सौ पचास से अधिक गीत कहानी लघुकथा ग़ज़ल आदि  रचनाएं प्रकाशित

 मंचन -- एक कहानी ,, गरम रोटी का श्री राम सभागार दिल्ली में रूबरू नाट्य संस्था द्वारा मंचन  मंचन 

सम्मान --- जयपुर राजस्थान की पत्रिका साहित्य समर्था से श्रेष्ठ कहानी पुरस्कार  म प्र . संस्कृति विभाग से साहित्य पुरस्कार , बनारस से सोच् विचार  पत्रिका द्वारा ग्राम्य कहानी पुरस्कार , लघुकथा के लिए शब्द निष्ठा पुरस्कार ,श्री गोविन्द हिन्दी सेवा समिती द्वाराहिंदी भाषा रत्न पुरस्कार एवं एनी कई पुरस्कार

सम्प्रति – सेवा निवृत बेंक अधिकारी , रोटरी क्लब अध्यक्ष रहते हुए सामाजिक योगदान , मंचीय काव्य पाठ  एनी सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से सेवा कार्य

संपर्क --- मो न 9340198976 ई  मेल –mahesh.k111555@gmail.com 

 निवास – “ खदरा “ इरादत नगर नियर पक्का पूल लखनऊ पिन 226020

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Invitado
11 mar

भावपूर्ण कथा.हार्दिक बधाई.

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