किसी ने उसे परी कहा, किसी ने कहा कि देखो, जलपरी को सागर में तैरना आ गया ...
ई-कल्पना में हम जब भी कोई कहानी प्रकाशित करते हैं तो यह ख्याल सबसे ऊपर रहता है कि लेखक को अपनी रचना पढ़कर कितनी खुशी व गर्व अनुभव हो रहा होगा. अंकिता भार्गव को इस साल के मार्च में सूचित किया गया था कि उनकी कहानी नवम्बर में प्रकाशित होगी. पिछले दिनों, 29 अक्तूबर, को उनकी कहानी, "एक सैल्फी प्लीज़" प्रकाशित हुई थी, लेकिन प्रकाशन के बाद ही हमें बताया गया कि वे तो जून में ही कोरोना-ग्रस्त हो कर दुनिया छोड़ गईं.
अफसोस, कि एक प्यारी सी हस्ती को अपने सपनों को साकार करने का पूर्ण समय बड़ी क्रूरता से त्यागना पड़ा. मुझे पता चला कि उनके सिर में एक स्टेडियम को भर देने लायक सपने भरे पड़े थे. उनके एक लिटरैरी ग्रुप के जानकार, उनके मुंहबोले भाई, अनिल मकारिया, ने बताया कि आखिरी दिनों में उन्हें अपना ऑकसीजन सिलैंडर भी गवाना पड़ा. अनिल मकारिया जी के शब्दों में - उस मासूम मुस्कुराहट को मेरी शब्दांजली जो मुझे यह कहते हुए गायब हो गई की "माफ करना भाई! मैंने आपका फोन नही उठाया। मेरा ऑक्सीजन लेवल अब कुछ ठीक है बस बाथरूम जाते वक्त तीस तक गिर जाता है।" फिर हँस पड़ती है यह कहते हुए की "आज कंपाउंडर भैया ऑक्सीजन की मशीन भी लेकर चले गए।"
उपर्युक्त शब्द बहुत विश्वास-योग्य लगते हैं, क्योंकि हम सब ने ऐसा हाल अपने-अपने घरों में हाल ही में देखा है. हम खुद के साथ इतने सस्ते व्यवहार से असंतुष्ट क्यों नहीं होते? क्यों एक गरिमापूर्ण – डिग्नीफाइड – जीवन का तकाज़ा नहीं करते?
बहरहाल, अंकिता, मुझे माफ करना, तुम्हें मैं यह छोटी सी खुशी नहीं दे पाई. तुम जहाँ भी हो, जिस असीमित सागर में विलीन हो, शांति से ज़रूर रहो. तुम्हें हमारी भरपूर श्रद्धांजलि.
- मुक्ता सिंह-ज़ौक्की
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