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सुषम बेदी - साक्षात्कार

अगस्त 1, 2016

ई-कल्पना - सुषम जी, अपने करियर की शुरुआत में आप एक अभिनेत्री थीं, दूरदर्शन की कॉमैन्टेटर थीं, रेडियो के नाटकों में सक्रिय थी. 60 और 70 के वे दशक हिन्दी साहित्य के लिये रोमांचक समय लगते हैं, कई दिग्गज लेखक आपके समकालीन, शायद आपके कलीग रहे होंगे ... अमेरिका आ कर भी आपने कई टीवी शोज़ में अभिनय किया ...

सु.बे. - यह सही है कि जिन दिनों मैं इंद्रप्रस्थ कालेज मे पढ़ रही थी, दिल्ली एक तरह से हिंदी लेखन का गढ़ बना हुआा था.  कहीं न कहीं मुलाकात हो ही जाती और फिर हम लोग पढ़ते भी इन लेखकों को बड़े शौक से थे.  मुझे याद है कि जब अंतर्कालेज प्रतियोगिताओं में हम जाते तो निणार्यक भी यही लेखक होते.  जानकीदेवी कालेज की एक कहानी प्रतियोगिता में जब पुरस्कार मिला तो निर्णायक राजेन्द्र यादव और मन्नू भंड़ारी थे.  गीतकार नरेन्द्र शर्मा कविता प्रति० के मुख्य जज थे जब मैं और मेरी सहेली ट्राफी लेकर आये थे.

एम.ए. के बाद जब कमला नेहरु कालेज में पढ़ा रही थी तो हमने कवि सम्मेलन किया था जिसमे भवानी प्रसाद मिस्र, कैलाश वाजपेयी, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना थे. इन सब को बुलाने हम नवभारत टाइम्स के दफतर गये थे. उन दिनों अग्येय जी दिनमान निकाल रहे थे और ये सब वहीं काम करते थे. इसीसे एक ही जगह सबको निमंत्रण देना संभव हो गया था. बुलाया तो अग्येय जी को भी था पर वे नहीं आ सके. ब्रसल्स जाने से पहले मैं अग्येय जी से मिली थी. वे नवभारत टाइम्स के संपादक थे और ब्रसल्स से मैं उनको यूरोपीय साझा मंड़ी के बारे में तथा दूसरे लेख भेजती थी जो नियमित रूप से आपैड पेज पर छपते रहे जब तक वे संपादक रहे. उनके बाद मैंने भी यह सब लिखना बंद किया और कहानी लेखन में जुटी.  कैलाश वाजपेयी हमारी एक कुलीग के पति थे सो उनको बार बार बुलाया कालेज में.  चूंकि टीवी-दूरदर्शन से जुड़ी थी. कमलेश्वर वही थे. अपना पहला उपन्यास ‘हवन’ उन्हीं को दिया था. तब वे गंगा के संपादक थे. कमलेश्वर के बाद वहां अक्षोभेश्वरी प्रताप स्क्रिप्ट राइटर बने.  वे मेरी कहानियां पढ़कर अपनी राय देते.  मेरे एम.फिल. के परीक्षक हजारी प्रसाद द्विवेदी थे

 

ई-कल्पना - आपने लिखना कब शुरू किया.

सु.बे. - मैंने लिखना भी एक तरह से कालेज के दिनों से ही शुरु किया था. दसवी कक्षा में भी एक उपन्यास लिखा था और कुछ कविताएं. पर उपन्यास तो वहीं लखनऊ में रह गया और कविताएं दिल्ली पहुंचकर बहुत बचकानी लगने लगीं।  अब समझ में आता है कि उम्र और आसपास का असर हमारे लेखन को भी परिपक्व करता रहता है. यहां आकर मुक्तछंद में कुछ अच्छी कविताएं लिखी जिन को प्रतियोगिताओं में पुरस्कार मिले. पर जम कर लेखन अमरीका आने के बाद हुआ जब बच्चे स्कूल जाने लगे .

अमरीका में छोटा मोटा अभिनय तो करती रही पर प्रोफेशनल तौर पर टीवी या फिल्मों मे अभिनय सन २००० से शुरु हुआ.  तब मुझे एजेंट भी मिला और नियमित रूप से भूमिकाएं भी. और तभी मैं स्क्रीन एक्टर गिल्ड की सदस्य बनी.

ई-कल्पना - हमारे यहाँ अच्छे लेखकों की कमी नहीं है. कमी है तो पाठकों की. इसलिये देश का हिन्दी राईटिंग लैंडस्केप सक्रिय नहीं है. इसके अलावा, अच्छे लिटरैरी सीन बनाने को महत्व न दे कर, बड़े पब्लिशिंग हाऊसिस का बैस्टसैलिंग शीर्षकों को शैल्फ़ में रखने की ज़िद ने अब ये स्थिति बना दी है कि सम्पूर्ण पब्लिशिंग इंडस्ट्री गिनती के कुछ ही बहुत जाने-माने लेखकों के पक्ष में रिग्ड हो गई है. पश्चिम का ये ट्रैंड भारत में भी बड़ी तेज़ी से आ गया है. ये ट्रैंड हिन्दी पब्लिशिंग के लिये और भी गंभीर साबित हो रहा है. क्या ऐसी स्थिति से निकलने का आपको कोई रास्ता नज़र आता है.

सु.बे. जहां तक प्रकाशन और प्रकाशकों का सवाल है वे तो सिर्फ प्रौफिट के लिये ही है. कौन लेखक छप रहा है के बजाय, किस किताब से उनको ज्यादा पैसा मिलेगा यही देखते हैं. यूं तो हर कहीं अपने लाभ के लिये ही प्रकाशक छापते हैं लेकिन यहां कुछ और योजनाओं के तहत कम जाने लेखक भी छप पाते हैं.  दूसरा मैंने अमरीका और भारत में छपने में बहुत बड़ा अंतर देखा है. यहां प्रकाशक से कहना नहीं पड़ता कि रायल्टी मिलेगी या कब? चेक अपने आप मेल में आ जाता है.  वहां छोटे लेखकों को तो कोई धेला देने को तैयार नहीं.  सारा हिसाब किताब साफ सुथरा रहता है.  जब  साहित्यकार खुद प्रकाशन के क्षेत्र में आयेंगे तभी समाधान हो सकता है या
कोआपरेटिव प्रकाशन की योजनाएं बनायी जायें--तब या तो सरकार या खुद लेखकों को सामने आना होगा.

ई-कल्पना - नए लेखकों को आप कुछ टिप्स देंगी?

सु.बे. - नए लेखकों के लिये यही कि ईमानदारी और प्रतिबद्धता से अपना लेखन करते रहें. छपने की जल्दबाजी या चाह में कोई शार्टकट न लें.

susham.bedi@gmail.com

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