सारे मौसम धरे के धरे रह गए। कहां कि मेहमानों की लंबी फेहरिस्त पर मुबाहिसा चल रहा था, किसको बुलाएं और किसको काटा जाए। कहां कि सारा मुआमला ही ठण्डे बस्ते में चला गया। हाल दिल्ली के जामा मस्जिद के करीब बसी एक मुस्लिम बस्ती का है। आदिल अहमद इस बस्ती में रईसों में गिने जाते थे। उनका बड़ा ही दबदबा था। व्यापार मण्डल के अंतर्गत आने वाली विभिन्न शाखाओं में से एक पर उनका कब्जा था। बस्ती के भीतर जीम पूरी मार्केट का जिम्मा उनका था। यानी उनका ही टेण्डर था। चार बच्चे उनके जिसमें से तीन विवाहित, सबसे छोटी औलाद बेटी लैला। जिसका निकाह आज ही कल में होना था। प्रेम विवाह था। रिश्ता फेसबुक के जरिए शुरू हुआ था। आमिर बर। पाकिस्तानी इंजीनियर। पाकिस्तान के लाहौर से था। सॉफ्टवेयर इंजीनियर। लैला शेख आदिल अहमद की सबसे छोटी संतान और जामिया मिल्लिया की अर्थशास्त्र विभाग की रिसर्च स्कॉलर। वर्चुअल दुनिया से गुजरते हुए जाने कब वे एक दूसरे की हकीकी दुनिया में दाखिल हो गए थे। लैला की झेलम-आंखों के साहिल पर आदिल की कीम खाब से जड़ी अफशां तमन्नाएं किसी भी वक्त ठहर के पंख फटकारने लगतीं। और लैला के ख़ाब आदिल की समंदरी बांहों में गोतम गोता। रात के तीसरे पहर आदिल की आंखों में शहतूत की टहनी सी झूल जाती। अंततः जब बात शादी तक पहुंच गई तो घर वालों को भी शामिल करना जरूरी हो गया। इस लिहाज से घर की जिम्मेदार औरतों के माध्यम से यह बात घर के मर्दों तक पहुंचाई गई। लैला की मां ने बड़ी सहम के साथ आदिल अहमद के सामने यह बात रखी तो वह भड़क उठे-
‘‘तुम दोनों मां बेटियों का दिमाग तो नहीं खराब हो गया है। जाओ इलाज कराओ अपना। लड़का भी ढ़ूंढ़ा तो पाकिस्तान में, हिंदोस्तान में लड़के मर गए थे क्या? जितनी छूट दो उतनी ही कम है। अब मुझे इतना मौका है कि मैं पाकिस्तान के दौरे शुरू करूं? वाहियात कहीं की।‘‘
अम्मा आ कर लैला को जली कटी सुना गईं। पर दिल की लगी का क्या इलाज? लैला के हाथ के तो तोते उड़ गए। आमिर से बताया तो वह भी मायूस हो गया। कोई तरतीब निकालने का बोला और खामोश रह गया। चंचल बयार सी लैला बिल्कुल शांत हो गई। लेकिन जब घर में दादी मां तक यह बात पहुंची तो वह फौरन हरकत में आ गईं। लैला के कमरे में पहुंचीं और उसके बाजू में बैठ कर उसके सिर में हाथ फेरती बोलीं-
‘‘निगोड़ी, इतनी अच्छी खबर तूने पहले क्यूं न सुनाई मुझे? अब समझ तेरा काम हुआ सो हुआ।‘‘ लैला चीख कर उनसे लिपट गई
‘‘दादी मां क्या कह रहीं हैं?‘‘
‘‘सही कह रही हूं। बहुत दिनों बाद फिर से सारे टूटे रिश्ते बहाल होने वाले हैं।‘‘ कहते हुए उन्होंने गहरी सांस खींची।
‘‘क्या मतलब दादी मां?‘‘ लैला संभल कर बैठ गई।
‘‘दरअसल गुड़िया, शायद तुझे नहीं पता कि हमारा आधा खानदान करांची में ही क़याम करता है। बंटवारे के बाद हम सब तिंयां-तियां हो गए। कोई कहां बिखर गया, कोई कहां बिखर गया। फिर जब तूफान थमा तो हम सारे एक दूसरे से सदियों सदियों के लिए छूट चुके थे। आंखों में बस एक अनाम सी तलाश बाकी रह गई थ जो कभी खत्म नहीं हुई। तेरे अब्बा के चचा, मामू, और तमाम लोग उधर ही तो हैं। अब तेरे बहाने अल्लाह ने एक पुल कत्रायम किया है। अब जरूर टूटे हुए रिश्ते बहाल होंगे। आना जाना शुरू आमद रफ्त शुरू होगी, अमन और उल्फत के लियाक़त गुलाब फिर महकेंगे इंशाल्लाह।‘‘ कहते-कहते उनकी आंखें भीग गईं।
‘’लेकिन दादी अम्मा, अब्बूजान तो हत्थे से ही उखड़ गए उनका क्या करेंगे। ‘‘
‘‘उसकी ऐसी की तैसी। कैसे न होने देगा। उसी की मर्जी से सब कुछ थोड़े ही होगा।
फिर दादी मां ने आदिल अहमद की अच्छी क्लास लीं। अंततः उन्हें राजी होना पड़ा। आमिर बर से जब उन्होंने बात की तो निहाल हो गए-
‘‘अम्मी, लड़का तो काफी तालीमयाफ्ता और बेहतरीन इंसान है।‘‘
‘‘मैं कहती थी न, बगैर जाने समझे किसी के बारे में राय क़ायम नहीं करनी चाहिए। आखिर पाकिस्तान हिंदोस्तान में फर्क ही क्या है? हैं तो भाई-भाई ही। एक भाई दूसरे भाई के घर अपनी बेटी ब्याह रहा है इसमें इतना डरने की क्या बात है। वो भी अपना ही मुल्क है, अपना ही घर है। फिर हमारे आधे लोग तो वहीं रहते हैं। हां, याद आया पेशावर में मुनव्वर रहता है तेरे मामूजान का भी इस्लामाबाद में बिजनेस है। उन सबके नंबर तलाश करो और सबसे राबता क़ायम करो‘‘
‘‘हां, यह ठीक रहेगा।‘‘
आमिर बर अपने कमरे में बैठा ख़लअ में खोया हुआ सिगरेट के कश खींचे जा रहा था। कई दिनों से उसे नींद नहीं आई थी। मन ही मन मनाता रहता कि किसी तरीके से बात बन जाए। लेकिन जब उस रात लैला का अचानक फोन आया तो वह चौंक पड़ा। इत्ती रात में लैला का फोन? लेकिन जब लैला ने उसे चहकते हुए खुशखबरी दी तो उसने लंबी सांस खेंचते हुए अल्लाह का शुक्रिया अदा किया। वर्ना इतने दिनों से उसकी हिम्मत न हो रही थी लैला को फोन करने की। कई बार फोन उसे मिलाता फिर काट देता। खैर। खुश-खबरी सुन उसका जी हरा हो गया था। थोड़ी बहुत बात दादी अम्मा ने भी की थी उससे।
आदिल अहमद ने कवायद शुरु कर दी थी। पुरानी डायरी निकाल कर सबके फोन नंबर तलाशें और तडा-तड़ सबको फोन करना शुरू कर दिया। कुछ मिले कुछ नहीं मिले। मुनव्वर का फोन लग गया। फोन रिसीव करते ही मुनव्वर ने नाक भौं बनाए। ‘‘क्यूं भाईजान, याद करने में जमाने लगा दिये। आखिर हम मिट्टी तो वहीं की हैं।‘‘
‘‘बिल्कुल बरखुरदार, इससे कब इंकार है। बस कुछ मसरूफियात ज्यादह थी। लेकिन अब जल्द ही नजदीकियां बढ़ेंगी।‘‘ और फिर उन्होंने सारी सूरत ए हाल मुनव्वर को बता डालीं। मुनव्वर निहाल हो उठा-
‘‘वाह, फिर तो बड़ी समझदारी दिखाई हमारी लाडो ने। देख, मुहब्बतें सरहदें नहीं मानतीं।‘‘ और रिश्ते बहाल हो गए। इधर हिंदोस्तान का जी बल्लियों उछल रहा था, उधर पाकिस्तान की बाछें खिली पड़ी थीं।
फिर चचा जान को फोन लगाया।
‘‘चचा जान, बहुत जल्दी आपकी खिदमत के लिए आपकी पोती लैला को भेज रहा हूं।‘‘
‘‘क्या मतलब?‘‘ और सारा कुछ आदिल अहमद ने कह सुनाया। चचाजान उछल पड़े।
‘‘वाह मेरे जानेमन, मारके की खबर सुनाई। पास होते तो जुबां चूम लेते। जल्दी ही हम रूबरू होंगे इसका मतलब।‘‘
‘‘हां ... इंशाल्लाह ...‘‘
‘‘ठीक है अभी जाकर सारे शहर में पेड़े बंटवाता हूं। तेरी चची तो नाच उठेंगी।‘‘ सरहद की दोनों तरफ घी के दिए जलाए गए। शादी की खुशी से ज्यादह अपने बिछड़े हुओं से मिलने का उत्साह था। धूम थी। फोन पर रोज लंबी बातें होने लगीं। पाकिस्तानी दूल्हा जैसे मुनव्वर और चचा समेत पूरे परिवार में खिलौने की तरह खेला जा रहा था। आए दिन दावतें, जियाफतें। चचा को लगता कि वह लड़का उनका सारा हिंदोस्तानी परिवार उनके कदमों में ला कर डाल देगा। जिस बार दूल्हा हिंदोस्तान गया शादी की तारीख तय करने, मुनव्वर व चचा समेत सारे खानदान ने शानदार विदाई दी। चचा ने उसकी पेशानी चूम कर उसे विदा किया। यहां आदिल अहमद के परिवार ने भी उसका वो शानदार खैरमखदम किया कि लोग देखते रह गए। लगा उनका पूरा पाकिस्तानी खानदान सामने आ खड़ा हुआ हो। दादी मां ने उसका हाथ थाम कर पुछा-
‘‘बेटे, आते वक्त शमशुल ने तुझे बोसा कहां दिया था?‘‘ दूल्हे ने पेशानी की तरफ इशारा करते हुए कहा-
‘‘जी दादी मां, यहां ...‘‘
और दादी मां ने उसे थोड़ा झुकने को कहा फिर उसकी पेशानी पे हाथ फेरने लगीं- ‘‘हां, यहीं से आती है हमारी मिट्टी की महक‘‘! और उन्होंने उसकी पेशानी चूम ली।
पूरे दो दिन तक आमिर बर दिल्ली में रहा। खूब इज्जत अफजाई हुई। लैला से भी मुलाकात हुई। मन में सोचता रहा ‘‘मैं तो सोच रहा था कि पाकिस्तानी लड़कियां ही खूबसूरत होती हैं, मगर ये हिंदोस्तानी हुस्न तो पाकिस्तानी हुस्न को भी मात दे रहा है।‘‘ वहीं लैला की खुशी का ठिकाना न था। एक नामुमकिन सी बात मुमकिन हो गई थी। वह मन ही मन दादी मां पे वारी जाती। दादी मां ने सारा कुछ कितना आसान कर दिया था। तीसरे दिन आमिर की वापसी की फ्लाईट थी। आदिल अहमद के घरवालों की आंखों में आंसू थे। जैसे घर का ही लड़का कहीं दूर देश को जा रहा हो। दादी मां ने बढ़ कर उसकी पेशानी चूम ली।‘‘ जा बेटा शमशुल से मेरा सलाम कहना और अपने घर भी। शाम को आमिर पाकिस्तान पहुंच गया। वहां अलग ही रौनक थी। लैला का सारा खानदान आमिर के घर पे इकट्ठा था। सभी बेहद बेसब्री से उसका इंतजार कर रहे थे। हर तरफ से सवालात के सोते फूट रहे थे - ‘‘वहां कैसा लग रहा था? लोग कैसे थे? वहां का मौसम कैसा था? सभी कैसे मिलते थे? कोई दिक्कत तो नहीं हुई?
मुमानी ने पूछा-
‘‘क्यूं आमिर, वहां तो गैरमुस्लिम भी हैं, उनका सलूक कैसा था तुम्हारे साथ?‘‘
‘‘अरे मुमानी पुछो मत। लैला के अब्बू के दोस्त शंकर अंकल तो लाजवाब थे। ऐसी खातिर तवाजो की कि उनका बस चलता तो दिल में रख लेते हमें। लैला की हिंदू सहेलियां भी क्या कम थीं। किरन ने तो पूरे एक दिन में ही पूरी दिल्ली की सैर करवा दी। उसकी बहनें, वालिदैन सभी बेहद मेहमान नवाज। जैसे मैं उनका अपना ही दामाद हूं। हमारे लाहौर से दिल्ली कहीं भी कम नहीं मुमानी। बिल्कुल अपनी सी ही लगी।‘‘ सभी गौर से सुन सुन के बिछे जा रहे थे। मुमानी की आंखों से आंसू रुक ही नहीं रहे थे-
‘‘क्यूं न हो बेटा, सियासत ने हमें इधर उधर फेंक दिया वर्ना हम एक चने की दो दाल ही तो हैं। तभी चचा जान घर में दाखिल हुए। आवाज सुन कर आमिर उछल पड़ा और जा के उनके गले से लग गया-
‘‘जीते रहो बेटा, कैसा रहा सफर। कैसे हैं सब लोग?‘‘ आमिर ने अलग होते हुए कहा ‘‘ अलहमदोलिल्लाह!‘‘ फिर अपनी पेशानी की तरफ इशारा करते हुए बोला ‘‘दादी मां ने आपको सलाम कहा है।‘‘ चचा जान ने लपक कर उसका माथा चूम लिया। आमिर ने शोखी की- ‘‘चचा जान, दो बार सलाम कहा था‘‘ सबकी हंसी छूट गई। चचाजान ने दोबारा बढ़ कर उसकी पेशानी चूम ली।
दोनों मुल्कों में शादी की तैयारियां जोरों पर थी। लग रहा था सिर्फ दो जन की नहीं, दो खानदान की नहीं बल्कि दोनों मुल्कों की शादियां आपस में हो रही थीं। जैसे दो सागर एक मेक होने वाले थे। दो आकाश एक दूसरे में विलय होने वाले थे।
नवंबर महीने की कोई तारीख थी। बादलों से आसमान हमेशा भरा ही रहता था। दिल्ली का आसमान वैसे भी कुहरे और बादलों से कहीं ज्यादह दूसिता हवाओं से अटा रहता है इन दिनों। यानी दिल्ली का आसमान पूरी तरह अभिषप्त है घोर प्रदूषण से। सही कहा जाए तो बड़ा वाहियात होता जा रहा है दिल्ली का मौसम। फिर भी, गुलाबी मौसम की आमद आमद। खैर उस एक किसी तारीख में हिंदोस्तान दहक उठा अचानक। नेफा पर हलचल हो गई। कुछ जवान शहीद हो गए। फिर क्या था, हिंदोस्तान-पाकिस्तान खेला जाने लगा। दिल्ली की गली-गली में पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाए गए। पाकिस्तान के खिलाफ जलसे किये गए और उधर से इधर, इधर से उधर की आमद रफ्त पे बंदी। हिंदोस्तान में बीजा ले कर रह रहे पाकिस्तानी बाशिंदों को रातों रात खदेड़ दिया गया। भले ही वो बेकसूर हों। दिल्ली की धुंआई गलियां और काली सी होने लगीं। जामा मस्जिद के पास का पूरा इलाका घरों में दुबका रहा। आदिल अहमद के घर में भी एक भयंकर तरह की तीरगी वीरानी ओढ़े पड़ी थी। लैला का जी रख उठा रहा था - “अब क्या होगा।‘‘ हिंदुस्तान की हर गली में पाकिस्तान मुर्दाबाद की रैलियां उग रही थीं। अचानक तुसारापात नहीं, अग्निपात हुआ था। किंतु कम्यूनिस्ट एवं वामपंथी इन रैलियों को पानी पी-पी के गरिया रहे थे। मुल्क की दुर्गति की खैर मना रहे थे। क्योंकि उन्हें पता था कि मुल्क की जड़ों में मट्ठा डालने वाले हाथ कोई और हैं। उन्हें पता था कि सरहद-हत्या ईमानदारी की नहीं साजिश की पैदाईश है। उन्हें पता था कि ये रैलियां प्रायोजित रैलियां थीं। केवल सांप्रदायिकता को प्रोत्साहित करने वाली। हर गली कूंचे का मुसलमान घर में मरा पड़ा था। दुकानों पर ताले लटक रहे थे। गली कूंचे सांए-सांए कर रहे थे। राजतंत्र अपने उरूज़ पर था। हर प्रकार से कुशासन थोपने को प्रतिबद्ध।
खैर हिंदोस्तान के सूर्य ने जी भर तांडव किया। दो से तीन दिनों में ही सारा मामला बिगड़ गया था। दिल्ली तअस्सुब के ताप से सुलग रही थी। मुस्लिम बस्तियां कुछ न कर पाने और कुछ न समझ पाने की स्थितियां लिए घरों में सो गई थीं। मेहनतकशों के चूल्हे फाक़े को मजबूर थे। घोषित हिंदोस्तानी बच्चे स्कूल जा रहे थे, और अघोषित हिंदोस्तानी बच्चे अपने बस्तों के साथ दड़बों में बंद पड़े थे। सारे पारिदृष्य पे आवारा पशुओं का साम्राज्य था।
एक दिन आदिल अहमद हारे हुए से आए और बरामदे में सोफे पर धम्म से धंस गए। पूरा जिस्म थकान और अवसाद से कांप रहा था। दिखने से लग रहा था कि तन से ज्यादह मन की थकान हावी है। हाथ में एक बड़ा सा थैला था जिसमें से उन्होंने सफेद कागज के बंडल निकाले और लैला की तरफ बढ़ा दिए-
‘‘लो इसे ठीक से रख दो।‘‘ लैला ने बढ़ कर ले लिया। फिर एक गिलास पानी उनके सामने रख के चली गई। पानी पी कर उन्होंने बेटों को आवाज दी और उन्हें समझाने लगे-
‘‘देखो कागज ला के लैला को दे दिए हैं। उससे ले लो और सभी लोग आराम से बैठ कर बड़े-बड़े लफ्जों में लिख डालो‘‘
‘‘ठीक है अब्बूजान, मगर लिखना क्या है यह तो बताईए?‘‘
टादिल अहमद थोड़ा झिझके फिर नजरें चुराते हुए बोले-
‘‘बेटा ... लिखना है ... पाकिस्तान मुर्दाबाद।‘‘
‘‘क्या?‘‘ कई आवाजें एक साथ चौंकी।
‘‘अब्बू, आ ... आप डर गए। कोई हमारा क्या करेगा। आखिर हिंदोस्तान हमारा मुल्क है।‘‘
‘‘डर का नहीं, अना का सवाल है बेटे। आज हमसे हमारी वफा का सुबूत मांगा जा रहा है। और हमारी वफादारी के सुबूत में हमसे सिर्फ यह जुमला मांगा जा रहा है। जो मुसलमान ये नहीं कहेगा वो गद्दार कहलाएगा। उन्हें इससे नहीं मतलब कि बहादुरशाह जफर ने अंग्रेजों को जवाब में कहा था कि सबकुछ मिट जाएगा लेकिन हिंदोस्तान नहीं मिटेगा। इनके लिए ये सबूत काफी नहीं।‘‘
घर के लोगों ने आदिल अहमद को जिंदगी में पहली बार इस कदर हारा और थका सा पाया था। पूरे घर में खामोशी छा गई अचानक। आखिर दादी मां उठ कर आदिल अहमद के पास आई और बोलीं-
‘‘बेटा आदिल, तेरा दिमाग फिर गया है क्या? कल तेरे भाई जुनैद से कुछ खुट पुट हो जाए तो क्या तू उसके लिए मुर्दाबाद का रट्टा मारेगा? ऐसे ही पाकिस्तान भी तो हमारा भाई ही है।‘‘
‘‘नहीं अम्मा यहां जज्बात से काम न लें। यह जरूरी है वर्ना हम सबकी रोजी रोटी खतरे में पड़ जाएगी। जाओ तुम लोग लिखो बैठ कर।‘‘
घर में ढेर सारे लड़के जमीन पर कागज फैला के बैठ गए और लिखा जाने लगा ... पाकिस्तान मुर्दाबाद ... पाकिस्तान मुर्दाबाद। लैला की स्थिति और भी गई गुजरी हो गई थी। वह किसी कमरे के एक कोने में दुबकी रहती और अपनी लोहित जिंदगी की बिखरी हुई किरचियों की चुभन महसूस करती रहती। शाम को जब आदिल अकेले में मिले तो दादी मां दे उन्हें धीरे से टटोला-
‘’...और आदिल अहमद, लैला के रिश्ते के लिए क्या कहते हो?‘‘
वह सिगरेट के छल्ले हवा में उछालते हुए बोले-
‘‘लैला से कह दो अम्मां, जी कड़ा कर ले और उसे भूल जाए।‘‘
लैला ने सुना तो बेहोश हो गई। घर में कुहराम मच गया। घर की औरतें मातमजदां हो गईं। बेटी का रिश्ता खत्म हो जाना कोई मामूली बात नहीं। लैला की हालत देख कर अदादी अम्मा ने अंतिम बार गुहार लगाई थी-
‘‘आदिल बेटा, ...लड़की का मुंह तो देखा होता, तुमने उससे वादा किया था।‘‘
‘‘तो क्या करें अम्मा, जान दे दें?‘‘
‘‘बेटा क्या फर्क पड़ता है यहां और वहां में। आखिर हिंदोस्तान और पाकिस्तान भाई-भाई ही ठहरे।‘‘
‘‘नहीं अम्मा, अब हिंदोस्तान पाकिस्तान भाई-भाई नहीं रहे। वर्ना ये नौबत ही क्यूं आती?‘‘ दादी अम्मा रोती हुई कमरे में चली गईं और लैला को सीने से लगा लिया। और फिर दोनों दहाड़ें मार-मार के रो पड़ीं। आदिल अहमद का दिल बैठा जा रहा था।
बाहरी दालान में कुछ मोतबर लोगों के बीच गर्मा-गर्म बहस जारी थी। चाय के कप टेबिल पर सजे हुए थे। शाकिर नवाब लगे पड़े थे-
‘‘भई, ये क्या बात हुई? दंगे खुद करवाते हो तोबड़ा पाकिस्तान के सिर फोड़ते हो।‘‘
‘‘भई, सरहद पर तनाव है, लगता है चुनाव है।‘‘ किसी ने चुटकी ली।
‘‘और नहीं तो क्या, फिर कहते हैं हिंदोस्तान छोड़ो पाकिस्तान जाओ। क्यूं छोड़ें भला? पैदाईश यहीं लिया, दादा परदादा सब यहां दफनाए अब हम पाकिस्तान जाएं अपनी मिट्टी छोड़ कर।‘‘
‘‘बिल्कुल, कोई नहीं जाएगा। अगर अलग भी करना है तो हम बाशिंदे यहां के हैं यहीं का एक टुकड़ा दे दो हमें, हम उसे ही अपन अलगा वतन बना लेंगे। मगर रहेंगें तो यहीं‘‘
‘‘और नहीं तो क्या, जहां तीन चार टुकड़े पहले ही हो चुके हैं, हिंदोस्तान के एक टुकड़ा और सहीं।‘‘
‘‘अरे छोड़ो मिंयां। सरकार क्यूं टुकड़े होने देगी। क्यूं वो एक और टुकड़ा करने लगी मुल्क का। ये सब बस शगूफे हैं। अवाम को आपस में लड़वाने के। हां नहीं तो।‘‘
दूसरे दिन घर का नौकर वो सारे छोटे-छोटे पोस्टर ले कर बाहर निकला दुकानों की दीवारों पर चिपकाने के लिए तो लगा वह पोस्टर नहीं, किसी आत्मीय का जनाजा लिए जा रहा हो। घर की औरतों की आंखें भर आईं पता नहीं क्यूं?
मार्केट की सारी दीवारों पर पोस्टर चस्पा किए जा रहे थे। हाजी मुन्नन का हाथ कई बार कांपा। बड़बड़ाए-‘‘क्या मुसीबत है।‘‘ फिर खड़े हो कर सिगरेट फूंकते रहे और पोस्टर पर लिखा बार-बार दोहराते रहे। ‘‘पाकिस्तान मुर्दाबाद.....पाकिस्तान मुर्दाबाद...
बीबीसी की रिपोर्टर जाहिदा शाहीन उधर ही टहलती हुई आ गईं। कई दुकानों की फोटो ली कवरेज किया फिर एक टोपी पाजामें वाले सज्जन के पास जा कर धीरे से बोलीं-
‘‘ मिंयां, ये...इस मुर्दाबाद के पीछे क्या आपकी रजामंदी है?‘‘
वह ठंडी सी सांस धीरे से खींच के फुसफुसाया-जाने दो बीबी, बस माहौल न खराब होने पाए इसलिए एहतियातन।
उधर लैला फोन पर आमिर से सुबग रही थी, और आमिर ढांढ़स दिए जा रहा था-‘‘ सब ठीक होगा इंशाल्लाह। अल्लाह पर भरोसा रखो। दिन बदलेंगे। मौसम बदलेगा। हालात बदलेंगे। हम अगले मौसमों का इंतजार करेंगे।
जनम-08 जनवरी, रानी बाग, नानपारा जिला बहराईच, उत्तर प्रदेश।
पिता- श्री अनीस अहमद खां
माँ- श्रीमती हुस्न बानो
शिक्षा-
अंग्रेजी, हिंदी, समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर । स्त्री अध्ययन और गांधीयन थॅाट में पी0जी0 डिप्लोमा, एम0फिल0, वर्तमान समय में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र में शोधरत
सम्मान-
समाज रत्न, सरस्वती साहित्य सम्मान, महादेवी वर्मा स्मृति सम्मान, स्व0 हरि ठाकुर स्मृति सम्मान। विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ द्वारा मानद उपाधि विद्यावाचस्पति (2011) से सम्मानित।
भारत एवं हिंदी प्रचारिणी सभा मोरशस द्वारा अंतरराष्ट्रीय सम्मान (2016) से सम्मानित।
अंतरराष्ट्रीय अवधी महोत्सव (नेपाल) में अंतरराष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित (2018)
कविता संग्रह-चाँद ब चाँद, शीला सिद्धांतकर स्मृति सम्मान (2014) द्वारा पुरस्कृत।
कहानी संग्रह-नीले पंखों वाली लड़कियाँ, स्पेनिन साहित्य गौरव पुरस्कार-(2014) से पुरस्कृत।
कहानी संग्रह- नर्गिस फिर नही आएगी , डॉ विजय मोहन सिंह स्मृति (प्रथम पुरस्कार) पुरस्कार--(2017)
प्रकाशन-
कविता संग्रह- मौसम भर याद, चाँद-ब-चाँद
कहानी संग्रह- नीले पँखों वाली लड़कियाँ,
नर्गिस फिर नहीं आएगी,
सुनैना! सुनो ना....
गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता
उपन्यास- फिरोजी आँधियाँ
कामनाओं के नशेमन
शोध पुस्तक- धार्मिक सह-अस्तित्व और सुफीवाद
सपादित पुस्तक-
कविताओं में राष्ट्रपिता
आदिवासी विमर्श के विभिन्न आयाम
‘‘साहित्य में मुस्लिम महिलाओं के मुद्दे (विशेष संदर्भ: हुस्न तबस्सुम निंहाँ )‘‘लघु शोध प्रबंध सुश्री मंजू आर्या द्वारा प्रस्तुत।(स्त्री अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र द्वारा)
सम्पर्क-महात्मा गांधी अंतरराष्ट्री य हिंदी विश्वा विद्यालय गांधी हिल्स वर्धा महाराष्ट्र
मो0-09415778595
09455448844,
ई-मेल-nihan073@gmail.com
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