कुल दो दिन का उपचार और किसी का व्यक्ति से बॉडी बन जाना, कितनी अजीब बात है न।
घर की इन तीन कमाऊ मूर्तियों ने मिथिला के प्रति न कभी चिंता जाहिर की न आशंका। अब गहरे अचरज बल्कि सदमें में भर कर सोच रहे हैं वह व्यक्ति से बॉडी कैसे बन गई? ठीक अड़तालीस घंटे पहले तक मजबूत चाल से चहुँ ओर चलते हुए घर को सुरक्षा दे रही थी, चीजों को नुकसान से बचा रही थी, दायित्वों को सही वक्त पर सही तरीके से सम्पन्न कर रही थी। यह भी हो सकता है मजबूत चाल से नहीं चल रही थी जिस तरह चला करती थी। कमाऊ मूर्तियों को बिल्कुल जानकारी नहीं है वह कब से उस तरह नहीं चल रही थी, जिस तरह चला करती थी। रात का जब एक बज रहा था वह छाती में दबाव और घबराहट की सघनता झेल रही थी। नींद में किसी किस्म की खुराफात पसंद न करने वाले तीन कमाऊ मूर्तियों में प्रमुख मूर्ति मरूधर की नींद, मिथिला के बार-बार उठने-बैठने से भंग हो गई। नींद आये, न आये मरूधर आमतौर पर रात दस बजे बिछावन पर काबिज हो जाते हैं और सुबह आठ बजे बिछावन से रिहा होते हैं। मिथिला उनके सोने के बाद सोती थी। जागने से पहले जाग जाती थी। सोने से पहले तांबे के जग में एक लीटर पानी भर उसमें चार रुद्राक्ष डाल देती थी कि मरूधर सुबह की शुरुआत इस स्वास्थ्य वर्धक पानी के साथ करते हैं। उनके जागने से पहले चाय तैयार कर लेती थी कि उनकी चाय की तलब रोके नहीं रुकती है। मरूधर उसका सोना और उठना न जान लें इस मुद्दे पर वह भारी सतर्कता रखती। जब कभी जान जाते इल्जाम तैयार -
‘‘इतनी सुबह क्यों उठती हो ? तुम्हारे उठने से मेरी नींद चैपट हो जाती है। मुझे पूरी नींद चाहिये। दिन भर चैम्बर में साँस लेने की फुर्सत नहीं मिलती। तुम दिन में सो लेती होगी।’’
उन दिनों मिथिला ने खुद को घर-बार से इतना न्यूट्रल नहीं किया था कि अपने पक्ष में जरूरी दलील न दे।‘‘देखा है मुझे दिन में सोते हुए ? घरेलू काम में इतनी मेहनत और प्रेशर है कि मुझे भी साँस लेने की फुर्सत नहीं मिलती।’’
‘‘तुम्हारे शरीर को कम नींद की जरूरत होगी मेरे शरीर को अधिक है, यह बात दिमाक में बैठा लो।’’
कई-कई बातों की तरह उसने यह बात भी जेहन में बैठा ली थी। बिना आहट किये बिछावन पर आती, बिना आहट किये उठ जाती। छाती में अफरा-तफरी के बावजूद उसने आहट न होने देने की कोशिश की पर कुछ कोशिशें कामयाब नहीं होतीं। भंग नींद का रोष लिये मरूधर ने करवट बदली। मिथिला को आरोपी बनाते किंतु मामला गम्भीर लगा। उन्होंने ऊपरी हिस्से में सो रहे दूसरी कमाऊ मूर्ति विशेषण के सेल फोन पर कॉल किया। इस दो मंजिले घर का यही चलन है। मरूधर और मिथिला नीचे, विशेषण, तीसरी कमाऊ मूर्ति निष्पति, बंटी और बबल ऊपर सोते हैं। जरूरत पड़ने पर बेल का बटन दबा कर विशेषण को हाजिर किया जा सके इस निहितार्थ पहली सीढ़ी के पास कॉल बेल लगाई गई थी। एक बार मिथिला ने प्रातः सात बजे बटन दबा दी। भंग नींद की आक्रामकता लिये विशेषण ने तत्काल प्रभाव से बेल उखाड़ फेंकी। नीचे आकर गरजा ‘‘अम्मा, मुझे ये तानाशाही नहीं जमेगी। सात बजे उठने का मतलब है दिन भर झपकना और मुंह फाड़ना। आज मैं कार चलाते जुये सड़क पर सो जाऊॅंगा।’’
तब से सेल फोन पर खोज खबर दी और ली जाती है। निष्पति और विशेषण इस तरह चेहरा बनाये हुए आये मानो रात में तबियत बिगाड़ कर मिथिला ने जुर्म किया है। मिथिला थकी-बहकी सी लगी वरना विशेषण कहता - यह वक्त है तबियत बिगाड़ने का ? उसे देखते ही मरूधर बोले -
‘‘कार निकालो, अस्पताल चलना है।’’
मरूधर और विशेषण ने मिथिला को अगल-बगल थाम लिया। मिथिला को न मरूधर के स्पर्श की आदत थी न विशेषण के। मरूधर ने उसे सम्पूर्ण संवेदना के साथ कभी स्पर्श नहीं किया। जब से निष्पत्ति का पदार्पण हुआ विशेषण ने भी अपना स्पर्श समेट लिया। शिथिलता के बावजूद मिथिला दोनों मूर्तियों के स्पर्श से स्वयं को भरसक बचाते हुए अपने ही स्पर्श के बल पर खुद को साधने की चेष्टा कर रही थी। उसे आई0सी0यू0 में भर्ती कर चिकित्सक ने-
‘‘मरीज की स्थिति अच्छी नहीं है। चैबीस घंटे तक कुछ कहा नहीं जा सकता।’’
चैबीस घंटे बीतने पर बोले ‘‘मरीज का विल पावर पुअर है। दवाईयाँ कितना रेसपाण्ड करेंगी कहा नहीं जा सकता।’’
अड़तालिस घंटों की मियाद में मिथिला व्यक्ति से बॉडी बन रही थी, उधर मुँह औंधाये समीप बैठे पिता-पुत्र एक-दूसरे पर अभियोग लगा रहे थे। इन दोनों ने मिथिला पर इतने आरोप लगाये हैं कि खुद को सही और समझदार और सामने वाले को अल्प बुद्धि साबित करने की इन्हें आदत हो चुकी है -
‘‘पापा, अम्मा इतनी बीमार है लेकिन आपको मालूम नहीं। आप उनको इतना नेगलेक्ट क्यों करते हो ?’’
‘‘तुमने उन्हें कौन सा सम्मान दिया? हर बात में जाँच बैठा देते हो यह नहीं किया, यह किया तो उस तरह नहीं किया जिस तरह करना चाहिये। तुमने और निष्पत्ति ने उन्हें एक फिलर मान लिया है कि जो काम कोई न करना चाहे, उन पर थोप दो।’’
विशेषण ने वेधक दृष्टि से मरूधर को विलोका। वह निष्पति को इस तरह सिया सुकुमारी बनाये रहता है कि उसकेा तर्जनी दिखाने का मिथिला साहस न करती थी। पापा इल्जाम लगा कर मान हानि किये दे रहे हैं -
‘‘निष्पति को बीच में मत लाओ पापा। आप सुबह ठीक नौ बजे इस तरह चैम्बर के लिये भागते हो जैसे घर में रात नहीं सजा काटी है। दस मिनिट इधर-उधर हो जाये तो अम्मा दोषी। अब चैम्बर कर्मचारियों के आसरे छोड़ कर अस्पताल में बैठे हो कि नहीं?’’
‘‘क्लाइन्ट आने लगते हैं। ठीक वक्त पर चैम्बर जाना पड़ता है। तुम्हें इस सिद्धान्त को समझना चाहिये पर तुम और निष्पत्ति जोड़ी बना कर ग्यारह के बाद चैम्बर आते हो। निष्पत्ति को सजने में वक्त लगता है, तुम्हें उसके इंतजार में।’’
यही कहते थे -निष्पत्ति योग्य है, चैम्बर का माहौल अच्छा बना देती है, इलेक्ट्रिक कैटल में ग्रीन टी बना कर थकान दूर कर देती है। अब निष्पति दुर्गुणों का भंडार हो गई।
‘‘निष्पति को बीच में मत लाओ पापा।’’
‘‘विशेषण, तुम्हें सुनना पड़ेगा। घर एक है पर तुमने अपना अलग परिवार बना लिया है। मिथिला का दुःख-दर्द कभी नहीं पूँछते थे इसीलिये उनका विल पावर कमजोर होता गया।’’
इधर आरोप-प्रत्यारोप।
उधर मिथिला की सांसें खारिज।
मरूधर और विशेषण फक्क हो गये। लगा एक किस्म की असुविधा में डाल दिये गये हैं। एम्बुलेंस में बॉडी लेकर घर आये। बाहरी बरामदे का ग्रिल गेट खुला था। पाँच साल का बंटी व तीन साल की बबल लॉन में लगे चैड़े पटरे वाले झूले में चिलचिलाते घाम में लावारित बने झूल रहे थे। बच्चे वक्त-बेवक्त झूला झूलने चल देते थे इस फिक्र में मिथिला दिन में भी ग्रिल गेट में ताला लगाती थी। विशेषण ने मरूधर पर जो आरोप लगाये उसका धनात्मक असर है या महज अनुमान लेकिन उनको लगा अब बहुत कुछ सुचारू न रह जायेगा। मरूधर ने विशेषण पर जो आरोप लगाये उसका धनात्मक असर है या खुला गेट खतरे की सूचना देता हुआ लगा कि उसे पहली बार निष्पत्ति अव्वल दर्जे की मंद बुद्धि लगी। सेल फोन पर बता दिया था अस्पताल से आ रहे हैं फिर भी घर खुला छोड़ कर भीतर घुसी पता नहीं कौन सा हुनर सम्पन्न कर रही है। जरा होश नहीं बच्चे झूले से गिर सकते हैं, धूप में बीमार हो सकते हैं, अपहरण हो सकता है। इस अनआर्गेनाइज्ड कालोनी का यह सबसे उत्तम घर है। औसत कद वाले मर्द के बराबर ऊॅंचाई वाली मजबूत चैहद्दी से घिरे रहीस परिवार से हर कोई अपनापा जोड़ने की जुगत में है। बंटी और बबल के लिये एम्बुलेंस कौतुक का विषय थी। दोनों झूले से कूद कर दौड़ पड़े। हल चल का आभास पाकर निष्पत्ति ऐसे हाव-भाव में बाहर नमूदार हुई मानो सप्ताह भर से व्यस्त थी। क्रंदन नहीं हुआ लेकिन ताजा मौत की अपनी एक ध्वनि और गंध होती है। समूह भर मोहल्ले वाले जिनमें महिलायें अधिक थीं जुहा गये। मामूली वित्त वाले मोहल्ले का व्यवहार मिथिला निभाती थी। मरूधर का मेल-मिलाप शहर के बिग शाट्स से, विशेषण और निष्पत्ति का साइबर एज वाले युव जन से है। मोहल्ले की महिलायें मिथिला के माध्यम से इस परिवार को जानती-पहचानती हैं पर ये तीन मूर्तियाँ नहीं जान रही थीं शोक व्यक्त करने आये ये लोग किस घर में रहते हैं और किस नाम-उपनाम से जाने जाते हैं। अच्छी बात यह थी शोक अवसर पर संवाद नगण्य होते हैं। लोग दो शब्द कह कर लौट गये। जीवन फिर भी थोड़ी फुर्सत और इत्मीनान दे देता है, मौत नहीं देती। विद्युत जैसी त्वरा से संस्कार करने होते हैं। मिथिला को मुखाग्नि देते हुए मरूधर ने माना मिथिला को खारिज करते रहे हैं पर कुछ तारीखों को खारिज नहीं कर पाये हैं। एक वह तिथि थी जब उच्च कुलीन ब्राम्हण की संस्कृत से बी0ए0 कन्या मिथिला का प्रस्ताव आते ही बाबूजी ने लपक लिया था -
‘‘हम अच्छे ब्राम्हण नहीं हैं। ऊॅंचे ब्राम्हण की लड़की हमारे घर आये इसमें हमारी शोभा है। ............ खूबसूरत नहीं है तो बदसूरत भी नहीं है ............ संस्कृत पढ़ी है मतलब बेल बाटम वाली नहीं होगी। मतलब लिहाज-कायदा जानती होगी।’’
मरूधर सर्वनाश से गुजरे थे। अपने साथ विज्ञान स्नातक कर रही बेल बाटम वाली चाँद सी महबूबा से चाहतें चला रहे थे। स्नातक के बाद ये एल0एल0बी0 वह एम0ए0 करने लगी, क्योंकि विज्ञान दोनों से नहीं सम्भल रहा था लेकिन मामला रद्द न हुआ था। जो कि अपनी ब्राम्हणी सुधारने में मुब्तिला बाबूजी ने रद्द कर दिया। उन्होंने अम्मा के माध्यम से कहलाया - मिथिला पसंद नहीं है। जवाब में बाबूजी ने वाया अम्मा नहीं डायरेक्ट उनसे कहा ‘‘टैक्सेशन की यह जो विचित्र वकालत शुरू किये हो, जिसका हम नाम तक नहीं सुने हैं कि यह कउने अदालत में होती है, से रोटी-नोन का इंतिजाम नहीं कर पा रहे हो लेकिन चाहिये मोगरा का फूल। मैं सब तय तमान (विवाह पक्का) कर चुका हूँ।’’
याद आई पहली रात। वे अपनी चाँद सी मेहबूबा को लाल साड़ी से जोड़ कर देखा करते थे जबकि मिथिला पीली साड़ी पहने थी। उसके पतले-सरल चेहरे में अब तक गृहस्थी के नाना जंजाल से बेफिक्र रहने की ताजगी थी। उन्हें ताजगी दिखाई नहीं दी क्योंकि वे उसकी ओर नहीं देख रहे थे। दिनों तक उससे छिटके हुए चिड्डे से कूदते फिरे। लेकिन दैहिक संवेग जबर होता है। नयेपन में कुछ न कुछ आकर्षण होता है। बाबूजी ने अलग लतियाया यूँ चिड्डे जैसे कूदते फिरोगे तो दुलहिन तुम्हें बौड़म समझ लेगी। मिथिला की जरूरत न बताने, शिकायत न करने जैसी शालीनता ने बहुत नहीं पर इतना असर तो बना ही लिया जब वे कभी-कभी उसे अपनी कृपा देने लगे। वे शब्द, वाक्य, संकेत कभी नहीं दिये जो भावनाओं-सम्भावनाओं को मजबूती देते हैं। मिथिला ने इस ओर ध्यान न दे तकदीर से तादात्म्य बना लिया। इन्होंने चैन की बंसी बजाई कि इसको लेकर कुछ खास सोचना-विचारना न पड़ेगा।
दाह संस्कार कर मरूधर और विशेषण घर आये।
घर, घर नहीं लग रहा है। यदि लग रहा है तो मिथिला की तरह चुप लग रहा है। इतना चुप कि रुदन के स्वर भी नहीं हैं। लोक लाज के लेखे पत्नी के लिये खुले आम रोना लज्जाजनक माना जाता है। सच कहें तो मरूधर को रोना आया भी नहीं। विशेषण नहीं रोया। जिस तरह तल्ख होकर मिथिला से बहस करता था, रोना आडम्बर की तरह लगता। निष्पति को भी रोना नहीं आया लेकिन स्त्रियों में पता नहीं कौन सी क्षमता होती है, यदि प्रयास कर लें तो चार-छः औपचारिक आँसू निकाल ही लेती हैं। निष्पत्ति के नयन में थोड़ा नीर आ ही गया। बैठक का फर्नीचर हटा कर गद्दे-दरियाँ बिछवा कर शोक व्यक्त करने आने वालों के बैठने की व्यवस्था बना दी गई। मरूधर ने चूँकि अग्नि दी है, शुद्ध (दश गात्र) तक उन्हें अलग-थलग समय बिताना होगा। विशेषण से बोले -
‘‘अपनी अम्मा की कोई तस्वीर फ्रेम करवा कर बैठक में रख दो।’’
तस्वीरें कहाँ रखी होंगी जैसी सम्यक जानकारी विशेषण को नहीं है ‘‘पापा कुछ आइडिया है, अम्मा तस्वीरें कहाँ रखती थीं ?’’
मरूधर की जानकारी विशेषण से कम है।
‘‘मैंने ध्यान नहीं दिया।’’
विशेषण आरोप पर उतरा ‘‘अपने बेडरूम का आपको मालूम होना चाहिये पापा।’’
मरूधर का जवाबी हमला ‘‘तुम्हें मालूम क्यों नहीं होना चाहिये ?’’
‘‘आप यह भी नहीं बता पाओगे बैंक लॉकर की चावी कहाँ रखी है और लॉकर नम्बर क्या है।’’
जब मिथिला इतनी चुप नहीं हुई थी, मरूधर को बताती थी पुरानी अलमारी के सीक्रेट चैम्बर में जरूरी कागजात और लॉकर की चाबी रखी रहती है। उन्होंने उसकी तमाम बातों की तरह इस बात को भी नहीं सुना था।
‘‘लॉकर की चिंता छोड़ो। तस्वीर ढूँढ़ो। निष्पत्ति से पूछो।’’
विशेषण, रसोई में चाय खौला रही निष्पति के पास आया ‘‘निष्पति अम्मा की तस्वीर कहाँ रखी है ?’’
सी0ए0 (चार्टर्ड एकाउण्टेन्ट) होने का गौरव प्राप्त, सैण्डिल चढ़ाकर चैम्बर जाने को उद्धत निष्पति रसोई से तादात्म्य कम ही बनाती थी। छुट्टी-छपाटी को बनाती तो मिथिला स्टोर से चावल, दाल निकाल देती थी कि यह बनना है, इतनी मात्रा में बनना है। इस वक्त उसका मुख खिसियाये रसोइये की तरह लग रहा था।
‘‘अम्मा अपनी चीजों का सुराग नहीं लगने देती थीं। मुझसे रसोई का काम ही नहीं सम्भल रहा है।’’
यह ऐसी अशिष्ट टोन में बात नहीं करती थी।
‘‘देख रहा हूँ, नहीं सम्भल रहा है।’’
यह उसी तरह आरोप लगाना चाहता है जिस तरह अम्मा पर लगाता था।
‘‘देख रहे हो तो तस्वीर के बारे में मुझसे क्यों पूछ रहे हो?’’
‘‘बेवकूफ जो हूँ।’’
कह कर विशेषण, मिथिला के शयन कक्ष में चला आया। उसे थोड़ा अनुमान है मिथिला शयन कक्ष से लगे छोटे बॉक्स रूम में जरूरी चीजें रखती थी। अंक सूचियों की जरूरत पड़ने पर वह कुछ बार मिथिला के साथ यहाँ आया है। मरूधर इस कमरे में नहीं आते थे। ये लोग घर के उन हिस्सों में आते-जाते हैं जहाँ इनकी जरूरतें पूरी होती हैं। मिथिला, आकांक्षा, आवश्यकता या यूँ ही घर के प्रत्येक हिस्से से जान-पहचान बनाये रखती थी। बॉक्स रूम की चैड़ाई वाली दीवार से लगे तीन रैक जो चैम्बर में अनुपयोगी हो जाने से घर ले आये गये थे, रखे हैं। अलमारियों में मिथिला की साड़ियाँ, कीमती कागजात, अंक सूचियाँ, तस्वीरें हैं। रैक में तरतीब से किताबें लगी हैं। विस्मित विशेषण। कितनी किताबें। क्या अम्मा घर के पते पर डाक से मॅंगवाती थीं ? विशेषण ने कुछ किताबों के आरम्भिक पन्ने पलटे। एक किताब के दूसरे पन्ने पर शीर्षक के ठीक नीचे मिथिला की हस्तलिपि में लिखा था - पहले भरोसा टूटता है, फिर उम्मीद टूटती है, फिर रिश्ते में कुछ नहीं बचता।’ एक और किताब में लिखा था - संयुक्त परिवार एक अर्थ में अच्छे होते हैं पर एक साथ रह कर भी कई धड़े बन जायें तो संयुक्त परिवार अपना अर्थ खो देते हैं।
विस्मित विशेषण। अम्मा ने अपनी वेदना लिखी है या किताब के किसी अंदरूनी पन्ने की ये पंक्तियाँ उनके मर्म को यूँ छू गई कि उन्होंने उद्धरण के तौर पर लिख लिया। ओह ........ अकेलेपन को सार्थक बनाने के लिये अम्मा, प्रकाशकों से किताबें मॅंगवाती रही होंगी। जो भाव उन्हें घर के सदस्यों से नहीं मिले, या बाद में मिलना बंद हो गये, उन्हें किताबों में ढूँढ़ती होंगी। किताबों की मदद से अपना एक व्यक्तिगत संसार रच लिया होगा। सीख रही थीं जीवन को कैसे विश्लेषित करें, कैसे व्याख्यापित कि जीने के लिये किसी के सहारे की जरूरत न पड़े। अब तो चुप रहने लगी थीं लेकिन पहले कभी-कभी, औचक ऐसे वाक्य बोल देती थीं जिनमें मर्म होता था। वह खीझ जाता -
‘‘अम्मा तुम बात को पता नहीं क्या बना देती हो। न तुम्हारा इनटेन्शन सही होता है न इन्टरप्रेटेशन। तुम घर सम्भालती हो तो हम तीनों चैम्बर सम्भालते हैं। अपना-अपना काम कर रहे हैं पर तुम्हारी तरह शाबासी या सहानुभूति पाने के लिये नहीं। ड्यूटी समझ कर करते हैं। पॉजीटिव एप्रोच रखो।’’
निष्पति के सम्मुख तौहीन होते देख मिथिला का मुख फक्क हो जाता।
‘‘तुम क्यों नहीं रखते ? सरल बात को मुद्दा बना देते हो। बेटा जिस पर बीतती है उसकी इन्टेनसिटी वही समझ पाता है। दूसरे सिर्फ महसूस कर सकते हैं तुम वह भी नहीं करते।’’
अम्मा की हस्तलिपि देख विशेषण का दिल वाष्प की तरह हो गया। वाष्प को देख कर नहीं छूकर ज्ञात होता है गीलापन भले ही दिखाई नहीं देता पर वाष्प गीली होती है। ‘सीधे का मुँह कूकुर चाटे’ जैसी कहावत को सत्यापित कर वह सरल अम्मा पर दोष थोप खुद को बरी कर लेता था। कोने को छू रहे तीसरे रैक में चिकित्सक के दो-तीन पर्चे और दवाइयाँ मिली। विस्मित विशेषण। अम्मा चिकित्सक के पास जाती थीं? दवाइयाँ खाती थीं ? उसने आँखों में भर आई वाष्प को पोंछा और तस्वीर ढूँढ़ने लगा। गत्ते के बड़े चैकोर डिब्बे में रखी कुछ तस्वीरें मिल गईं। कई पारिवारिक तस्वीरें। मिथिला कुल पाँच तस्वीरों में अकेली है। एक में दिल खोल कर हॅंस रही है। विशेषण याद न कर पाया मिथिला को अंतिम बार हॅंसते कब देखा था। शायद इस तस्वीर में अंतिम बार हॅंसी हो। वे पुराने अच्छे दिन थे। विशेषण से बड़ी बहन विवेकी, छोटी बहन विशाखा, विशेषण स्कूल से लौट कर दैनिक वृतांत सुनाते थे। मिथिला खूब हॅंसती थी। विशेषण तस्वीर लेकर मरूधर के पास आया -
‘‘पापा, अम्मा कभी इस तरह हॅंसती थीं ?’’
मरूधर नहीं जानते वह कब हॅंसती थी, कब उदास होती थी।
‘‘हॅंसती थीं, तभी तो यह तस्वीर है।’’
विशेषण की इच्छा हुई कहे - प्रामाणिक तौर पर बताओ पापां आप उनके पति थे।
‘‘अम्मा अकेले में हॅंसती थीं।’’
‘‘कैसे जानते हो?’’
‘‘मैं एक बार जरूरी फाइल लेने के लिये दोपहर में घर आया था। अम्मा की हॅंसी बाहर तक सुनाई दे रही थी। मुझे लगा कोई मिलने आया होगा, पर वे अकेली थीं। मैंने पूछा तो बोलीं ये देखो टी0वी0 चल रहा है। मैं नहीं, इस सीरियल में कोई हॅंस रही होगी। पापा इस तस्वीर को देखकर लगता है वे बड़े मन से हॅंसती थीं। हॅंसना चाहती रही होंगी ......... आप जानते हो अम्मा दवाइयाँ खाती थीं?’’
मरूधर को लगा विशेषण जब भी बात करेगा उनसे जवाब मांगेगा। वे कह न सकेंगे उनके रिश्ते में शुरू से पनप गई संबंधहीनता और संवादहीनता इधर के वर्षों में इतनी बढ़ गई थी कि वे मिथिला की तकलीफ सचमुच नहीं जान पाये।
‘‘मेरे सामने कभी नहीं खाई।’’
विशेषण को मरूधर सफाई देते हुए लगे।
‘‘अम्मा पता नहीं कब से बीमार थीं। हम लोगों ने ध्यान नहीं दिया।’’
‘‘कुछ बताती नहीं थीं।’’
‘‘क्योंकि आप जानना नहीं चाहते थे। आपको साल में एक बार अपना और अम्मा का थारो चेक अप कराना चाहिये था।’’
अब मरूधर को विशेषण सफाई देता हुआ लगा।
‘‘तुम करा देते। तुम्हारी माँ थीं।’’
‘‘बात को टाल रहे हो।’’
‘‘यही टेन्डेन्सी तुम्हारी है। ड्राइवर से कहो तस्वीर को फ्रेम करा लाये।’’
रात।
ताजा मौत वाले घर की रात भयावह हो, न हो, खामोश और सियाह होती है। मरूधर ने विशेषण को बुलाया। ‘‘आउटर गेट में ठीक से ताला लगा देना। तुम्हारी अम्मा थीं तब न ग्रिल गेट खुला रहता था, न बच्चे वक्त-बेवक्त उद्यान में झूलते थे।’’
मरूधर ने घर की सुरक्षा का ख्याल कभी नहीं किया लेकिन अब ठीक मिथिला की तरह व्यवहार कर रहे हैं। हम जिन बातों का विरोध करते हैं या असहमति रखते हैं वे गुप्त रूप से जेहन में अपना वजूद बना लेती हैं।
‘‘ठीक याद दिलाया पापा।’’
विशेषण ताला लगाने चल दिया।
सुरक्षा को लेकर मिथिला सतर्क रहती थी। रात में आउटर गेट में ताला लगाती। ग्रिल गेट में दिन में भी ताला लगाये रहती। रात में लोहे की मोटी जंजीर की सहायता से एक ताला और लगाती। सोने से पहले तालों पर एक नजर जरूर डालती। विशेषण कहता -
‘‘अम्मा, इतनी सतर्कता बरत कर तुम हम लोगों को सतर्क नहीं डरपोक बता रही हो। तालों को पाँच बार झटक कर न देख लो तुम्हें विश्वास नहीं होता, बंद हैं।’’
‘‘क्योंकि छोटी सी लापरवाही से हादसे हो जाते हैं।’’
‘‘तुम्हारा यही व्यवहार रहा तो सतर्कता फितूर बन कर मेरे दिमाक में बैठ जायेगी। एक दिन ऐसा आयेगा जब मैं भी तालों को झटका करूँगा, बंद हैं कि नहीं।’’
और आज .........। विशेषण ने ताला लगा कर, दो बार झटक कर ठीक से बंद होने की पुष्टि की। मरूधर के पास आया -
‘‘पापा, अब समझ में आ रहा है, ठीक तरह ताले लगाना कितना जरूरी है। घर ठीक तरह बंद है यह भरोसा अच्छी नींद आने में मदद करता है।’’
‘‘ठीक कहते हो।’’
‘‘अम्मा थीं तब हम लोग निश्चिन्त थे। अब आपस में काम बाँट लेना चाहिये। सोने से पहले ताले चेक करने की जिम्मेदारी आप लो। सुविधा होगी। वरना हम लोग एक-दूसरे पर भार डालते रहेंगे और किसी दिन गड़बड़ हो जायेगी।’’
मरूधर को लगा अब थोड़ा हाथ-पैर चलाने पड़ेगें। तब प्रत्येक काम का भार मिथिला पर डाल देते थे। चैम्बर जाने में पाँच-दस मिनिट की देर हो जाती तो ग्रिल गेट खुला छोड़ कर चल देते। मिथिला जरूरी काम छोड़ कर हाँफते हुए आती -
‘‘गेट को उढ़का देते। जमाना खराब है। कोई घुस आता तो ?’’
‘‘कोई ताड़ कर बैठा है, मैं गेट खोलूँ और वह भीतर घुसे।’’
‘‘ताड़ भी सकता है। वारदात अचानक हो जाती है।’’
‘‘तुम्हारी सतर्कता ने हम सबका जीना हराम कर रखा है।’’
मिथिला को विवश छोड़ वे आउटर गेट से कार निकाल ले जाते थे। अब समझ में आ रहा है घर ठीक तरह बंद है यह भरोसा अच्छी नींद के लिये जरूरी है।
मलिन मरूधर।
विमूढ़ विशेषण।
निस्तेज निष्पत्ति।
दूर-पास के नातेदार दुआरे (शोक व्यक्त करने) आ रहे हैं। उनके भोजन का प्रबंध करने में निष्पत्ति नाकाम हो रही है। यदि घरेलू काम वाली बाई से सहायता ले, नेम-धेम के प्रबल समर्थक ग्रामीण नातेदार बाई का बनाया खाना गले न उतारेंगे। अनाज कहाँ रखा है इस तलाशी में ही उसे वक्त लग जाता है। दाल, भात, रोटी, तरकारी वाला ट्रेडीशनल खाना बनाना पकाऊ काम है। विशेषण ने बिग साहज ये जो दो कुत्ते पाल रखे हैं इनका और नातेदारों का आहार बनाते हुए निष्पत्ति भूलुंठित होने को है। विशेषण को संज्ञान लेना पड़ा -
‘‘निष्पत्ति देख रहा हूँ तुमसे एक जून का खाना नहीं बनाया जा रहा है। नातेदार क्या सोचते होंगे? भद्दा लगता है।’’
‘‘नहीं सम्भाल पा रही हूँ।’’
‘‘तुमने कभी नहीं जानना चाहा अम्मा कहाँ क्या रखती थीं कैसे बनाती थीं।’’
‘‘सारी गलती मेरी।’’
विशेषण विस्मिता। ठीक अम्मा की तरह बोल रही है। घर के लोगों को अपने विरुद्ध लामबंद होते देख वे हताश होकर कह देती थीं -
‘‘ठीक है, सारी गलती मेरी।’’
किसी को सोचने का अवकाश नहीं था इस तरह कहते हुए वे खामोशी की ओर बढ़ने लगी थीं।
विशेषण ने निष्पत्ति को हताश किया। ‘‘गलती तो है ही। बच्चे भूखे हैं। अब तक खाना नहीं बना।’’
‘‘क्या करूँ?’’
‘‘गलती मानने की आदत डाल लो।’’
‘‘तुम ब्लेम करने की आदत छोड़ दो। नातेदारों के नियम-विचार में अकेली पिस रही हूँ। विवेकी दीदी और विशाखा पता नहीं कब आयेंगी।’’
‘‘कोलकाता और मुम्बई से आने में वक्त लगता है।’’
चैथे दिन विवेकी, विशाखा पाँचवें दिन पहुँच सकी। इन्हें भी घर, घर नहीं लग रहा है। यदि लग रहा है तो मिथिला की तरह चुप लग रहा है। दोनों हिलक कर रोईं। अब जाकर लगा इस घर में मौत हुई है। विशाखा ने मिथिला की खिलखिलाती तस्वीर को भर आँख देखा। मिथिला, विशाखा के पास मुम्बई गई थी तब विशाखा ने यह तस्वीर ली थी। मिथिला खिलखिलाते हुए बोली थी -
‘‘मैं हॅंसना भूल गई हूँ। स्माइल ......... स्माइल कह कर तुमने हॅंसा दिया। विशाखा एक बेटी जरूर पैदा करना। बेटियाँ, मां का दुःख-दर्द समझती हैं।’’
‘‘लेकिन अम्मा तुमने तो विशेषण भैया को हम दोनों बहनों से बहुत अधिक महत्व दिया है। उसकी जरूरी, गैर जरूरी मांग तुरंत पूरा करती थी।’’
‘‘वह मेरा अनादर नहीं करता था। जब से यह पद्मिनी (निष्पत्ति) आई, घर में गफलत होने लगी है।’’
विशाषा भरी आँखों से तस्वीर देखती रही। पापा और भैया ने तस्वीर चयन में काफी दिमाक लगाया है। तस्वीर दुआरे आने वालों को भ्रम देती होगी। यदि ऐसी प्रसन्न चित्त थीं तो बहुत सुखी-संतुष्ट थीं।
विवेकी और विशाखा ने रसोई सम्भाल ली।
निष्पति के चेहरे की चमक लौटी।
‘‘आप दोनों आ गईं वरना समझ में नहीं आ रहा था यह करूँ कि क्या करूँ। देख रही हैं गाय कितना चिल्ला रही है? इस समय गाभिन (गर्भवती) है इसलिये दूध नहीं देती है। मुझे पास नहीं फटकने देती कि सानी-पानी बना दूं ..........।’’ इसके बाद की बात उसने विशेषण की ओर देखते हुए कही ‘‘तुम कहते हो, हम लोगों को काम बांटना पड़ेगा, गाय का काम तुम करोगे।’’
कार्य विभाजन कर विशेषण ने निष्पत्ति को इस तरह देखा मानो अकोविद को देख रहे हैं ‘‘निष्पत्ति, तुम गाय को कभी अपनी सूरत दिखाओ तब तो पास फटकने देगी। सानी बनाने के लिये मैं सुबह की नींद खराब नहीं करूँगा।’’
‘‘गाय बेचनी पड़ेगी।’’
बहनों के सामने ऐसा कह कर बेवकूफी कर रही है।
‘‘अम्मा, गाय को बहुत मानती थीं।’’
निष्पत्ति की बेवकूफी कायम ‘‘शुद्ध (दशगात्र) में दान कर देना। अम्मा की आत्मा को शांति मिलेगी।’’
आँगन में प्रपंच चल रहा था। दूधिये की टेर सुनाई नहीं दी। किसी तरह सुनाई दी लेकिन ग्रिल गेट की चाबी नहीं मिल रही। घर के महानुभावों को चीजें न सही जगह पर रखने की आदत है, न सही जगह पर ढूँढ़ने की। ये महानुभाव अपनी-अपनी कार की चाबी सोफे, मेज, बिस्तर में फेंक देते हैं या कार में ही लगी छोड़ देते हैं। फिर ढूँढ़ने में पूरा घर सिर पर उठा लेते हैं। तब मिथिला कहती थी -
‘‘चाबियाँ, की बोर्ड में टाँग दो तो मिल जायेंगी। लापरवाही क्यों करते हो ?’’
मरूधर तन जाते ‘‘मेरी लापरवाहियाँ गिना कर खुद को जिम्मेदार न समझा करो।’’
निष्पत्ति चाबी न ढूँढ़ पाती यदि विवेकी न बताती -
‘‘चाबी, की बोर्ड में टॅंगी है।’’
निष्पत्ति ठमक गई ‘‘किसने टॉंगी ?’’
‘‘मैंने। अम्मा ने अकेले बहुत काम सम्भाल रखा था। अब तुम लोगों को आदतें सुधारनी पड़ेंगी।’’
निष्पत्ति ने विवेकी को इस तरह देखा मानो आदत सुधारने का दबाव डाल विवेकी उसे अनाड़ी, अनुभवहीन, आलसी साबित करना चाहती है।
दूधिये का भी भाव यही -
‘‘दस मिनिट से टेर रहा हूँ। हर घर में दस मिनिट लगेगा तो दूध कैसे बाटूँगा ? कल से जल्दी करेंगी।’’
‘‘काका, बहुत काम फैला है। समझा करो।’’
दशगात्र और त्रयोदशी एन-केन-प्रकोरण सम्पन्न होने तक तीनों कमाऊ मूर्तियों की समझ में आ गया घर दरअसल मिथिला से संचालित था। चुप रहने लगी थी तथापि सम्पर्क सूत्र थी। क्योंकि वही सबकी जरूरतें पूरी करती थी। मरूधर अब मास्टर बेड रूम में सोने लगे हैं। यहाँ मिथिला की उपस्थिति का अंदाज न लगता था। अनुपस्थिति का पुरजार अंदाज लग रहा है। विशेषण की कारगुजारी तो देखो। बैठक से उठा कर तस्वीर यहाँ रख दी कि पापा अब तो पछता लो। वे पछता रहे हैं या नहीं पछता रहे हैं पर असुविधा से गुजर रहे हैं। मिथिला के कारण स्वास्थ्यवर्धक नाश्ता ठीक वक्त पर और मोजे, रुमाल, कपड़े, चश्मा ठीक जगह पर मिलते थे। कभी न मिले तो वे जीवन भर की उसकी मेहनत को विफल कर विज्ञान स्नातक वाले अपने पहले और अंतिम प्रेम को लेकर गम जदा हो लेते थे -
‘‘संस्कृत पढ़ने वालों को तरीका नहीं आता। विज्ञान पढ़ने वाली लड़कियों की सोच वैज्ञानिक होती है और वे अपने दिमाक को खुला रखती हैं।’’
इस पहले और अंतिम प्रेम को स्मरणीय बनाये रखने के लिये वे चैम्बर में इनवाल्वमेंट बनाते चले गये। यूँ कि घर में रहते हुए भी घर में रहते हुए से नहीं लगते थे। घर में खुद के होने को महसूस नहीं करते थे। मिथिला के होने को महसूस करना नहीं चाहते थे। चैम्बर में देर रात तक काम करते देख किसी बुजुर्ग मुवक्किल ने कहा था -
‘‘आपको आठ बजे तक घर चले जाना चाहिये। रात का खाना पूरा परिवार साथ खाये तो एक नियम बनता है कि इतने बजे तक सभी सदस्य घर आ जायें।’’
वे नहीं कह सकते थे - मिथिला के कारण शुरूआती सालों में घर से भागे फिरते थे, जो अब आदत बन गई है।
‘‘मेरे पास काम ही इतना है। घर पर भी काम का दबाव महसूस होता है।’’
अब लग रहा है मिथिला को थोड़ा समय, सहयोग, समीपता देनी चाहिये थी। चैबीस घंटो का लेखा-जोखा लगायें तो घर में रहते ही कितना हैं ? सुबह नौ बजे से रात नौ बजे तक चैम्बर में रहते हैं। बारह घंटे। नींद आये, न आये ठीक दस बजे बिछावन पर नेस्तनाबूद हो प्रातः आठ पर सक्रिय होते हैं। दस घंटे। शेष दो घंटों में नहाना, तैयार होना, खाना। यह कार्यक्रम इतना नियमित और दु्रत रहा कि मिथिला का ख्याल तक न आता था। पूरी ईमानदारी से न संबंध बनाये न संवाद। अब लग रहा है सोने से पहले आधे घण्टे का समय उसे दे सकते थे। अभिनय तो कर ही सकते थे। कुल जमा तीस मिनिट साझा न करना उन्हें कभी भी क्रूर नहीं लगा। अमानवीय, अनुचित, अन्यायपूर्ण भी नहीं। अजीब बल्कि अविश्वसनीय है एक घर में रहते हुए वह अपनी आधि-व्याधि बताती नहीं थी, ये पूछते नहीं थे। उसे उपेक्षित करते हुए उसकी ओर से लापरवाह और उदासीन रहने की उनकी वृत्ति हो गई थी। दरअसल जिसे देखने जैसा देखना कहते हैं वे उसकी ओर उस तरह देखते ही नहीं थे। पार्टी आयोजनों में कम ले जाते थे। विशेषण और निष्पत्ति को अनिवार्यतः ले जाते कि तुम लोगों को प्रैक्टिस सम्भालनी है, लोगों से मिलो जुलो, सम्पर्क बनाओ। अब शिद्दत से लग रहा है उन्होंने मिथिला का लिहाज नहीं किया, इसीलिये विशेषण ने उसका लिहाज करना नहीं सीखा। स्थिति का लाभ ले निष्पत्ति खुद को अघोषित मुखिया मानने लगी। उनकी और विशेषण की बेरुखी मिथिला फिर भी सह लेती थी पर मुखिया बनने की निष्पत्ति की कोशिश उसकी गरिमा को तोड़ती रही होगी। इसीलिये उसने मानसिक रूप से खुद को अलग कर लिया था। मरूधर अब जाकर मिथिला के लिये पूरी ईमानदारी से रोये।
बदले हुए स्वरूप में घर।
औपचारिक लग रहा है और अजनबी लग रहा है।
निष्पत्ति का व्यवहार वह नहीं है जो जिम्मेदारी पड़ने से पहले था। मरूधर को तांबे के जग में पानी, कटोरी में भिगोये हुए मेथी दाना, बादाम, मुनक्का, अंजीर नहीं मिल रहा है। सही वक्त पर नाश्ता, सही जगह पर रुमाल, मोजे, कपड़े नहीं मिल रहे हैं। निष्पत्ति को निदान नहीं सूझ रहा है। मरूधर और विशेषण को चैम्बर जाते देख उसे लगता है मिथिला के न रहने से सबसे अधिक वहीं ठगी गई है। सबसे अधिक खामियाजा उसे भुगतना पड़ रहा है। घर में रहने की मानसिकता नहीं। चैम्बर जाने का माहौल नहीं।
‘‘विशेषण मैं चैम्बर जाना चाहती हूँ।’’
‘‘बच्चों और घर को कौन देखेगा?’’
‘‘बड़ा कहते थे सी0ए0 लड़की को चुना है कि चैम्बर को रौशन करेगी।’’
‘‘अब लैप टॉप पर काम कर घर से चैम्बर के चिराग जलाओ।’’
‘‘किताबों, फाइलों, डाक्यूमेन्ट्स की जरूरत पड़ती है। तुम तो जानते हो पापा की निगहबानी में काम न करो तो उन्हें लगता है काम ठीक तरह नहीं हो रहा है। कैसे, क्या करना है, उनसे पूछना पड़ता है।’’
इस परिस्थिति में सिरफिरी को चैम्बर दिख रहा है।
‘‘पापा ने ही कहा है अब तुम घर सम्भालोगी। और पापा से कितने साल से तो पूछ रही हो। कब तक ट्रेनी बनी रहोगी ?’’
‘‘अब केयर टेकर बन जाती हूँ।’’
‘‘पहले थोड़ा-बहुत बन जाती तो अम्मा पर इतना झबार न पड़ता। जब से तुम आई उनका बी0पी0 हाई रहने लगा था।’’
‘‘तुम लो कर देते। उनसे इतना लड़ते थे।’’
‘‘बेवकूफ था जो तुमको डिफेण्ड करने के लिये उनकी इन्सल्ट कर देता था .......... सुनो, मैं बचपन से उनसे लड़ता आया हूँ पर उनका बी0पी0 नारमल रहता था। तुम उनका बिल्कुल लिहाज नहीं करती थी।’’
इसे धोबी पछाड़ कहते हैं।
‘‘तुम्हें या पापा को लिहाज करते देखती तो करती। तुम दोनों ने मिल कर उन्हें मानसिक रोगी बना दिया था। अब मुझे बना दो। जिस तरह मेरे ऊपर कुकिंग, बिगड़ी आदत वाले दो बच्चे, तुम्हारे दो कुत्ते, गउ मैया दान में चली गई वरना उसका भी ........ झबार मेरे ऊपर पड़ गया है, मेन्टल होने में देर न लगेगी।’’
‘‘तुम्हीं कहती थी आजकल की लड़कियाँ इन लॉज के साथ नहीं रहना चाहतीं। मैं रह कर कितना बड़ा समझौता कर रही हूँ। निष्पत्ति तुम्हारी टोन ऐसी रहती थी जैसे अम्मा हम लोगों को सुविधा दे नहीं रही हैं, हमसे ले रही हैं। या सुविधा देती हैं पर अड़चन और अड़ंगे बहुत डालती हैं।’’
‘‘वे नहीं समझती थीं हम लोगों की लाइफ स्टाइल अलग है। वीक डेज पर हम लोग चैम्बर में कितना काम करते थे। रिलैक्स होने के लिये सन डे को बाहर खाने चले जाओ तो डराने लगती थीं बाहर खाने से सेहत बिगड़ती है और रात नौ तक घर लौटो। यह छोटा शहर है पर यहाँ भी वारदातें होती हैं।’’
‘‘अब अम्मा नहीं हैं। जाओ शहर घूमो। बंटी और बबल को समय पर स्कूल के लिये तैयार कर नहीं पाती हो। रोज लेट होते हैं।’’
‘‘अम्मा ने इनकी आदत बिगाड़ दी है। ब्रश कराने में एक घंटा लगता है।’’
जंग जारी रहती लेकिन बंटी ने हस्तक्षेप किया।
‘‘पापा, तुम अम्मा से लड़ते थे, अब ममा से लड़ रहे हो।’’
बच्चे अक्सर ऐसा सच बोल देते हैं जो बहुत अधिक सच होता है। विशेषण को शर्म आई - निष्पति ने मुझे अम्मा से दूर किया और ऐसी खूबसूरती से किया कि दृश्य में आये बिना मंगल मनाती थी। छॅंटा हुआ मैं, अम्मा को पॉजीटिव एप्रोच रखने की सलाह देता था। यह चैम्बर से तशरीफ लाते ही ‘अम्मा, पापा को नींद आ रही है, हम लोग थोड़ा ठहर कर इत्मीनान से खायेंगे .............।’ कह कर खाना अपने कमरे में समेट ले जाती थी। सूत से बॅंधा मैं इसके पीछे चल देता। ख्याल न आता था अम्मा से दो बात कर लूँ। यह खुद को बड़ा शालीन और स्फूर्त दिखाती थी अब देख लो बात-बात में किस तरह युद्ध रच रही है।
निष्पत्ति को गुस्सा आया - बंटी और बबल, अम्मा के फरमाबरदार बन रहे हैं। अम्मा ही धुन में थीं। शादी को इतने साल हो गये। बच्चे क्यों नहीं हो रहे हैं ? इसके हो गये, उसके हो गये, सबके हो गये। मेरे हो गये तो इनकी आदतें बिगाड़ कर चलती बनी।
‘‘बबल, डिसीप्लिन में रहो वरना पिटाई होगी।’’
निरूपाय निष्पत्ति।
ऐसी जगह चली जाना चाहती है जहाँ एक छोटी जिम्मेदारी भी उस तक न पहुँचे। घरेलू काम में बड़ी मेहनत और दबाव है। दूध उबालने, ठंडा करने, दही जमाने, शेष दूध को फ्रीज में रखने जैसे मामूली काम में कितना समय और समझ लगानी पड़ती है। दूधिया कितने बजे आयेगा या नहीं आयेगा, मेड कितने बजे आयेगी या नहीं आयेगी और न आने पर जो कठिनाई होती है, मस्तक गरमा देती है। निष्पत्ति नहीं जानती बिगड़े मिजाज वाले बंटी और बबल को अम्मा दिन भर कैसे सम्भालती थीं, कैसे स्कूल के लिये तैयार करती थीं, कैसे खिलाती थीं? वह जब बिस्तर छोड़ती बच्चे स्कूल जा चुके होते थे। उद्यान में मौसम के अनुसार लौकी, कुम्हड़ा, पालक, टमाटर उपजा कर सब्जियों का सूप और धेनु का दूध पिला कर बच्चों को अम्मा ऐसा सात्विक बना गई है कि बाजार से कुछ मॅंगाओ तो इन सात्विकों की मिर्च-मसाले से जीभ जलती है। जब कि रहना इन्हें इसी सिन्थेटिक माहौल में है। केमिकल और कैल्शियम कार्बाइड खाये बिना पेट न भरेगा। दमन चक्र में निष्पत्ति।
जल्दी उठ रही है ...........स्कूल के लिये बच्चों को तैयार कर रही है ....... अब नाश्ता ........ अब खाना बना रही है ......... स्कूल से लौटे बच्चे पुकार रहे हैं पर ग्रिल गेट की चाबी नहीं मिल रही है .........निष्पत्ति सुस्ताना चाहती है पर ये किस ऊतक के बने बच्चे हैं दिन में न झपकते हैं, न झपकने देते हैं ....... इनके इतने प्रश्न ........ जवाब कौन दे ...........गजब देखो, इन्हें दूधिये से लिया गया दूध पसंद नहीं ........ मरूधर और विशेषण को मेड के धोये वस्त्र पसंद नहीं कि डिटर्जेन्ट ठीक से नहीं छुड़ती ......... लो लैप टॉप में कुछ कर रही थी इधर दोनों बच्चों ने पता नहीं कहाँ से निकाल कर मलेरिया की पुरानी गोलियाँ खा लीं .......... मालूम नहीं क्या हो जाता यदि वमन में गोलियाँ निकलतीं .............। मरूधर को आपत्ति करनी पड़ी -
‘‘निष्पत्ति, इतनी लापरवाही ......... बच्चों को कुछ हो जाता तो?’’
‘‘पापा, मैं अम्मा की तरह चकरघिन्नी सी इनके पीछे नहीं घूम सकती।’’
यह तो चैम्बर में ऐसे श्रेष्ठ रूप में प्रस्तुति देती थी कि वे इसके प्रशंसक बन गये हैं। निष्पत्ति के व्यवहार से उनका चेहरा बेरौनक हो गया।
अब उनके चेहरे में रौनक, व्यवहार में फिटनेस नहीं दिखाई देती। चैम्बर में कुछ कन्सल्ट करने आये एक सेल्स टैक्स आफीसर ने कह डाला -मरूधरजी, आप अपनी फिटनेस पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। वैसे मैं आपकी मनःस्थिति समझ रहा हूँ। बुढ़ापे में ही तो पत्नी की अधिक जरूरत होती है। वह बिना बताये समझ जाती है, हमें क्या चाहिये। बहू से नहीं कह सकते घुटने में तेल मल दे या आज मुगौड़ी खाने की इच्छा है। बिना बताये बहू कैसे जाने हम क्या चाहते हैं?’’
मरूधर को अधिकारी की बात महत्वपूर्ण लगी। स्वीकार किया बातों को ध्यान से सुनना चाहिये। बातों के कुछ जरूरी अर्थ होते हैं। वे नहीं सुनते थे इसलिये मिथिला ने बताना छोड़ दिया।
‘‘ठीक कहते हैं सर।’’
‘‘अपना ध्यान रखिये। लोगों को आपकी जरूरत है। टैक्सेशन में इस जिले बल्कि पूरे डिवीजन में आपका मुकाबला नहीं है। हम लोगों को भी कभी-कभी आपसे ओपीनियन लेनी पड़ती है।’’
‘‘वर्क लोड बहुत है। थकने लगा हूँ।’’
अधिकारी ने वहीं बैठे विशेषण से कहा ‘‘विशेषण, अपने पापा का ध्यान रखो।’’
विशेषण ने मरूधर को देखा - सचमुच थके हुए लग रहे हैं। पापा के काम अम्मा इतनी नियमितता से करती थीं कि पापा का वक्त ‘ऊर्जा, एकाग्रता जाया नहीं होती थी। जितना काम करना चाहते थे रोज उससे अधिक करते थे। पापा को पूरी नींद, आराम, सुकून देना पड़ेगा।
घर आकर उसने निष्पत्ति को ज्ञान दिया -‘‘निष्पत्ति, पापा अकेले पड़ गये हैं।’’
निष्पत्ति अब इस तरह बोलती है कि विरोध जरूर दिखाई दे ‘‘अम्मा, थीं तब भी अलग-थलग पड़े रहते थे।’’
‘‘अम्मा, उनकी जरूरतों का ध्यान रखती थीं।’’
‘‘क्योंकि वे उनकी पत्नी थीं।
‘‘तुम उनका ध्यान नहीं रखती।’’
‘‘बहू हूँ। उनकी पत्नी नहीं बन जाऊॅंगी।’’
विशेषण और निष्पति को आभास नहीं हैं अब मरूधर को गहरीनींद नहीं आती। वे लघुशंका के लिये आँगन से होकर शौचालय जाते हुएआँगन में गूँज रही तेज आवाज सुन ठिठके खड़े हैं।
‘‘जजमेन्टल होकर बात मत करो निष्पति। अम्मा जिस तरह अचानक चली गईं, मुझे मौत से डर लगने लगा है। उनके न रहने से तुम चैम्बर नहीं जा पा रही हो। पापा का फिट रहना जरूरी है। मुझे अभी उनसे बहुत कुछ सीखना है। लोग उन पर ट्रस्ट करते हैं। मुझ पर नहीं। जबकि मैं सी0ए0 हूँ, वे सिम्पली एल0एल0बी0। पर उनका ज्ञान इतना जबरदस्त है कि वे इस शहर बल्कि पूरे डिवीजन के लिये ब्रैंड नेम बन गये हैं। बड़ी-बड़ी कम्पनियों के केस पापा के पास हैं। तुम तो जानती हो आफीसर भी कुछ केस में पापा से कन्सल्ट करते हैं। पापा की फिटनेस हमारे लिये एसेट है। वे हेल्दी नहीं रहेंगे तो क्लाइंट टूट कर दूसरे वकीलों के पास चले जायेंगे।’’
आँगन में संतरण कर रही आवाजें और ठिठके खड़े मरूधर।
उनकी फिटनेस एसेट ...........। फिट रह कर अधिक से अधिक कमा कर इनके लिये थाती जोड़े।
मिथिला जब चुप नहीं हुई थी कहती थी ‘‘तुम्हारा वजन बढ़ रहा है। सुबह जल्दी उठ कर बगीचे में टहला करो। सुबह की धूप सेहत के लिये अच्छी होती है।’’
वे चित्त न देते ‘‘मैं अपने काम में पूरा एग्जीक्यूशन दे रहा हूँ मतलब फिट हूँ।’’
‘‘बढ़ती उम्र में अच्छी सेहत एसेट की तरह होती है। सेहत का ध्यान रखना चाहिये।’’
अब विशेषण उनकी सेहत को एसेट बता रहा है। मिथिला के भाव में फिक्र थी, विशेषण के भाव में स्वार्थ है। वे शयन कक्ष में आ गये। मिथिला की तस्वीर खिलखिला रही है। मिथिला का अकेलापन अपने भीतर उतरते हुए पा रहे हैं। सचमुच। जब तक स्थिति-परिस्थिति से खुद न गुजरो तीक्ष्णता समझ में नहीं आती। अकेलेपन से गुजरते हुए मिथिला के अकेलेपन को समझ पा रहे हैं। लगा तस्वीर सवाल कर रही है - मेरी तस्वीर के अलावा कोई हॅंसता क्यों नहीं ? बंटी और बबल हॅंसते हैं तो तुम्हारी सी0ए0 बहू कहती है कितना शोर करते हो। लगता है शोर करने और हॅंसने में अंतर नहीं कर पाती। बंटी और बबल के कारण घर, घर लगता था वरना उतना पराया लगने लगा था जितना तब नहीं लगा था जब मैं नई-नई व्याह कर आई थी। तुम इतने अजनबी लगने लगे थे जितने पहले दिन नहीं लगे थे। जबकि शादी से पहले मैंने तुम्हें ओर तुमने मुझे एक दूरी से देखा था। खुद को ऐसा कंगाल तब नहीं पाती थी जब तुमने साइकिल, काठ की बड़ी मेज और कुर्सी के साथ किराये की छोटी दुकान में टैक्स की वकालत शुरू की थी। तुम आलीशान चैम्बर के साथ शहर के बै्रंड नेम बनते गये मैं कंगाल होती गई ........। और विशेषण ........... इसके जन्म पर मैं बहुत खुश थी कि अपने बेटे को जन्म दिया है। अब पता चला निष्पत्ति के पति को जन्म दिया था। मैं सबको सुविधा देती थी लेकिन तुम लोग मुझे असुविधा की तरह देखते थे। हर कोई मुझसे परेशानी महसूस करता था। मैं तस्वीर बन गई लेकिन तुम लोग वैसे ही बल्कि पहले से अधिक परेशान लग रहे हो। कितनी अजीब बात है ना।
___________
सुषमा मुनीन्द्र
द्वारा श्री एम. के. मिश्र
जीवन विहार अपार्टमेन्ट
फ्लैट नं0 7, द्वितीय तल
महेश्वरी स्वीट्स के पीछे
रीवा रोड, सतना (म.प्र.)-485001
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