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डॉ हरीश नवल

विक्रमार्क, बुढ़िया और सराय रोहिल्ला (निर्णायक कहानी)


विक्रमार्क ने हठ नहीं छोड़ा और एक बार फिर बेताल का शव पेड़ से उतार कंधे पर लादा और सदा की भाँति मौन अपनी राह पर चल पड़ा. बेताल ने कुछ देर बाद कहा, “मुझे तुम पर तरस आता है. तुम्हारा रास्ता काटने के लिये आज तुम्हें मैं तुम्हारी राजधानी दिल्ली का एक किस्सा सुनाता हूँ. दिल्ली का एक आम इलाका है सराय रोहिल्ला, वहाँ बशेशरनाथ अपनी पत्नी और बच्चों के साथ रहता है. लोअर मिडिल क्लास से ताल्लुक रखता है. उसके दो बड़े भाई दिल्ली में ही अलग-अलग जगहों पर रहते हैं, इकलौती बहन है जो शादी के बाद अपने पति के साथ हापुड़ में रहती है. इन चारों की माँ मेरे किस्से की नायिका है.

बुढ़िया प्रागैतहासिक हो चुकी थी. शरीर की शक्ति लगभग चुक गई थी और चूँकि उसके तीनों बेटे उसके हाथों से निकलकर अपनी पत्नियों के हाथों में खेल रहे थे, अतः वह बेचारी मेरठ में अपने छोटे भाई के साथ रहकर दिन काट रही थी. एक दिन होनी ऐसी हुई कि उसके भाई की मृत्यु हो गई. भाई के पुत्र ने सराय रोहिल्ला में बशेशरनाथ को तार दिया कि वे आएँ और अपनी चल संपत्ति माँ को ले जाएँ जो वहाँ भाई के गम में अचल हो रही है. (हाँ, तुम्हें यह बता दूँ कि मेरठ वाले की डायरी में सराय रोहिल्ला वाले का ही पता था.)”

बेताल ने साँस लेकर फिर किस्सा शुरू किया, “बशेशरनाथ को जब तार मिला, उस समय वह पत्नीविहीन हो, सुखी जीवन व्यतीत कर रहा था. (पत्नी मायके गई हुई थी.) वह माँ का सबसे छोटा व लाड़ला बेटा था, शायद इसीलिए उसके दिल में माँ के लिये कहीं थोड़ी-सी “वैकेंसी” थी. वह तुरंत मेरठ गया और माँ को सराय रोहिल्ला ले आया. माँ, भाई के गम व बुढ़ापे की वजह से क्षीण हो गई थी. यहाँ दो दिन तो आराम से कटे किंतु तीसरे दिन जैसे ही श्रीमती बशेशरनाथ बच्चों के साथ घर लौटी तो लौटते ही उसकी छाती पर काला भुजंग लोट गया, जब उसने देखा कि उसके बिछौने पर सास जी लेटी हुई हैं और पतिदेव टेंपरेचर ले रहे हैं. कठिनाई से श्रीमती नाथ ने अपना टेंपरेचर डाउन किया. फ़ारमल नमस्कार-चमत्कार के बाद पहला काम तो यह किया कि सास को अपने बिछौने से हटाकर पीछे कोठरी में उसकी उम्र से मेल खाती हुई चारपाई-सी वस्तु पर स्थानांतरित कर दिया और फिर बशेशरनाथ पर चढ़ बैठी, “क्यूँ जी, एक तुम्हीं लाडले शरवन कुमार थे जो डोली में बिठाकर बुढ़िया को सराय रोहिल्ला तीर्थ पर लाकर पुण्य कमा रहे हो? बाकी दोनों सौतेले थे जो मेरी जान को यहीं आफ़त लानी थी ...” आदि ... आदि. उधर बुढ़िया बुखार में डूबी हुई थी. ये डायलाग सुनकर उसका दिल भी डूबने लगा, लेकिन तभी उसे तिनके का सहारा मिला जब बशेशरनाथ ने क्रोध दबाते हुए कूट शैली में कहा, “भगवान, देखो अब यह उनकी विदा-बेला है, जाने कब चली जाएँ, मैं तो उन्हें जान-बूझकर यहाँ लाया हूँ ताकि लोग देखें और कहें कि अंतिम बखत में बशेशर की घरवाली ही काम आई; सबसे छोटी बहू थी लेकिन सास का ख्याल उसी को सबसे ज़्यादा था, फिर माँ कौन-सा तंग करेंगी, पड़ी रहेंगी कोठरी में, खा-पी ज़्यादा सकती नहीं हैं, राशनकार्ड में उनका नाम बढ़वा लेंगे और राशन ब्लैक कर देंगे, क्यों?”

इधर बुढ़िया ने बेटे के कथन में से अपने मतलब का सार गह लिया और बाक़ी थोथा समझकर उड़ा दिया और उधर श्रीमती बशेशरनाथ ने बहुत अरसे बाद पति को ‘समझदार’ विशेषण से विभूषित किया.

बहन-भाइयों तक ख़बर पहुँची कि माँ बीमार है और सराय रोहिल्ला में ही है, सो अगले इतवार नाश्ते के समय बड़े और भोजन के समय तक मँझले भाई सपरिवार सराय रोहिल्ला पहुँच गए. माँ का शारीरिक संस्करण कितना संक्षिप्त हो गया था, इस बात की वृहत् रूप में चर्चा करने लगे. बच्चों के लिये दादी माँ एक अजीब वस्तु थी, वे उसे छू-छूकर देख रहे थे कि कहाँ-कहाँ से बोलती है. हापुड़ से एक शाम बहन भी पति के साथ ख़ाली हाथ आई और दो दिन बाद थैले भरकर ले गई.

विक्रमार्क थक गया था, उसने कंधा बदला, बेताल फिर चालू हो गया, “दिनों के साथ-साथ माँ का शरीर भी गलने लगा. नौबत यहाँ तक पहुँच गई कि माँ का शौचालय तक पहुँचना भी मुहाल हो गया जिससे श्रीमती बशेशरनाथ का बुरा हाल हुआ. परिवार-नियोजन वालों के सौजन्य से बच्चों को धोने-पोंछने से किसी तरह छुटकारा मिला था, लेकिन अब बुढ़िया ने भूली दासता बहुत ज़ोर-शोर से याद दिला दी. कुछ दिन तो दवा-दारू (दारू टेंशन में बशेशरनाथ पीता था) की गई पर फिर श्री व श्रीमती नाथ को बोध हुआ कि यदि दवाएँ चलती रहीं और असली मिलती रहीं तो बुढ़िया भी न जाने कब तक चलती रहे, अतः दवाएँ बंद करके दुआएँ चालू कर दीं कि छुटकारा जल्दी मिले, किंतु साईंया उसे राखने के पक्ष में था. श्रीमती बशेशरनाथ रोज़ सुबह एक नई आशा से उठती किंतु बुढ़िया को पलकें झपकाते देख निराश हो जाती. बुढ़िया खाती कम थी, किंतु बनाती अधिक थी. घर के सभी पुराने कपड़े उसके उत्पादन को ठिकाने पहुँचाने में खत्म हो चुके थे. श्रीमती बशेशरनाथ ने कई मन्नतें मानी, टोटके किए, व्रत भी रखे लेकिन हर वार खाली गया. हारकर उसने एक ज्योतिषी को बुलाया और उससे बुढ़िया की मुक्ति सूचना चाही, ज्योतिषी ब्रह्मचारी था, उसने जाँच-वाँचकर बताया, “चिंता की बात नहीं है, माँजी शीघ्र ही स्वस्थ हो जाएँगी.”

उसी शाम ऑफ़िस से लौटते से लौटते ही बशेशरनाथ को शाही फ़रमान मिला कि आज रात तक बुढ़िया जेठ जी के घर पहुँच जानी चाहिये और उसी रात बुढ़िया का ट्रांस्फ़र उसके बड़े पुत्र को कोठी सिविल लाइंस में हो गया.

दो ही दिन बाद बशेशरनाथ को सूचना मिली कि माँ जी की मृत्यु हो गई. सारा परिवार सिविल लाइंस में एकत्रित हुआ. पंडित बुलाया गया, हवन किया गया, विमान आया जिसे तीनों भाइयों ने मिलकर सजाया, उसमें फल लटकाए, गुब्बारे बाँधे. बुढ़िया के लिये कफ़न मँगाया गया, बुढ़िया के लिये कपड़े, जूते, ट्रंक, बर्तन जिनका सपना वह जीते जी लेती थी, लाए गए और करीने सजा दिए गए. बड़े-बूढ़े और उनसे ज़्यादा मुहल्ले की औरतें जो कहतीं, मँगाया गया. बैंड-बाजे बुलवाए गए और बहुत धूमधाम से शव यात्रा निगमबोध घाट की ओर रवाना हुई. घंटे बजाए गए, गुलाल, फूल और सिक्के लुटाए गए. आगे-आगे जल छिड़कते हुए सिर घुटाए हुए नंगे पैर धोती-बनियान पहनकर जेठ जी शोक-विह्वल, दहाड़ें मारते हुए चल रहे थे. श्मशान घाट पर जब बुढ़िया को जलाने के लिये पहली लपट जेठ जी ने लगाई, जेठानी पछाड़ खाकर गिर पड़ी. श्री व श्रीमती बशेशरनाथ पहले ही से आँसुओं से तर थे और जेठ जी अभी भी बिलख रहे थे.”

थोड़ी देर मौन रहने के बाद बेताल ने फिर मुँह खोला, “अच्छा विक्रमार्क, यह किस्सा समझो कि यहीं खतम, अब इससे संबंधित मेरे प्रश्नों के उत्तर जान-बूझकर नहीं दोगे तो तुम्हारा सिर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा. प्रश्न है कि जब श्रीमती व श्री बशेशरनाथ बुढ़िया की मृत्यु ही चाहते थे तो भी आँसू निकल रहे थे, दूसरे जेठ जी क्यों बिलख रहे थे और जेठानी पछाड़ खाकर क्यों गिरी?”

विक्रमार्क ने कुछ देर सिर खुजलाने के बाद उत्तर दिया, “जेठानी इसलिये पछाड़ खाकर गिरीं कि उन्हें यह अनुमान नहीं था कि बुढ़िया के मरने पर इतना अधिक पैसा खर्च करना पड़ेगा, खर्चे का हिसाब लगाते ही उन्हें गश आ गया. श्री व श्रीमती नाथ इसलिये आँसू बहा रहे थे कि दो दिन बुढ़िया को और अपने पास रखते तो जो यश जेठ-जेठानी को मिल रहा था, वह उन्हें मिलता. और जेठ? वे इसलिये बिलख रहे थे कि फ़ैशनपरस्त होते हुए भी माँ के मरने पर उन्हें सिर मुँड़ाना पड़ा.”

यों विक्रमार्क का मौन भंग होते ही बेताल का शव छूटकर वापस उसी पेड़ पर लटक गया.

- यह कहानी डॉ नवल के प्रथम  व्यंग्य संकलन ‘बागपत के ख़रबूज़े’ से है ।’बागपत के ख़रबूज़े’ ने उन्हें ‘युवा ज्ञानपीठ पुरस्कार’ उपलब्ध करवाया। टाइम्ज़ सर्वेक्षण में बीसवीं शताब्दी की सौ सर्वश्रेष्ठ हिंदी कृतियों में इस पुस्तक को स्थान मिला ।

 

जन्म- ८ जनवरी १९४७ को पंजाब के जलंधर जिले में शिक्षा- एम.ए., एम. लिट. तथा पी.एच.डी. की उपाधि

कार्यक्षेत्र- अध्यापन एवं लेखन। डॉ. हरीश नवल बतौर स्तम्भकार इंडिया टुडे, नवभारत टाइम्स, दिल्ली प्रेस की पत्रिकाएँ, कल्पांत, राज-सरोकार तथा जनवाणी (मॉरीशस) से जुड़े रहें हैं। इन्होने इंडिया टुडे, माया, हिंद वार्ता, गगनांचल और सत्ताचक्र के साथ पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम किये हैं। वे एन.डी.टी.वी के हिन्दी प्रोग्रामिंग परामर्शदाता, आकाशवाणी दिल्ली के कार्यक्रम सलाहकार, बालमंच सलाहकार, जागृति मंच के मुख्य परामर्शदाता, विश्व युवा संगठन के अध्यक्ष, तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन में अंतरराष्ट्रीय सह-संयोजक पुरस्कार समिति तथा हिन्दी वार्ता के सलाहकार संपादक के पद पर काम कर चुके हैं। वे अतिथि व्याख्याता के रुप में सोफिया वि.वि. बुल्गारिया तथा मुख्य परीक्षक के रूप में मॉरीशस विश्वविद्यालय (महात्मा गांधी संस्थान) का दौरा कर चुके हैं।

प्रकाशित कृतियाँ- व्यंग्य संग्रह- बागपत के खरबूजे, पीली छत पर काला निशान, दिल्ली चढ़ी पहाड़, मादक पदार्थ, आधी छुट्टी की छुट्टी, दीनानाथ का हाथ, वाया पेरिस आया गांधीवाद, वीरगढ़ के वीर, मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएँ, निराला की गली में। समीक्षात्मक लेख- तीन दशक, रंगमंच – संदर्भ, नव साहित्य की भूमिका और माफिया जिंदाबाद तथा छोटे परदे का लेखन संपादित पुस्तकें- भारतीय मनीषा के प्रतीक, रंग एकांकी, गद्य – कौमुदी, धर्मवीर भारती के नाम पत्र, व्यावहारिक हिन्दी, शिव शम्भू के चिट्ठे और अन्य निबंध तथा साहित्य-सुबोध। सह लेखन- भारतीय लघुकथा-कोश, विश्व लघुकथा-कोश आदि देश विदेश के अनेक संकलनों में रचनाएँ संकलित।

पुरस्कार व सम्मान- युवा ज्ञानपीठ पुरस्कार, गोविन्द वल्लभ पंत पुरस्कार (भारत सरकार), साहित्य कला परिषद् पुरस्कार (दिल्ली राज्य), साहित्यमणि (बिहार), बालकन जी बारी इंटरनेशनल सम्मान, साहित्य-गौरव (हरियाणा), मीरा-मौर (दिल्ली हिन्दी साहित्य सम्मेलन), जैनेन्द्र कुमार सम्मान, फिक्र तौंसवी सम्मान, माध्यम का अट्टाहास सम्मान, काका हाथरसी सम्मान व हास्य रत्न, हिन्दी-उर्दू अवार्ड (उत्तर प्रदेश) आदि।

ई मेल : harishnaval@gmail.com

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