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डॉ. दामोदर खड़से

छड़ी (द्वितीय पुरस्कृत)


वह फिर दिखाई दिया। उसके कांधे पर छड़ियों का एक बड़ा गट्ठा था। वह झुका सा लग रहा था, घर जाने का उसका समय अभी नहीं हुआ है। हालांकि अब आठ बजने वाले थे – रात के। कुछ बूंदाबांदी होने वाली थी। सैलानी कुछ खरीदारी तो कर रहे थे,  पर संख्या बहुत कम थी। क्यों न कम हो, अब मौसम जो खत्म हो चला था। जो धुआंधार बारिश देखना चाहते थे, वे लोग ही महाबलेश्वर आए हुए थे। अनय ने जब उसे तीसरी या चौथी बार देखा तो ठिठक गया। वह भी अनय को अजीब निगाहों से ताक रहा था। अनय को बेटी ने गुड़ियों की दुकान में खींच लिया।

अनय का मन दुकान में नहीं लग रहा था। वह बार-बार मुड़कर बाहर देखना चाहता और बेटी सिमरन मुड़कर कोई गुड़िया उठाकर पापा की ओर देखती।

‘पापा, मुझे यह गुड़िया चाहिए.....।‘

‘बेटे, मम्मी से कह कर ले ले.....।‘

‘पापा, कैसी है गुड़िया?’

‘अच्छी है बेटे, तुझे पसंद है...ले ले..।‘

मम्मी जूट की एक बैग पसंद करने में लगी थी। वह सिमरन की गुड़िया पर ध्यान नहीं दे पाई। सिमरन का भाई बारह साल का है। बहन की पसंद पर उसकी मुहर लग गई और सिमरन अपनी गुड़िया के साथ फुदकने लगी।

अनय दुकान में बेमन से खड़ा था। इधर-उधर किसी को तलाशता। परन्तु वह दुकान के भीतर क्यों मिलता? उसे याद आया कि “सनसेट प्वाइंट” पर वह अधेड़ आदमी बुढ़ापे की ओर झुक गया था। वह अपनी छड़ियां बेचना चाहता था। शायद एक भी छड़ी नहीं बिकी।

“बाबूजी, ले लीजिए बहुत बढ़िया हैं और एकदम किफायती...।“

“मुझे नहीं चाहिए...।“  अनय आगे बढ़ गया। परंतु वह पीछा करता रहा। “साहब, केवल एक सौ बीस में...इतनी सस्ती और मजबूत छड़ी आपको कहीं नहीं मिलेगी।“

अनय आगे बढ़ने लगा तो वह पीछे-पीछे चलने लगा, “साहब, दस रुपये कम दे देना...।“

कुछ देर तो वह पीछे-पीछे चला, पर जब उसे यह लगा कि ये साहब छड़ी नहीं खरीदेंगे तो पता नहीं कब वह नए ग्राहक की तलाश में पीछे मुड़ गया।

अनय ने पीछे मुड़ कर देखा, वह भीड़ में कहीं खो गया था।

“सनसेट प्वाइंट” पर भीड़ बढ़ रही थी। युवा सैलानी आगे बढ़ने की होड़ में। जुलाई में “सनसेट प्वाइंट” पर इतनी भीड़ नहीं होती, पर पिछले चार दिनों से बारिश नहीं हुई थी, इसलिए भीड़ यहां आ गई थी।

वह भीड़ के बीच अपने ग्राहक तलाश रहा था। फिर उसने दिशा बदली और बस स्टॉप की ओर बढ़ा। कुछ उम्रदराज लोग अपनी गाड़ियों में ही बैठे थे.....अनय बच्चों के लिए पानी की बोतल लेने गया था। बोतल लेकर जैसे ही पीछे मुड़ा, फिर वही आदमी छड़ी लेकर आगे आया, “साहब सौ रुपये दे देना। बिलकुल खरीद भाव में.....।“

अनय ने एकबारगी उसे देखा और आगे बढ़ गया। सिमरन और सारंग प्यासे होंगे...। सिमरन पानी पीने लगी। सूर्यास्त का समय था। सारंग अपनी मां के साथ खड़ा था। अनय के सामने पन्द्रह साल पुराना समय पलक झपकते ही उभर आया।

इसी प्वाइंट पर वह नयी-नवेली पत्नी श्वेता के साथ खड़ा था। सूर्यास्त के समय वह इस प्वाइंट तक पहुंचने की फिराक में टैक्सीवाले पर कितना भड़का था और टैक्सीवाले ने भी पूरी शिद्दत से ड्राइव करके सही समय पर यहां पहुंचाया था। कितना खुश था वह। सूर्यास्त देखने के सही समय पर श्वेता को ला सका वह। अपने कैमरे से वह सूर्यास्त को “क्लिक” करता रहा। श्वेता के फोटो भी अलग-अलग ऐंगल से खींचता रहा। फिर श्वेता का हाथ थाम कर तब तक एकाग्र खड़ा रहा, जब तक सूर्य पूरी तरह डूब नहीं गया। बीच-बीच में श्वेता को निहार लेता। श्वेता से नजर मिलते ही उसकी आंखों में एक दुनिया उभर आती। दूर पहाड़ियों के चारों तरफ लाली ही लाली थी। वह पता नहीं कब तक श्वेता के साथ खड़ा था। उसे लग रहा था सूरज की सारी ऊष्मा श्वेता की हथेलियों में उतर आयी है और वह अपने आपको बहुत सुरक्षित और सुख से लबरेज़ महसूस कर रहा था।

एक छड़ीवाला उसके सामने से गुजरा। वह छड़ियों की ओर देखता रहा... “चालीस रुपये.....चालीस रुपये” चिल्लाता हुआ छड़ीवाला गुजर गया। छड़ीवाले ने अनय और श्वेता की ओर ऐसे देखा जैसे वे उसके ग्राहक हो ही नहीं सकते...वह चिल्लाता रहा....”चालीस रुपये.......चालीस रुपये।“

अनय आंखों ही आंखों में एक छड़ी तय कर चुका था। बाबूजी का खयाल उसका पीछा कर रहा था। वह छड़ीवाले को पुकारने को हुआ। फिर एक व्यावहारिक खयाल ने उसे रोक दिया, “आखिरी दिन ले लेंगे, अभी से कौन संभालेगा।“ श्वेता ने गुमसुम पति को भरपूर निहारा और अपनी खास अदा में एक मुस्कान बिखेरी। अनय का हाथ हथेली से छिटक कर सिर पर एक हल्की सी चपत के रूप में टपका और कांधे पर आकर निढ़ाल हो गया। फिर पता नहीं कब तक वे दोनों झूमते हुए सड़क पर चहल-कदमी करते रहे। अचानक टैक्सीवाले को सामने पाकर वे सचेत हो गए। एक-दूसरे को देखकर हंस दिए और टैक्सी में बैठ गए। सीधे होटल न आकर वे बाजार में कहीं कॉफी पीने उतर गए और यूं ही टहलने लगे। ठीक-ठाक होटल देखकर वे बैठ गए। काफी देर तक कॉफी की चुस्कियां लेते हुए बातें करते रहे। अनय की निगाहों में अचानक कुछ चमका, “बाबूजी ने सपनों-सी यह जिंदगी देने के लिए क्या नहीं किया.....।“ वह खयालों में खो गया। पर, उसका खोना श्वेता की निगाहों से बच नहीं पाया।

“कहां खो गए?” श्वेता की शोखी अनय को बटोर लाई और वह एक घूंट में बची हुई कॉफी गले के नीचे उतार कर उठ खड़ा हुआ।

“चलो, होटल चलते हैं।“

“ठहरो ना, ऐसी भी क्या जल्दी है?”

“चलो भई” ...श्वेता को अनय ने कुछ ऐसे अंदाज में देखा कि श्वेता के मुंह से अनायास ही निकल गया “हट, शरारती कहीं के....।“

“अच्छा ठीक है भई इसी सड़क पर टहलते हैं। सुना है, यहां का भुना चना बहुत मशहूर है”। फिर चने का एक पैकेट लेकर वे दूर तक यूं ही भटकते रहे।

बाद में, श्वेता ने ही कहा “चलो अब होटल चलते हैं?” फिर श्वेता अनय की बांह पकड़ कर चलने लगी।

सारंग पता नहीं कब से अपने पापा को निहार रहा था। अनय खिलौनों के बीच नारियल  की  जटाओं से बने साधु को निहार रहा था। बाबूजी याद आये थे। आंखें भर आई थीं। उसकी डबडबाई आंखों में बाबूजी मानो मुस्करा रहे थे, “बेटे तेरे परिवार को देखकर, तेरी सफलता देखकर मैं बहुत खुश हूं”.... फिर जैसे उन्होंने अनय की बुदबुदाहट सुनी, “बाबूजी, बहुत कुछ छूट गया”....” बहुत कुछ करना छूट गया”.... “कुछ नहीं छूटा, बेटे, जैसे अनय को छूकर कह रहे हों, “सुखी रहो....”। “पर, बाबूजी मैं आपके लिए छड़ी नहीं ला पाया था तब। आपने याद से कहा था”... “कोई बात नहीं बेटे..... देखो, मैं हूं न तुम्हारे साथ....सारंग तुम्हें कैसे निहार रहा है?”

अनय ने आंखें पौंछीं। साधु जटाओं के बीच से अनय को जैसे निहार रहा था। सिमरन पापा का हाथ पकड़कर दुकान से बाहर चलने को कह रही थी। दुकान की भीड़ छंट चुकी थी। सारंग पापा की इस खोई-सी मूरत को निहार रहा था। श्वेता को मालूम था अनय को जरूर बाबूजी याद आ रहे होंगे।

अनय को बड़ा अजीब लगा अपना खो जाना। उसने दोनों बच्चों को भींच लिया और श्वेता से बोला “चलो...”।

श्वेता से वह आंख  नहीं मिला पाया था.... श्वेता समझ रही थी अनय को, “कम ऑन अनय...”।

दुकान से बाहर निकल कर उस छड़ीवाले आदमी को अनय की निगाहें बड़ी बेसब्री से खोज रही थीं।

बाहर हल्की-सी बारिश हो रही थी। वह छड़ीवाला उसी दुकान के बाहर बारिश रुकने का इंतजार कर रहा था। उसने बड़ी आशाभरी निगाह अनय पर डाली, जैसे कह रहा हो, “आज एक भी छड़ी नहीं बिकी....घर क्या मुंह लेकर जाऊं?” अनय पलभर उसके सामने खड़ा रहा और एक छड़ी की ओर इशारा कर बोला, “ये वाली निकालो.....”।

“साहब सिर्फ अस्सी रुपये में ही दे दूंगा, आज एक छड़ी तो बेचूं”।

अनय ने एक छड़ी ले ली और उसे एक सौ बीस रुपये देकर अकेला ही आगे बढ़ गया.... छड़ीवाला देखता ही रह गया .... अनय रह-रह कर छड़ी पर हाथ फेर रहा था। मानो बाबूजी से बातें कर रहा हो।

पीछे-पीछे तीनों आ रहे थे। छड़ी वाला हैरत से उन चारों को निहार रहा था। फिर उसने पैसे गिने और माथे से लगाने के बाद जेब में रख लिये.... अनय का चेहरा वह कभी नहीं भूल पाएगा।

उसने झटके से छड़ियों का गट्ठर पीठ पर उठा लिया। उसकी कमर कुछ सीधी हो गई थी। उसे लगा कुछ दिन और वह बिना छड़ी के चल सकता है। छड़ीवाले के पैर तेजी से अपने घर की ओर बढ़ रहे थे।

 

डा. दामोदर खड़से, बी-503-504, हाईब्लिस, कैलाश जीवन के पास, धायरी, पुणे – 411041

मोबाइल - 9850088496


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