खादर पार के एक गाँव में जब आने जाने के साधन थोड़े कम थे; मतलब यही कि दादी नानी के ज़माने वाली बैलगाड़ी, भैंसा गाड़ी या बुग्गी वाला समय था - वहीं एक भतीजा था जो मैं हूँ, विनय सिंह, और उसकी एक बुआ - विजया सिंह। खादर पार के गाँव को नदियों का भरपूर प्यार मिला था। हमारे गाँव के पास की बहती नदी हर साल बाढ़ का पानी लाती और जब वह पानी लाती तो उस समय पुरानी मिट्टी उसकी छाती से चिपक जाती और ये चिपकना कुछ इस क़दर होता कि नदी के वापस अपनी सरहद पर लौटने पर मिट्टी का कुछ हिस्सा उसके साथ ही लौट जाता और यहाँ की धरती के लिए कुछ नई मिट्टी छोड़ जाता। बांगर पार के गाँव को इस मिट्टी का स्वाद कभी नहीं मिला, वो नमी नहीं मिली, इसलिए उधर के गाँव थोड़े उदास ही रहते।
तो अब गाँव से घर पर आते हैं - मेरी बुआ विजया सिंह नरम दिल और कड़क स्वभाव की, देखने में थोड़ी गदबदी, बच्चों जैसे भोले चेहरे वाली थी। उम्र यही कोई बीस इक्कीस बरस, मुझसे बस आठ-नौ साल बड़ी। बुआ के चेहरे पर एक सफेद निशान था। सफ़ेद निशान मतलब विटिलिगो - स्किन की एक प्रॉब्लम जिसका पता मुझे बड़े होने पर चला। शुरुआत में ये सफेद निशान छोटा था फिर बड़ा होता चला गया। उस समय इस सफ़ेद निशान के बारे में मैं कुछ नहीं जानता था, बस मुझे इतना पता था कि सफेद निशान वाली लड़कियों से कोई शादी नहीं करता, क्योंकि दादी हमेशा बुआ को इस बात पर डाँटती रहती। कहती कि वह चुन्नी से अपना चेहरा छिपाकर रखे पर बुआ जब ऐसा नहीं करती तो दादी शोर मचाने लगती।
“नासपीटी मुँह पर चुन्नी रख ले -”
और कभी-कभी तो एक आध सिर पर लगा भी देती। दादी और बुआ की यह नोंक झोंक चलती ही रहती। मेरे पापा जो दादी के छोटे बेटे थे, उन दोनों के बीच में कभी नहीं आते। दादी के बड़े बेटे यानी मेरे ताऊजी सोनीपत रहा करते थे। दादी ने उस पुराने समय में भी परिवार नियोजन का पूरा ध्यान रखा था और मेरे पापा-मम्मी को परिवार नियोजन का ध्यान रखने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी, क्योंकि दादी की लाख मन्नतों के बाद भी मेरे अलावा दूसरा कोई हुआ ही नहीं। मेरी मम्मी को इस बात का कोई मलाल ना था; पापा को थोड़ा था और ज़्यादा दादी के कहने पर हो जाता। हमारे घर के बड़े से आँगन में दादी और बुआ की बायो केमिस्ट्री को मैं अपनी किताब के सिरफिरे अक्षरों से पीछा छुड़ाने की वज़ह से और मेरी बहुत कम बोलने वाली माँ शायद अपनी थकान को कम करने के लिए रसोई से ही अपने सिर पर पल्ला ढँके मंद-मंद मुस्कुरा कर देखती रहती, क्योंकि दादी जब एक बार बोलना शुरू करती तो तब तक बोलती रहती जब तक बुआ उन्हें दिखती रहती और बुआ ज़्यादा देर उनके पास टिकती ही नहीं, वह अपना परम प्रिय (और दादी का भी) ट्रांजिस्टर उठाकर धप-धप करती छत की सीढ़ियाँ चढ़ जाती।
खादर और बाँगर के बारे में दादी के पास ढेर सारे जुमले थे, जैसे ‘बांगर वाले हमारी जोट के नहीं होते ... उन्हें ना खाने पीने की और ना ओढ़ने की अकल होती-’
बुआ के रिश्तों की बात आने पर वह बांगर वालों का नाम ही लेना नहीं चाहती क्योंकि वह लाख बुआ को कोसे पर चाहना उनकी यही थी कि बुआ जिस घर में जाये, वहाँ उसे किसी चीज़ की कमी ना रहे।
दादी हर महीने बुआ के निशान की दवा लाने दूसरे गाँव जाया करती थी। वे उसमें कोई नागा नहीं करती। दादी की उन दिनों पहली और आख़िरी इच्छा विज्जी बुआ का ब्याह था।
बुआ के चेहरे के लिए हमारे घर में दादी के मुँह से बहुत सारी कहानियाँ चलती फिरती रहती; उनमें से मैँने जो पकड़ी आज उसका सिर पैर मेरी याददाश्त से गायब हो चुका है। बुआ को चेहरा छुपाने की ताक़ीद दादी की थी पर बुआ ठहरी बुआ वह हमेशा उसे खोल कर ही घूमती; घर से बाहर निकलते ही वह चुन्नी उतार देती। दादी बुआ के चेहरे पर रखे निशान के लिए कहती कि जब बुआ छोटी थी तो एक दिन रात को सोई, सुबह उठी तो उसके चेहरे पर सफेद निशान बना था। दादी को लगता है कि पड़ोस में रहने वाली बिल्लू की अम्मा ने बुआ पर ऊपरी कर दिया था। ऊपरी? मैं ऊपर देख रहा था - “परी या भूत दादी?”
“टोटका कर दिया था उसने। जलती थी वो तेरी बुआ को देखकर। उसकी लड़की सूखी लकड़ी जैसी है तेरी बुआ जैसी खाते-पीते घर की नहीं, खाते पीते घरों के बालक ऐसे ही होते हैं कंगलों के बालकों जैसे नहीं...”
दादी का अनर्गल आलाप यूँही चलता रहता। दादी के पास एक पिटारा था उसमें बहुत सारी दूसरी चीजों के साथ दादा की कुछ किताबें भी रखी थी जिन्हें वे छिपाकर ही रखती। दादा को पढ़ना बहुत अच्छा लगता था पर दादी किताबों के अक्षरों की बुनावट में ही इतनी उलझ गयी थी कि दादा की बहुत कोशिशों के बाद भी उनसे बाहर नहीं निकल पायी और दादा के जाने के बाद दादी को किताबों में ही दादा दिखने लगे थे। दादा के जाने के बाद दादी को पढ़ाई से कुछ यूं लगाव हुआ कि उनकी पढ़ाई की चाहना बुआ पर शिफ्ट हो गई।
“मेरी बेटी को कोई तो पढ़ा दो, रे!” दादी का प्रलाप गाहे बेगाहे चलता रहता। दादी का बहुत मन था बुआ पढ़े, पापा भी स्कूल में टीचर थे। दादी का तो मन था, बुआ बड़ी अफसर बनें, पर बुआ का मन दादी के मन से मैच नहीं करता, वह पढ़ने में बिल्कुल नहीं लगता। उन्हीं दिनों दो फिल्में आई थीं। एक थी, ‘सत्यम शिवम सुंदरम’, जीनत अमान की। उसमें एक गाना था -‘रंग महल के दस दरवाजे’ … दादी का फेवरेट गाना जो ट्रांजिस्टर में बजता रहता। उसमें जीनत अमान चुन्नी से अपना आधा चेहरा ढांपे रखती। दादी कुछ ऐसा ही बुआ से चाहती थी। दूसरी फिल्म आई थी रेखा की - ‘घर’ जिसमें बुआ का फेवरेट गाना था - ‘आजकल पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे ...’
अब इन दोनों गानों का युद्ध घर में ज़ोरों से चलता रहता।
पर बुआ ठहरी बुआ - जीतती हमेशा वही। वह कभी भी अपना चेहरा नहीं छिपाती। बुआ का मन नाचने गाने में रमता। छत पर पहुंचकर तो बुआ बिल्कुल आज़ाद हो जाती। किसी चुरमुरी चिड़िया जैसी। वह चुन्नी को अपने दोनों हाथों पर फैला लेती और फिर आसमान की ओर देखकर तेज़ी से घूमने लगती। थोड़ी देर में बुआ की चुन्नी उड़कर मुंडेर पर जा बैठती। दादी की मिर्ची सी आवाज़ से बुआ पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता ... बल्क़ि वह दादी के गाने पर कट्टम का निशान लगाकर अपना वही चहेता गाना गाने लगती।
उस दिन भी छत पर यही सब दोहराया जा रहा था ...
‘आज कल पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे
बोलो देखा है कभी तुमने मुझे उड़ते हुए ...’
और सच में बुआ बिजली की गति से घूमने लगी, मैं छज्जे पर आधा लटका बिजली की गति से घूमती हुई बुआ को देख रहा था; तब मुझे भी लगने लगा कि बुआ उड़ रही है। विज्जी बुआ ख़ुद को रेखा समझती; फ़िल्म की हीरोइन रेखा। बुआ का फेवरेट हीरो था अमिताभ बच्चन। बुआ के पास अमिताभ बच्चन के ना जाने कितने फोटो थे! तकिए के नीचे, कपड़ों के बीच ... यहाँ तक कि दादी के प्यारे लड्डू गोपाल जी की मूर्ति के पीछे भी ...
एक बार मंदिर की मूर्तियों को साफ़ करते हुए दादी के हाथ वो फोटो लग गयी और फिर क्या था? दादी का पंचम सुर आँगन की चारपाई पर उछला और बुआ सामने रखे मूढ़े से अपने ट्रांजिस्टर के साथ। ये दोनों चीज़ें एक साथ घटीं, फिर दोनों एक साथ सीढ़ियाँ फलाँगते हुए छत पर जा पहुँचे। ट्रांजिस्टर में बजता गाना भी बुआ के पाँव से बंधा–बंधा छत पर जा पहुंचा। उस समय छत पर मेरी एक पतंग कटकर पिछली गली में गोते खा रही थी। मैं उदास हो छज्जे पर लटका पतंग को देख रहा था और बुआ अपने उसी गाने पर थिरक रही थी, मेरा ध्यान पतंग से हटकर अब बुआ पर अटक गया। बुआ को घूमते देख लग रहा था कि वह आज घूमते-घूमते आसमान की सबसे ऊँची फुनगी को छू लेगी। विज्जी बुआ को बिल्कुल होश ना था कि उसकी चुन्नी मुंडेर से सर्रसर्र करती हुई गुड्डू भैय्या के घर पर जा गिरी है। थोड़ी देर में गुड्डू भैय्या का बांगर के गाँव में रहने वाला दोस्त चुन्नू अपना एक हाथ अमिताभ बच्चन की तरह कानों को ढंके बालों में घुमाते हुए लाल चेक की कमीज़ और स्कूल की खाकी पेंट में चुन्नी लेकर घर के दरवाज़े पर खड़ा था। गुड्डू भैय्या तीन बार दसवीं में फेल होकर चौथी बार दसवीं कर रहे थे, पर उनका दोस्त चुन्नू भैय्या बारहवीं कर रहा था।
“अरे ये कहाँ से आ गया मुल्लाओं का लोंड्डा?’
दादी की आँखेँ तीन सौ साठ डिग्री पर ट्विस्ट कर रही थी
“दादी हवा से उड़कर ये चुन्नी आ गयी थी उधर”
चुन्नू भैय्या चुन्नी को बड़ी सावधानी से संभाले हुए थे।
“ठीक है ... ठीक है ... विन्नू लेकर जा इसे! मुझे इस लौंडे के लच्छन बिल्कुल ठीक नहीं लग रहे ... चला आया मुँह उठाकर ... बहू-बेटियों के घर में कोई ऐसे आता है भला किसी के घर। जान ना पहचान तू मेरा महमान।“
दादी के माथे की त्यौरियाँ मई की भरी दोपहरी में पसीने में भीगी गुडुप-गुडुप करने लगती।
”इनका बस चले तो ये आदम जात को भी ढ़कोस ले।”
दादी माँस खाने पर उनसे चिढ़ती है या धरम के नाम पर कुलबुलाने लगती; पता नहीं। कहाँ से उनके मुँह में माचिस की तिल्ली लग जाती! और आग की ऊँची-ऊँची लपटें उठने लगती।
उस समय मुझे धरम वरम समझ ही नहीं आता था। अच्छा था जो समझ नहीं आता था। हमारे घर में उन दिनों वही होता जो दादी कहती। पापा और दादी साथ बैठकर घर का हिसाब किताब करते रहते। माँ रसोई में ही लगी रहती और बुआ का काम गाय भैंस की सानी और दूध निकालने का था। बुआ उपले भी पाथती, बिटोड़े बनाती, मैं तब उसके साथ जाता। फिर हम दोनों गप्पें लगाते रहते, अन्त्याक्षरी खेलते। बुआ हर बार अन्त्याक्षरी में मुझसे जीत जाती।
बुआ सब काम करती पर पढ़ने की बात आते ही धीमे से सरकती हुई छत पर भाग जाती। साथ में उनकी चुन्नी में लिपटा ट्रांजिस्टर भी रपटता। बुआ के पैर और छत। फिर दादी की मिर्ची-सी आवाज़ तीख़ी होकर जब तक हम सबके कानों को जलाने नहीं लगती, तब तक बुआ के पैर नहीं रुकते।
दादी को ना जाने क्या चाहिए? उन्हें बुआ की हंसी पसंद क्यों नहीं? मुझे दादी पर बहुत गुस्सा आता। बुआ बाईस की हो रही थी, पूरे बाईस की! रिश्तो की उठापटक घर में होने लगी थी। कम से कम सात रिश्ते बुआ के लिए आए, जैसे आये थे, वैसे ही वह चले भी गये। जब भी रिश्ते आकर चले जाते; वह घर को धुआँ-धुआँ कर जाते।
आज सोच रहा हूँ जब पचपन का हो चुका हूँ,,उस समय जो दिख रहा था वह बस ज़ेहन में फिट हो रहा था ... विश्लेषण के दायरे से बाहर। पर बुआ ठहरी बिंदास। उस पर असर ही नहीं होता। वैसे असर क्यों होना चाहिए?
उस दिन स्कूल से लौटकर मैंने अपना बस्ता चारपाई पर रखा ही था कि मुझे दूसरे कमरे से एक साथ बहुत सारे लोगों की आवाज़ सुनाई दी। बुआ का आठवाँ रिश्ता आया हुआ था। हमेशा की तरह चाय, समोसा, चिप्स, पापड़ मेज़ पर फैले हुए थे और वहीं एक कुर्सी पर बुआ चुन्नी से कसकर अपना चेहरा लपेटे हुए सिकुड़ी-सी बैठी थी। बुआ का यह रिश्ता भी बाकी की तरह उल्टे पांव लौट गया उन्हें ना जाने कैसे बुआ का निशान दिखाई दे गया. उनके जाते ही दादी फिर चिल्लाने लगी।
“नासपीटी दिन भर छत पर घूमती रहती है तो कोई ना कोई तो देखेगा ही। कितनी बार कहा है मुंह पर चुन्नी रखा कर।”
दादी, पापा, मम्मी सबका चेहरा उतरा हुआ था, पर बुआ बिल्कुल उदास नहीं थी।
“बुआ तुम्हें बुरा नहीं लगता?”
मैंने ना जाने क्यों बुआ का हाथ पकड़ लिया।
“लगता था, पर अब नहीं लगता।” बुआ मेरे सिर के बालों को अपनी तर्जनी पर लपेट रही थी।
“क्यों?” मुझे पता नहीं क्यों बुआ को देखकर घबराहट हो रही थी।
“बस नहीं लगता।”
बुआ जब खुश होती हो तो चारपाई के नीचे लटके अपने पैरों को हिलाने लगती।
“बुआ वह लड़का कैसा था?”
बारह साल का मैं, यानी विनय सिंह, बुआ, यानी विजया सिंह, से कुछ पूछने की हिमाक़त कर रहा था।
“मैंने देखा ही नहीं।” बुआ ने मेरे सवाल पर जैसे फूँक मारी।
“क्यों आपको शादी नहीं करनी?”
बुआ कुछ नहीं बोली। चली गई वहां से … पता नहीं क्यों?
बुआ दसवीं करके पढ़ना छोड़ चुकी थी और मैं सातवीं में आकर बुआ से बस तीन क्लास पीछे चल रहा था। बुआ का मन पढ़ाई से उतनी ही दूर भागता जितना मेरा मन दादी की गालियों से।. बुआ को गानें पसंद थे ... लता मंगेशकर के गाने ... बुआ की आवाज़ बहुत अच्छी थी। बुआ हमेशा कोई ना कोई गाना गुनगुनाती रहती।
दादी बुआ को फिर समझा रही थी-
“अबकी बार लड़के वाले आए तो मुंह पर चुन्नी रखकर बैठना। लड़का बहुत अच्छा है; ऐसे रिश्ते बार बार नहीं मिलते।” दादी बोल रही थी पर बुआ आसमान तांक रही थी। “सुन रही है ना!” दादी बुआ की पीठ पर प्यार से हाथ फेर रही थी। जब लड़के वाले बुआ को देखने आने वाले होते तब दादी ऐसे ही प्यार से समझाती।
“देख बेट्टा, जिन लड़कियों की शादी नहीं होती, उन्हें सात जनमों तक मुक्ति ना मिलती।”
बुआ की हाँ में हिलती हुई गर्दन मैं देख रहा था।
“अरी निशान पर पाउडर थोड़ा जादा लगा देना ... छुपा देना। नजर ना पड़े उन लोगों की; एक बार रिश्ता हो जाये तो सब ठीक हो जाएगा। बस इस बार रिश्ता हो जाए।”.दादी और माँ की फुसफुसाहटें ... फिर दादी आसमान की ओर अपने दोनों हाथ उठा रही थी - “बाबाजी! बस इस बार पक्का कर दो रिश्ता!”
बुआ को फाउंडेशन लगाई गई। उनकी सहेली चित्रा ने कुछ ज्यादा ही लगा दी। बुआ खुद को शीशे में देख रही है। बुआ का चेहरा मकानों के बाहर टंगा हुआ उल्टा मुखौटा लग रहा था। मैं बुआ को देख हँसने लगा। बुआ ने झटपट गीले तौलिये से अपना मुँह पोंछ डाला। बुआ को चेहरा पोंछते देख चित्रा चिल्लाने लगी।
“क्या हुआ? मिटा क्यों रही है? लगा ले वर्ना चाची चिल्लाएगी।“
बुआ का गुस्सा उनकी नाक पर अपने करतब दिखा रहा था, लेकिन चित्रा ने फिर भी दोबारा से फाउंडेशन लगा दिया।
बुआ लड़के के ठीक सामने बैठी थी। पाँच लोग और साथ में थे; सब बुआ को घूर रहे थे कि अचानक लड़के को फिर बुआ के चेहरे का निशान दिख गया। लड़के को जैसे किसी बिच्छू ने डंक मारा हो, वो आनफानन में उठ खड़ा हुआ।
मुझे बस “क्या हुआ ... क्या हुआ?” की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं। उनके जाने के बाद दादी ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगी। उनकी ऊँची आवाज़ में बुझे चूल्हे के अंगारे थे। वह अब रो रही थी। हम सब लोग दादी की चारपाई के पास ही आँगन में बैठ गये । सबके चेहरे उतरे हुए पर बुआ के ऊपर कोई असर नहीं था। वह पहले की तरह आँगन में बैठी हुई आसमान को तांक रही थी।
उस दिन जो किसी ने नहीं देखा था; वह मैंने बारह साल की उम्र में देख लिया था। बुआ ने लड़के की आँखों के अपनी ओर उठती देख, हरे रंग पर किशमिशी सितारों वाली अपनी लहराती चुन्नी को अपने गाल से ऐसे सरकाया कि उनके गाल पर रखा सितारा, सूरज की तरह चमचमाने लगा; सितारे को देखते ही लड़के का उबलता उत्साह सुराही के पानी जैसा ठंडा पड गया।
बुआ ने उसके ठंडे पड़ते उत्साह को ऐसे देखा जैसे मरे हुए कॉकरोच को देख रही हो। रात को मैं फिर बुआ की बगल में लेटा था, बुआ का हाथ उसके बालों में था.....
“विन्नू ...”
“हाँ बुआ !” बुआ के मुंह पर थकान की कुछ लकीरें थी...
“सुन ...”
“हाँ बुआ!”’
मैंने बुआ की मछली जैसी बाँहों को ज़ोर से हिलाया।
“सुन, क्या मैं बुरी दिखती हूँ, रे?”
“नहीं तो बुआ। मुझे तो आप अच्छी लगती हो।”
“नहीं रे! मेरा मतलब शक्ल से है”
‘हाँ बुआ ...” मैं समझ ही नहीं पा रहा था। मुझे तो बुआ हमेशा सुंदर ही लगती थी।
बुआ पता नहीं, फिर कहाँ खो गई।
“बुआ ...”
बुआ फिर अचानक हँसने लगी ...
***
मेरी पुरानी तहकर रखी हुई यादों में एक याद है जो अभी तक निपट अकेली है। मैंने उसकी एक पर्ची बना ली थी, जिसे मैं बस कभी-कभी सोने से पहले निकालता हूँ फिर वापस वहीं रख देता हूँ। मेरे याद की उस रात में एक अचंभा घटा था। मैं बुआ के साथ ही सोता था। रात में खटर पटर की आवाज़ से अचानक मेरी आँखें खुल गयी तो मैंने देखा कि बुआ ज़ीरो वाट की पीली सी रोशनी में कुछ तलाश रही थी।
“बुआ क्या कर रही हो!”
“तू सो जा चुपचाप।”
बुआ ने मुझे झिड़क दिया। अगले दिन जब मैं सो कर उठा तो बुआ बिस्तर पर नहीं थी। हमेशा देर से उठने वाली बुआ ना जाने आज कहाँ चली गयी थी? दादी फिर सुबह-सुबह पता नहीं क्यों चिल्ला रही थी? मैं आँखें मलता हुआ आँगन में जा खडा हुआ। मम्मी भी सिर पर पल्ला किये चारपाई पर बैठे पापा के पीछे मुँह लटकाए खड़ी थी। दादी का स्यापा चल रहा था। पापा के हाथ में एक चिट्ठी थी जिसको पापा पढ़ रहे थे।
‘मुझे शादी नहीं करनी। मैं जा रही हूँ।’
दो लाइन की चिट्ठी बुआ सबके लिए छोड़कर ना जाने कहाँ चली गयी?
पापा दादी से फुसफुसाते हुए कह रहे थे, “माँ शोर मत मचाओ। क्यों सबको सुना रही हो? चुन्नू भी नहीं है।”
“चुन्नू भैय्या! ओह! तो कल रात बुआ की खटर पटर इसलिए हो रही थी।”
उस रात की खटरपटर पर आज भी मेरे पूरे कान रखे हैं। बुआ को पुकारते-पुकारते ना जाने कैसे मेरी नींद लग गई थी! और जब दोबारा आँखेँ खुली तो मैं ढ़िबरी की पीली-काली सी रोशनी में फिर बुआ को ढूंढ रहा था, वह काले पुराने सन्दूक को खोले खड़ी थी और कुछ निकाल रही थी ... मैंने अपनी पूरी आँखें अँधेरे में डाल दी थी। ढिबरी की रोशनी पीली से काली होती जा रही थी पर बुआ अभी तक सन्दूक पर झुकी हुई थी। मैं बुआ को पुकारना चाहता था पर होंठों पर अँधेरे का डर आकर चिपक गया था। पहले मैं सुन्न सा होकर पड़ा रहा। फिर सोचा देखूँ तो सही बुआ कर क्या रही है? बुआ अब संदूक के पास से हटकर दरवाज़े के पास पहुँच गयी। मेरे दिमाग की ढिबरी तेज़ी से जलने लगी। बुआ अब दरवाज़े के ठीक बीच में खड़ी थी। उसके हाथ में बड़ा सा कुछ सामान था, मैंने उस दिन कितनी ही बार बुआ को पुकारा! पर वो बुआ जो मेरी एक आवाज़ पर आकर खड़ी हो जाती थी, आज शिला बन गई थी। मैं बुआ को अंधेरे में विलीन होते देख रहा था, पर डर से चुपचाप चारपाई में गड़ा रहा। चुन्नू भैया की नीली सफेद कमीज़ अँधेरे में भी, खिड़की से सटी मेरी चारपाई से साफ दिख रही थी। बुआ कहीं जा रही है, मैं समझ रहा था। उस रात बुआ घर से छूमंतर हो गयी और सबकी ज़िन्दगी से भी।
मैं रूआँसा होकर बुआ को जाते हुए देख रहा था.. उस दिन की घटना मेरे मन की परतों में घुटकर बैठ गई. मम्मी ने कईं बार कुरेदा था मुझे पर मैं हर बार ‘नहीं पता’ कहकर चुप हो जाता।
उस रात गाँव टिक-टिक करता रहा और झींगुर झमझम करते रहे।
मैं उस रात की याद से नहीं डरता, मैं झींगुर की झमझम से भी नहीं डरता, ना गाँव की टिक-टिक से। मैं उस दलदल से भी नहीं डरता जो मेरे घर में बन गयी थी। मैंने उस दिन अपनी याद की पर्ची में सुतली की दो गांठ बांध दी थी। दो गांठ यूं कि मैं उसे खुद ही ना खोल पाऊँ और फिर सीढ़ियों पर जाकर बौराया सा बैठ गया। दादी पापा धीरे-धीरे बात कर रहे थे पर मेरे कान वहीं थे।
“नाक़ काटकर चली गयी विज्जी, माँ,”
दादी सुन्न थी। मैं सबकी नाक देख रहा था जो अपनी ज़गह पर मौजूद थी। मम्मी एक तरफ चुप खड़ी थी।
समय सरका और सरक-सरककर मुझे एक ओर सरकाता चला गया। पहले शादी, फिर दो बेटियों का बाप बनकर, गृहस्थी की थियोरम को हल करने लगा। संस्कार की ज्यामिति में पापा उलझाकर चले गए पर कणिका मेरी बड़ी बेटी में विज्जी बुआ जब-तब आती और झाँककर चली जाती। मैं उसके पैरों की आवाज़ पर कान नहीं देता पर वह जब भी आती, मेरे कान ज़ोर से उमेठकर चली जाती।
मैंने बुआ को ढूँढा, पर ज्यादा नहीं ढूँढा। जीवन का व्यापार और सुविधाभोगी मन बुआ को किनारे कर चुका था, पर आज बुआ बहुत दिनों बाद तब याद आई जब कणिका ने अरशद को चुना था, जो उसी के साथ आईटी सेक्टर में काम करता है। पत्नी आभा मेरे पाले से निकलकर तुरंत बच्चों के पाले में चली गयी या शायद वह पहले से ही वहीं थी। मेरे अस्तित्व की छोटी नाव बहुत पुरानी सी उस पीली रोशनी के गहरे पानी में छटपट कर रही थी या डूब रही थी, पर मेरी डुबकी एक धूमकेतु जैसी थी जिसे भँवर ने निगल लिया है; मैं उस भँवर के भीतर था और तभी मुझे भँवर के बाहर बुआ खड़ी दिखी। मेरे पीछे पानी भीषण ज्वाला की तरह चला आ रहा था। मैं पानी में खड़ा ना जाने क्यों जल रहा था? पानी के बुलबुले तल से ऊपर आते फिर एक साथ विलीन होते जा रहे थे, जैसे-जैसे वे मेरी ओर आ रहे थे, उनका आकार बढ़ता जा रहा था।
‘क्या मैं बहुत दूर चला गया था, या वो करीब आ गए थे?’
मुझे साफ दिख रहा था कि मैं जल्द ही डूब जाऊँगा। मैं अभी तक कणिका को लेकर ऊहापोह में था। गैर धर्म... तभी बुआ का अदृश्य हाथ आया और मुझे असमंजस के भंवर से उबार कर चला गया।
वैसे मैं उस रात से नहीं डरता, पर आजकल मैं डर रहा था। वैसे मेरे पास बुआ का कभी कुछ नहीं रहा पर बीते कुछ दिनों से मेरी गर्दन पर उनकी सफेद विरासत दिखाई देनी शुरू हो गयी थी। बुआ को इस पर कभी मैंने शर्म से गड़ते हुए नहीं देखा … मैं बुआ जैसा कभी नहीं था। मैं विन्नू बहुत दिनों तक शर्म में ही गढ़ा रहा। घर से बाहर निकलता तो भय की परछाई मेरे पीछे चलती रहती सफेद निशान मेरी कनपटी का पीछा करते-करते गर्दन को घेरे में लेने लगा था जब मैं इन सबसे गुज़र रहा था तो रह-रह कर बुआ मेरे स्मृतिकोश की स्टेज पर खड़ी हो जाती और अपने चेहरे की तरफ इशारा कर मुझे पुकारती
‘देख विन्नू ... ऊ.. ऊ...‘ और अपने गाल के चमचमाते सितारे पर अपनी तर्जनी टिका देती। बुआ की धमनियों में एक जिद्दी नदी बह रही थी जो हमेशा ही बहती रहती। दादी जितने बाँध बनाती, बुआ उतनी ही तीव्र गति से उनको तोड़ देती। बुआ की अपने चेहरे के निशान के प्रति प्रतिक्रिया मेरे दृष्टि में उनकी बेस्ट परफॉरमेंस थी।
लेकिन मुझे फिर भी ना जाने क्यों इस चमकते सितारे से डर लग रहा था? मुझे अपने शरीर की भाषा के ख़त्म होने का डर था।
मुझे डर था कि मैं खुद से ही कहीं दूर न हो जाऊँ।
मैं अपनी बार-बार भेजी जाने वाली प्रार्थना से कहना चाहता था कि ‘भारी बादलों को खुद से टकराने दो या फिर इस दुष्ट हवा के ऊपर पक्षी की तरह बैठ जाओ!’
और यह एक सच्चाई थी।
उस चमकते सितारे ने मेरी आँखें चौंधिया दीं थी। मेरे अंदर की सूखी लहरें जलते सूरज के नीचे खड़ी थी।
बुआ... अब बुआ कहाँ होगी, कैसे होगी? मैंने एक दुर्बल कोशिश फिर की थी बुआ को ढूँढने की, जिसकी फुसफुसाहटें दादी और पापा से सुनी, तब मुझे पता चला कि बुआ और चुन्नू भैय्या गाँव से किसी बड़े शहर में चले गये हैं। चुन्नू भैय्या का कोई बिजनेस था वहाँ ... बस इतना जानकर ही मैंने अपनी दुर्बल कोशिश पर विराम लगा दिया था, पर अब जब से वो निशान मेरी गर्दन पर आ बैठा है मैं बुआ को खोजना चाहता था, मैं बुआ से पूछना चाहता था कि ‘बुआ तुम कैसे रह पाई, कैसे निकल पाई इन सबसे और कहाँ से ले आई, इतना साहस विज़्जी बुआ?’ पता नहीं बुआ अब कहाँ होगी?
मैं नहीं जानता बुआ का विद्रोह उस सितारे के विरुद्ध था या दादी की जली कटी बातों से या शादी ना होने से या चुन्नू भैया से उनका प्रेम अमर था। हाँ, अगर बुआ कभी मिली तो एक सवाल जरूर करूँगा - अपने मन से जीने का साहस करने वाली बुआ छिपकर रात के अँधेरे में क्यों चली गई? क्यों छोड़ गयी सैकड़ों अनसुलझे सवाल?
मैं बचपन की उस स्मृति के झोल को ठीक करने की अधपकी कोशिश कर ही रहा था कि अभी कुछ दिन पहले एक चिट्ठी गाँव के पते से मेरे पास शहर पहुँची थी, जहां अब मैं रहता था ... छोटी-सी एक चिट्ठी थी जिस पर बाँगर पार के गाँव का पता था।
‘तुम्हारी बुआ नहीं रही विज्जू ! उसे गले का कैंसर था, शहर में डॉक्टरों ने जवाब दे दिया तो वो बोली, ‘गाँव चलो’। मैं ले आया फिर गाँव उसे और क्या करता? वो तुम्हें बहुत याद करती थी ... मैंने मिलने के लिए कहा तो उसने मना कर दिया। बोली मेरे पास बहुत यादें हैं, उसी से काम चला लूँगी।
- चुन्नू(सज्जाद)
मैं उस चिट्ठी को हाथ में लिए ना जाने कितनी रातें बैठा रहा। अब बुआ और मेरे बीच दो स्क्रीनों के बीच का एक अवरोध आ गया था। प्रत्येक स्क्रीन पर एक आकृति खड़ी थी, मैं खुद को संभाले हुए, लंबे परिश्रम के बाद की वास्तविक थकान तक पहुंचना चाहता था, शरीर की थकान जो मौत की टिनिटस को शांत करती है? अकेलेपन में सिसकते आदमी जिसकी कोई पहचान नहीं होती। घुटता हुआ गला, गले में हाँफती-फँसी हुई आहें सब आँखों के पानी में बह जाती हैं। हम बुलबुले देख सकते हैं लेकिन बुलबुले नहीं सुन सकते, पानी और हवा के बीच के अंतर की तरह यह उतना ही संकीर्ण है जितना जीवन और मृत्यु के बीच का अवरोध। चुन्नू भैय्या की चिट्ठी में मुझे अपने बरसों पुराने जलते हुए सवाल का जवाब मिल गया था। चुन्नू भैय्या और विज्जी बुआ का प्रेम सचमुच अमर था। बुआ को मैंने जितना समझा उससे मुझे इतना ही लगा कि बुआ की माचिस में जीने की आग की तिल्लियाँ थी पर हम सब माचिस से डरे हए लोग थे और बुआ ... बुआ तो बस अपनी तीली सुलगाना चाहती थी।
लेखक परिचय - ऋतु त्यागी
नाम- ऋतु त्यागी
जन्म-1 फरवरी
सम्प्रति-पी.जी.टी हिंदी केंद्रीय विद्यालय आद्रा
रचनाएँ-विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ तथा कहानियाँ प्रकाशित.
पुस्तकें- कुछ लापता ख़्वाबों की वापसी, समय की धुन पर,मुझे पतंग हो जाना है(काव्य संग्रह),एक स्कर्ट की चाह(कहानी संग्रह)
पता-45,ग्रेटर गंगा, गंगानगर, मेरठ
मो.9411904088
इस अंक की प्रतियाँ गूगल व ऐमेज़ौन पर उपलब्ध हैं -
Comments